कांतिलाल पर भारी गुटबाजी और नाराजी
लोकसभा चुनाव- रतलाम झाबुआ संसदीय सीट परिदृश्य-2
रतलाम,9 अप्रैल(इ खबर टुडे)। विधानसभा चुनाव के दौर में और लोकसभा चुनाव से पहले जब रतलाम में सांसद कांतिलाल भूरिया के होर्डिंग्स पर डॉ.विक्रान्त भूरिया के फोटो लगे हुए दिखाई दिए थे,यह माना जाने लगा था कि शायद अगला चुनाव कांतिलाल नहीं बल्कि उनके सुपुत्र डॉ.विक्रान्त लडेंगे। लेकिन ये अनुमान अब झूठ े साबित हो चुके है और प्रदेश कांग्रेस का नेतृत्व संभाल चुके कांतिलाल भूरिया परंपरागत चुनावी संघर्ष में ताल ठोंक रहे हैं।
भाजपा के प्रत्याशी दिलीप सिंह भूरिया को लोकसभा चुनाव में एक से अधिक बार शिकस्त दे चुके कांतिलाल के लिए भी इस बार चुनौती बेहद कडी है। प्रदेश का विधानसभा चुनाव कांग्रेस ने उन्ही के नेतृत्व में लडा था। लेकिन वे अपने ही संसदीय क्षेत्र की एक भी सीट नहीं बचा पाए। प्रदेश में चल रही शिवराज लहर ने न तमाम दावों को झुठला दिया कि झाबुआ का अनपढ आदिवासी मतदाता सिर्फ पंजे को पहचानता है। संसदीय क्षेत्र की आठों सीटों पर पंजे का सफाया हो गया और कमल हर ओर खिला हुआ नजर आया। इतना ही नहीं उन्ही की रिश्तेदार कलावती भूरिया ने टिकट नहीं मिलने पर कांग्रेस का साथ छोडने में एक मिनट की देरी नहीं की। हांलाकि कलावती अब फिर से कांग्रेस में आ चुकी है।
कांतिलाल भूरिया के राजनीतिक कैरियर में अब तक तो लगातार जीत ही दर्ज हुई है। उनकी सबसे असरदार जीत तब हुई थी,जब उन्होने कांग्रेस छोड कर भाजपा में गए दिलीपसिंह भूरिया को करारी पराजय का मजा चखाया था। इसके बाद उन्होने एक बार रेलमबाई चौहान और दिलीप सिंह भूरिया को फिर से हराया। लगातार जीत के कारण वे कांग्रेस के कद्दावर नेताओं में गिने जाने लगे। उन्हे केन्द्रीय मंत्रीमण्डल में भी लिया गया और बाद में प्रदेश की कमान भी सौंपी गई।
लेकिन लगता है कि प्रदेश कांग्रेस की कमान मिलना ही उनके राजनैतिक कैरियर की सबसे ज्यादा उंचाई थी,क्योकि यहीं से उनके कैरियर का ग्राफ नीचे आता दिखाई देने लगा।
कांतिलाल भूरिया को प्रदेश कांग्रेस की कमान देते वक्त कांग्रेस हाइकमान को लगा था कि एक आदिवासी नेता को सूबे का मुखिया बनाए जाने से आदिवासी मतदाता फिर से कांग्रेस के नजदीक आने लगेंगे। लेकिन कांतिलाल ऐसा कोई चमत्कार नहीं दिखा पाए। प्रदेश के अन्य क्षेत्रों की बात तो दूर रही वे अपने गृह जिले के ही आदिवासियों को कांग्रेस के नजदीक नहीं ला पाए। झाबुआ जिले की हर सीट पर कांग्रेस को हार का मुंह देखना पडा।
चुनावी जंग में जहां हार ने उन्हे परेशान किया,वहीं पार्टी के भीतर भी उनकी चुनौतियां बढती गई। कहां तो उन्हे पूरे प्रदेश की कांग्रेस सम्हालना थी,लेकिन यहां तो उन्ही के संसदीय क्षेत्र में उनके प्रति तगडा असन्तोष पनपने लगा था। कांग्रेस के उनके सिपहसालार उनसे दूर होने लगे थे। कांतिलाल ने जल्दी ही अंदाजा लगा लिया कि यदि वे कांग्रेस के प्रदेश के नेता बनने के चक्कर में पडे रहेंगे तो कोई बडी बात नहीं कि वे अपने ही क्षेत्र के लिए पराये हो जाएंगे। और यदि एक बार संसदीय क्षेत्र हाथ से निकल गया तो कांग्रेस का प्रदेश स्तर का नेता बना रहना भी असंभव हो जाएगा।
