Disaster Opportunity राग रतलामी – झूमरू दादा ने भी तलाश लिया आपदा में अवसर,अखबारों में छपने लगी दादा की खबर
-तुषार कोठारी
रतलाम। हर कोई कोरोना के कहर से कराह रहा है,ेलेकिन आपदा में अवसर ढूंढने वाले अवसरों की खोज में लगे हुए हैैं। व्यावसायिक व्यक्ति अपने व्यवसाय के नए अवसर तलाश रहा है,चिकित्सा जगत के लोग चिकित्सा में अवसर खोज रहे है। यानी कि जिस किसी को भी अवसर चाहिए वह अवसर तलाशने में जुटा हुआ है। जब हर कोई यही कर रहा है तो झूमरु दादा क्यों पीछे रह जाते? उन्होने भी अवसर तलाश लिया। ये अलग बात है कि उनके अवसर की तलाश को आसानी से समझा नहीं जा सकता।
अब सवाल ये पूछा जा रहा है कि झूमरू दादा ने ऐसा क्यों किया? इस सवाल का जवाब जानने के लिए पहले झूमरू दादा की पुरानी कहानी को जानना जरुरी है। झूमरू दादा किसी जमाने में खुद को दिग्गी राजा का खास समझने लगे थे। फिर वो वक्त भी आया,जब रतलाम के बाशिन्दों ने उन्हे आसमान की बुलन्दियों तक पंहुचा दिया और झूमरू दादा ने सूबे की बडी पंचायत की सीट हासिल कर ली। लेकिन बाद में धीरे धीरे झूमरू दादा को समझ में आया कि उन्हे मिली जीत में उनकी खुद की कोई खासियत नहीं थी,बल्कि रतलाम के लोग बदलाव चाहते थे और इसी का फायदा उन्हे मिल गया था। झूमरू दादा की पूछ परख शहर में कम होती चली गई। थक हार कर झूमरु दादा ने पंजा पार्टी का दामन थामा,लेकिन पंजा पार्टी के पक्के नेताओं ने यहां भी उनकी दाल नहीं गलने दी। यानी कि पंजा पार्टी में दोबारा आने के बाद भी झूमरू दादा की हैसियत छुटभैय्ये वाली ही बनी रही। जबकि उन्हे उम्मीद थी कि पंजा पार्टी में आने से उन्हे पुरानी वाली हैसियत मिल जाएगी।
तो आप समझे,झूमरू दादा का यही दुखडा था। उनकी पूछ परख हो नहीं रही थी। अपनी पूछ परख को फिर से हासिल करने के चक्कर में दादा ने आपदा में अवसर तलाशा। कन्टेनमेन्ट एरिया में बन्द होने के बावजूद झूमरू दादा,अफसरों को समझाने धमकाने के चक्कर में मीटींग में जा पंहुचे। हर कोई जानता है झूमरू दादा जीनीयस है। उनका पक्का गणित था कि या तो मीटींग में शामिल होने से सीधे सीधे झांकी जम जाएगी और अगर ऐसा नहीं हुआ,तो बवाल मचेगा,और वैसे नहीं तो ऐसे,उनकी झांकी जम जाएगी।
झूमरू दादा का गणित बिलकुल सही था। मीटींग में तो उनको तवज्जोह नहीं मिली,लेकिन सियासती दांवपेंच जरुर चल गए। किसी दिलजले ने झूमरू दादा की शिकायत कर दी कि कन्टेनमेन्ट एरिया में बन्द होते हुए भी वो मीटींग में आ गए है और इससे मीटींग में शामिल लोगों पर भी कोरोना का खतरा छा गया है। बस फिर क्या था। बवाल मचा। वर्दी वाले सक्रिय हुए और झूमरू दादा के खिलाफ केस दर्ज कर दिया गया। झूमरू दादा को फिर से कन्टेनमेन्ट में बन्द कर दिया गया है। लेकिन झूमरू दादा जो चाहते थे,वो तो हो गया। अखबारों और टीवी की खबरों में दादा की खबरें छाने लगी है। बस यही तो वो चाहते थे। लम्बे वक्त से उनकी खबरें नदारद थी। भला हो कोरोना की आपदा का,जिसने झूमरू दादा को खबरों में आने का अवसर दे दिया।
बेशर्म सेवाभावी……
