December 24, 2024

अपने अन्त के निकट आ पंहुची है कांग्रेस

congress

-तुषार कोठारी

कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक के बाद अब लगने लगा है कि कांग्रेस समाप्त होने के निकट पंहुचती जा रही है। हांलाकि ये स्थिति भारतीय लोकतंत्र के लिए बहुत अच्छी नहीं होगी,लेकिन राजनीतिक परिदृश्य के जो संकेत मिल रहे है,वे साफ दिखा रहे है कि आने वाला समय सचमुच कांग्रेस मुक्त भारत का समय होगा।
कांग्रेस से सम्बन्धित कुछ रोचक तथ्य देखिए। कांग्रेस की स्थापना के समय भी मनमोहन मौजूद थे और समाप्ति के समय भी मनमोहन मौजूद है। हर कोई जानता है कि एक सौ उन्तीस वर्ष पूर्व 1885 में सर ए ओ ह्यूम ने कांग्रेस की स्थापना की थी। लेकिन ये तथ्य बहुत कम लोग जानते होंगे कि संस्थापक सदस्यों में से एक मनमोहन घोष भी थे। दूसरा रोचक संयोग। कांग्रेस की स्थापना विदेशी व्यक्ति ने की थी,उसके अन्त की इबारत भी विदेशी महिला श्रीमती सोनिया गांधी की अध्यक्षता में लिखी जा रही है।
इन संयोगों को परे रखकर तथ्यों को देखिए। अपनी स्थापना के बाद से 1947 तक कांग्रेस,भारत की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने वाली संस्था थी। आजादी के बाद निर्विवाद रुप से सत्ता कांग्रेस के हाथों में आई। शुरुआती दौर में कांग्रेस वंशवाद से दूर थी। कांग्रेस के संगठन में नेतृत्व पनपता और संवरता था। जवाहरलाल नेहरु के बाद लालबहादुर शाी नए नेतृत्व के उभरने का ही उदाहरण था। लेकिन जैसे ही सत्ता की चाबी श्रीमती इन्दिरा गांधी के हाथों में आई,कांग्रेस में वंशवाद की जडे गहरी होने लगी। कांग्रेस की नेता श्रीमती इन्दिरा गांधी ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को कांग्रेस आई बना दिया। कांग्रेस के नेता और कार्यकर्ताओं ने भी दिल की गहराईयों से यह स्वीकार कर लिया कि कांग्रेस की जीत की एकमात्र गारंटी गांधी परिवार ही है।
कांग्रेस के नेताओं और कार्यकर्ताओं की मानसिकता में आए इस बदलाव का ही नतीजा था कि 1984 में श्रीमती इन्दिरा गांधी की हत्या के बाद से आज तक आम कांग्रेसी सोच यही है कि यदि इन्दिरा गांधी परिवार की छत्रछाया कांग्रेस पर नहीं होगी तो कांग्रेस जीवित नहीं रह सकती। यही कारण है कि अपने पूरे इतिहास की सबसे बडी शर्मनाक हार के बावजूद कांग्रेस कार्यसमिति में गांधी परिवार के नेतृत्व के खिलाफ एक भी शब्द नहीं बोला गया।
लेकिन यदि पूरे घटनाक्रम को व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखा जाए और निष्पक्षता से विश्लेषण किया जाए तो यह तथ्य साफ होता है कि भारतीय जनमानस में गांधी नाम के प्रति आकर्षण लगातार कम होता जा रहा है। श्रीमती इन्दिरा गांधी की हत्या के बाद सहानुभूति लहर के कारण राजीव गांधी देश के प्रधानमंत्री चुने गए,लेकिन दूसरी पारी में गांधी नाम का सहारा उनके किसी काम ना आया। दूसरी पारी में कांग्रेस को पराजय का सामना करना पडा और विपक्ष में बैठना पडा। 1991 के चुनाव में भी राजीव गांधी के होते हुए कांग्रेस की हालत बेहद पतली थी,लेकिन चुनाव अभियान के दौरान ही राजीव की हत्या कर दी गई। सहानुभूति लहर फिर चली,लेकिन ये वैसी नहीं थी,जैसी श्रीमती इन्दिरा की हत्या के बाद चली थी। कांग्रेस ने नरसिम्हाराव के नेतृत्व में अल्पमत सरकार बनाई। नरसिम्हाराव के कार्यकाल के दौरान कांग्रेस पर से गांधी परिवार की छाया दूर रही,लेकिन कांग्रेस लगातार कमजोर होती गई। तभी कांग्रेसियों को लगा कि गांधी परिवार की छत्रछाया से दूर होने की वजह से ही कांग्रेस कमजोर हो रही है। परिणामत: राजनीति से पूरी तरह अनजान श्रीमती सोनिया गांधी को कांग्रेस की कमान सौंप दी गई।
