चुनावी चख-चख -13
शोरगुल बन्द,जोड तोड शुरु
तेरहवां दिन – 23 नवंबर
दिन भर के कानफोडू शोरगुल के बाद अब तमाम नेता जोड तोड में जुट गए है। आने वाले उनचालिस घण्टे चुनावी दावेदारों के लिए कयामत की रात की तरह है। शहर की पिछडी बस्तियों में लेन देन का खेल अगली दो रातों तक जोरशोर से चलेगा। इस बार मतदाताओं को बडा फायदा मिलने के अनुमान लगाए जा रहे है। मैदान में भैया जी जैसा जब्बर आदमी मौजूद हो तो वोट की कीमत बढना लाजिमी है। वैसे भी इलेक्शन कमीशन की सख्ती का दूसरा मतलब यही है कि मतदाता को कम्बल, साडी, शराब या कोई अन्य सामग्री देने की बजाय सीधे कैश ट्रांसफर कर दिया जाए। सबसीडी का कैश ट्रांसफर कितना और कैसा कमाल दिखाएगा? दिखाएगा भी या नहीं कोई नहीं जानता। कमाल हुआ या नहीं इसका संस्पैंस तो आठ दिसम्बर को ही दूर हो पाएगा।
इजाजत में भेदभाव
प्रचार के आखरी समय पर प्रशासन ने भी भैया जी का रौब खाया। फूल छाप पार्टी समेत तमाम दावेदारों को प्रचार रैली की अनुमति शाम चार बजे तक दी गई थी। फूल छाप पार्टी की रैली में दूसरे जिलों से मंगाई गई भीड थी और फूल छाप वाले चाहते थे कि इसका ज्यादा से ज्यादा फायदा उठा सके। इसलिए फूल छाप वालों ने सरकार से इजाजत मांगी और शाम चार बजे फूल छाप वालों को एक नई इजाजत शाम चार पचास तक के लिए दे दी गई। इस दूसरी इजाजत से पंजा छाप और बिना पार्टी वाले दोनो भडके हुए है। बिना पार्टी वाले झुमरु दादा ने इस बात की शिकायत भी दर्ज करवा दी है।
मजदूरों के मजे
प्रचार का आखरी दिन मजदूरों के लिए मजे वाला साबित हुआ। लेकिन ये मजे रतलाम के नहीं बदनावर के मजदूरों ने लिए. आज के दिन बदनावर के मजदूरों को न सिर्फ छुट्टी मिली बल्कि रतलाम जाकर घुमने फिरने के लिए भारी मेहनताना भी मिला। काम सिर्फ दोपहर एक बजे से शाम पांच बजे तक शहर की सड़कों पर घुमने का था। बीच बीच में थोडे नारे भी लगाने थे। इतने से काम के एवज में छुट्टी,खाना और फीस सबकुछ मिला। आखरी दिन था,इसलिए सबकुछ प्रचार में झौंक दिया गया। कम्प्यूटर डिजाईनर तक झण्डे डण्डे लेकर घुम रहे थे। सड़क के दोनो ओर खडे लोगों की निगाहें कार्यकर्ताओं को ढूंढती रही,लेकिन वे कहीं नजर नहीं आए।
सनातन का सहारा
पंजा छाप वाली बहन जी को अपने ब्राह्मणत्व और सनातनी होने का सहारा नजर आ रहा है। टोपीवालों का साथ हासिल हो जाने के बाद पंजा छाप वाले चाहते है कि सनातन वाली तनातनी फिर से शुरु हो जाए,जिससे कि पंजा छाप की ताकत बढ जाए। लेकिन पंजा छाप वाले कई सारे नेता पंजे को डूबाने में जोर शोर से लगे है। जब किसी राष्ट्रीय पार्टी का अध्यक्ष अपनी ही पार्टी को निपटाने का तमन्नाई हो,तो पार्टी के हश्र का अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है। हांलाकि यहां इसका कोई खास असर नहीं पडेगा। इसकी वजह भी बडी साफ है कि पंजा छाप के शहर के मुखिया का खुद का कोई जनाधार नहीं है। जनाधार होता,तो कहानी कुछ दूसरी हो सकती थ। लेकिन पंजा छाप वाले अपनी संस्कृति कैसे छोड सकत्ते है?