आपदा के दिनों में सेवा करने वालों को सेवा करने का अच्छा मौका मिल जाता है। जो निस्वार्थ सेवाभावी है,वो तो सेवा कार्यो में जुटे ही रहते है,लेकिन आपदा के मौकों पर नए नए सेवाभावी सक्रिय हो जाते है। जैसे ही शहर में इंजेक्शनों की कमी होने की खबरेंआई,कई सारे मौसमी सेवाभावी सक्रिय हो गए। इनमें कुछ ऐसे थे,जिन्होने बडी तादाद में मुफ्त इंजेक्शन मुहैया कराने की घोषणाएं की थी। ना जाने कितनें गरीबों की मेहनत की कमाई हडप कर और सरकारी नियमों की धज्जियां उडा कर कमाए गए काले धन को खर्च करने का इससे अच्छा अवसर और क्या हो सकता है? सेवा तो हो ही रही है,बोनस में छबि सुधर जाने की भी उम्मीद बन जाती है। चाहे जो हो,फिर भी इस तरह की सेवा से कुछ या कई लोगों को फायदा तो हो ही जाता है। लेकिन इस दौर में कुछ बेशर्म सेवाभावी भी सामने आए,जो सेवा के दौरान भी जाति धर्म देखकर सेवा करना चाहते थे। बेशर्मी की हद ये कि वे इस बात को छुपा भी नहीं रहे। काटजू नगर के एक निजी अस्पताल ने तो बाकायदा जैन धर्मावलम्बियों की जांच रियायती दर पर करने की घोषणा की। इसी तरह कुछ और बेशर्म सेवाभावियों ने भी अपने ही धर्म के लोगों की सेवा करने के विज्ञापन सोशल मीडीया पर फैलाए। इन्हे कौन समझाए कि सेवा में अगर जात धर्म देखेंगे तो जिस पुण्य कमाने के लालच में सेवा कर रहे है,वह पुण्य कभी भी नहीं मिल सकता।
पाजिटिव हुआ नेगैटिव….
कोरोना काल से पहले कहा जाता था ”बी पाजिटिव,थिंक पाजिटिव”,लेकिन कोरोना काल के बाद अब बी पाजिटिव कहना खतरे से खाली नहीं है। कोरोना ने ‘पाजिटिव’ शब्द के मायने ही बदल डाले है। अब कोई भी ‘पाजिटिव’ होना नहीं चाहता। हर कोई चाहता है कि वह ‘नैगेटिव’ ही रहे। लेकिन ‘नेगेटिव’ सिर्फ कोरोना के सन्दर्भ में ही होना चाहिए। जीवन के दूसरे मामलों में और खासतौर पर कोरोना के इलाज के मामले में तो ‘पाजिटिव’ रहना जरुरी है। वास्तविकता इससे ठीक उलट है। कोरोना के चलते नैगेटिविटी(नकारात्मकता) इतनी हावी हो गई है,कि अच्छाईयों को नजर अंदाज कर सिर्फ नकारात्मकता देखी जा रही है। मेडीकल कालेज में भर्ती होने वाले प्रत्येक सौ मरीजों में से अधिकांश स्वस्थ होकर घर जा रहे है। कोरोना की मृत्यु दर अब भी दो प्रतिशत से कम है। लेकिन नकारात्मकता इतनी हावी है कि ठीक होने वालों का कहींं जिक्र ही नहीं है। सौ में से अट्ठानवें ठीक होने वाले को भूला कर केवल दम तोडने वालों का ही जिक्र किया जा रहा है। जिसे देखिए व्यवस्था को कोस रहा है। मेडीकल कालेज की अव्यवस्थाओं का ही रोना रोया जा रहा है। चिकित्सकों का कहना है कि मरीजों में सकारात्मक सोच(पाजिटिविटी) जल्दी स्वास्थ्यलाभ के लिए जरुरी है,लेकिन भर्ती होने से पहले ही यदि मरीज मेडीकल कालेज के बारे में बुरी धारणाएं बनाकर पंहुचेगा,तो इलाज पर भी इसका बुरा असर पडना तय है। मरीज को अपने चिकित्सक और अस्पताल पर भरोसा होना जरुरी है,लेकिन नकारात्मकता इसी भरोसे को तोड रही है।
अत्यन्त प्रतिकूल परिस्थितियों में इलाज कर रहे मेडीकल कालेज के चिकित्सकों और स्वास्थ्यकर्मियों के लिए भी सकारात्मक माहौल जरुरी है,तभी वे अपना सर्वश्रेष्ठ दे सकते है,लेकिन जो माहौल बनाया जा रहा है,वो पूरी तरह ‘नेगेटिव’ है। इसलिए अब जरुरी है ”बी पाजिटिव-थिंक पाजिटिव”।