इस तथ्य का अनुमान लगाते ही,उन्होने कांग्रेस हाइकमान से गुहार लगाई कि उन्हे प्रदेश अध्यक्ष की जिम्मेदारी से मुक्त कर दिया जाए। प्रदेश अध्यक्ष का पद छोडकर वे सीधे अपने क्षेत्र में आ धमके। उनका लक्ष्य बेहद स्पष्ट था। संसदीय क्षेत्र में खिसकते जा रहे जनाधार को थामना और अपनी सीट को फिर से हासिल करना।
स्पष्ट लक्ष्य लेकर आए,कांतिलाल ने एक दांव और खेला था। अपने पुत्र डॉ.विक्रान्त को अपनी राजनीतिक विरासत सौंपने का। लेकिन देशभर में चल रही कांग्रेस विरोधी हवा के चलते हाइकमान ने लोकसभा चुनाव में नए प्रयोग करने की बजाय स्थापित नेताओं को ही उतारने का फैसला लिया और कांतिलाल को चुनावी मैदान में उतरना पडा। अब स्थिति यह है कि कांतिलाल आधे अधूरे मन से चुनावी मैदान में उतर पडे हैं। रतलाम से लेकर झाबुआ जिले तक हर कहीं असन्तोष की आग धधक रही है। कांग्रेस में जबर्दस्त बिखराव है। बहुसंख्यक कांग्रेसजन कांतिलाल को हराने की जुगत में जुटे में है।
रतलाम जिले में कांग्रेस का परिदृश्य बिलकुल विचित्र है। वर्तमान में कांग्रेस की कमान उन नेताओं के हाथ में है जिन्हे कांग्रेस कार्यकर्ता नकली और आयातित कांग्रेसियों के रुप में देखते है। शहर कांग्रेस अध्यक्ष विनोद मिश्रा मामा महापौर चुनाव में कांग्रेस प्रत्याशी के खिलाफ निर्दलीय लडे थे। सांसद प्रतिनिधि अनिल झालानी बहुजन समाज पार्टी के टिकट पर विधानसभा चुनाव लडने के बाद कांग्रेस में भर्ती हुए है। इसी तरह कांतिलाल के एक और खास सिपहसालार डॉ.राजेश शर्मा कहने को तो कांग्रेस के प्रदेश सचिव है,लेकिन वे भी किसी समय भाजपा का समर्थन करते रहे है। आज वे फिर से कांतिलाल के चुनाव अभियान में जुटे है। रतलाम ग्रामीण क्षेत्र में तो लगभग तमाम कांग्रेस नेता उनके खिलाफ ही नजर आ रहे है। सैलाना विधानसभा क्षेत्र में भी कांग्रेस की सिर फुटौव्वल चरम पर है।
लोकसभा क्षेत्र की सभी आठों विधानसभा सीटों पर भाजपा का कब्जा है और पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस भाजपा की तुलना में ढाई लाख वोट से पीछे रही है। विधानसभा चुनाव में प्रदेश में शिवराज लहर चल रही थी,तो इस बार देशभर में नरेन्द्र मोदी की लहर या आंधी चल रहा है। कांतिलाल भूरिया को न सिर्फ ढाई लाख वोटों की खाई को पाटना है बल्कि बिखरी हुई कांग्रेस को एकजुट कर नाराज कांग्रेसियों को भी मनाना है। ये चुनौती कांतिलाल भूरिया के लिए बेहद कडी चुनौती है। इससे पार पाए बगैर वे चुनावी जंग में जीत हासिल नहीं कर पाएंगे। ये देखना रोचक होगा कि बुरी तरह उलझी हुई परिस्थितियों में किस भूरिया का पलडा भारी रहता है और आखिरकार मतदाता किस भूरिया को अपना प्रतिनिधि बनाते है?