वर्ष 2003 में अटल जी की दूसरी पारी में जब इण्डिया शाइनिंग के नारे हवा में गूंज रहे थे,हर कोई सोच रहा था कि अटल सरकार फिर जीतेगी। लेकिन नतीजे ठीक उलटे रहे। एनडीए हार गई और कांग्रेस की अगुवाई में यूपीए जीत गई। इस जीत का श्रेय कांग्रेसियों ने पूरी तरह से श्रीमती सोनिया गांधी को दिया। लेकिन यदि नतीजों का निष्पक्ष विश्लेषण किया गया होता,तो कांग्रेस की इस जीत का श्रेय अटल जी को मिला होता। संसद पर हुए आंतकी हमले के बाद अटल सरकार ने जो ढीलपोल दिखाई थी,उसकी वजह से राष्ट्रवादी संस्थाओं से जुडे लाखों कार्यकर्ता अटल जी से बेहद खफा थे। इसी नाराजगी का नतीजा था कि भाजपा की स्थिति खराब हो गई और इसका फायदा कांग्रेस को मिल गया। लेकिन सफलता का श्रेय श्रीमती सोनिया गांधी को दिया गया। यूपीए सरकार की दूसरी जीत में भी गांधी परिवार के जादू का उतना योगदान नहीं था,जितना भाजपा की कमजोरी का। लेकिन कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने तो अपने मन में यह बात गांठ बान्ध रखी थी कि कांग्रेस की जीत का एकमात्र कारण गांधी परिवार की छत्रछाया है। वे इसके विश्लेषण में कतई नहीं जाना चाहते कि श्रीमती इन्दिरा गांधी के बाद कांग्रेस लगातार कमजोर होती जा रही है। गांधी नाम का जादू धीरे धीरे खत्म होता जा रहा है।
अनेक विधानसभा चुनावों में राहूल गांधी की लगातार असफलताओं के बावजूद कांग्रेस नेताओं की सोच में कोई बदलाव नहीं आया। कांग्रेस नेताओं ने कभी इस बात पर विचार नहीं किया कि जब 1947 से पहले कांग्रेस किसी एक परिवार के बगैर चला करती थी तो अब ऐसा क्यो नहीं हो सकता। लेकिन कांग्रेस में नया नेतृत्व उभरने की प्रक्रिया ही समाप्त हो चुकी है। कांग्रेस में सक्रीय कोई नेता चाहे जितना योग्य हो,सर्वोच्च पद पर वह नहीं पंहुच सकता,क्योकि सर्वोच्च पद एक परिवार के लिए आरक्षित है।
लेकिन देश के कई राज्यों में अस्तित्व खो चुकी कांग्रेस के अनेक मजबूत नेताओं और कार्यकर्ताओं को कभी न कभी ये बात ध्यान में आएगी कि अब गांधी नाम या परिवार जीत का जादू चला पाने में सक्षम नहीं रहा है। फिलहाल तो कांग्रेसजन प्रियंका से उम्मीदें लगा रहे है,लेकिन प्रियंका अब गांधी नहीं वाड्रा हो चुकी है। यह भी कि गांधी नाम का जादू ही खत्म हो चुका है। हो सकता है कि कांग्रेसजन एकाध बार प्रियंका पर दांव लगाए। लेकिन आखिरकार ये तथ्य फिर भी सामने आएगा कि एक ही नाम या एक परिवार जीत की गारंटी नहीं हो सकता। इसके लिए जरुरी है कि नेतृत्व के उभरने और संवरने की प्रक्रिया जारी रहे।
बहरहाल,पांच सालों तक कांग्रेस को सत्ता से दूर रहना है। इसके बाद भी कांग्रेस नया नेतृ्त्व चुनने की बजाय अगर परिवार के ही भरोसे रही तो निश्चित ही उसकी वापसी असंभव होगी। ऐसे में भारतीय लोकतंत्र द्विदलीय व्यवस्था की आदर्श स्थिति से लम्बे समय तक दूर रहेगा।

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