फांसी और फांसी में अन्तर
-तुषार कोठारी
इस मौके पर याद कीजिए करीब तीन साल पहले 21 नवंबर 2013 की घटना। देश में यूपीए की तथाकथित बहादुर सरकार थी। जेल में फांसी की सजा पा चुका पाकिस्तानी आतंकी अजमल कसाब बन्द था। अचानक सुबह सवेरे एक चैनल और थोडी ही देर में तमाम चैनलों ने कसाब को फांसी देने की खबर चलाना शुरु कर दी। सरकार ने गुपचुप तरीके से कसाब को फांसी दी और फिर धीरे से यह खबर टीवी चैनलों को लीक कर दी गई। जल्दी ही टीवी चैनलों पर देश के विद्वतजन और विशेषज्ञ आतंकवाद,फांसी जैसे मुद्दों पर बहस मुबाहसे करते नजर आने लगे। तमाम चैनलों पर देश की बहादुरी के कसीदे पढे जाने लगे। यह भी याद कीजिए कि 166 निर्दोष भारतीयों की जान लेने वाले इस नरपिशाच की फांसी देने के बाद देश के तत्कालीन कर्णधारों के मन में यह डर भी था कि कोई गडबड ना हो जाए,इसलिए देश भर में अलर्ट जारी किया गया था। मौका यह भी था कि कुछ समय बाद आम चुनाव होना थे,और सरकार इस बहाने अपनी मजबूती दिखा कर भारत के आम मतदाता को रिझाना भी चाहती थी।
उस समय इस लेखक समेत बहुत कम लोग ऐसे थे,जिन्होने इस बात पर आपत्ति दर्ज कराई थी कि कसाब जैसे नरपिशाच को गुपचुप ढंग से फांसी देने का क्या औचित्य था? क्या सवा सौ करोड का यह देश डंके की चोट पर खुले तौर पर ऐसे नरपिशाच को फांसी नहीं दे सकता था? सरकार को किस बात का डर था? अपने वोट बैंक में सेंध लग जाने का डर था या फिर अपने ही देश के एक बडे समुदाय की देशभक्ति पर संशय था? कुछ ना कुछ तो जरुर था। यही कहानी फिर से अफजल गुरु के वक्त दोहराई गई। तब भी गुपचुप ढंग से फांसी देने के बाद देश को बताया गया कि अफजल को फांसी दे दी गई है।
और अब देखिए तीन सालों में कितना कुछ बदल गया है। उच्चतम न्यायालय से एक और नरपिशाच याकूब की फांसी की सजा निश्चित होती है और महाराष्ट्र का युवा मुख्यमंत्री बेहिचक घोषणा करता है कि इस आतंकी को उसके जन्मदिन के दिन ही फांसी दे दी जाएगी। कोई डर नहीं,कोई हिचक नहीं। न तो राज्य सरकार को और ना ही केन्द्र सरकार को इस बारे में कोई संशय होता है कि इस फांसी से शांति भंग हो सकती है। दोनो सरकारों में मौजूद नेताओं को अपने देश के प्रत्येक समुदाय पर पूरा भरोसा है कि एक नरपिशाच को फांसी देने पर देश का प्रत्येक नागरिक संतोष या खुशी महसूस करेगा।
और उपरवाला भी इस पूरे घटनाक्रम में अपनी हैरतभरी उपस्थिति दर्ज करा देता है। उपरवाला ऐन इसी मौके पर देश के सबसे लोकप्रिय राष्ट्रपति रहे महात्मा एपीजे अब्दुल कलाम को अपने पास बुला लेता है। योग ऐसे बनते है कि सुबह तो नागपुर में एक नरपिशाच का न्याय किया जाता है और दोपहर को देश के दिशादर्शक को अंतिम बिदाई दी जाती है। पूरे देश के सामने दो उदाहरण मौजूद होते है। एक ऐसे महात्मा का,जिसके जाने पर हर आंख नम होती है। उस महात्मा को अंतिम बिदाई देने के लिए देश के आखरी छोर पर जैसे पूरा देश उमड पडता है। दूसरा उदाहरण ऐसे नरपिशाच का,जिसके जाने पर देशवासी राहत की सांस लेते है।
बहरहाल,देश में पिछले तीन सालों में फांसी के ये तीन मामले हुए हैं। दो तो पहले वाली यूपीए सरकार के जमाने में हो गई थी। तीसरी 56 इंच के सीने वाले नरेन्द्र मोदी के जमाने में हुई है। फांसी और फांसी का फर्क सामने है। इस फांसी में जो सबसे अच्छी बात हुई,वह यह थी कि बुध्दिजीविता की आड में देशद्रोह को पालने पोसने वालो के चेहरे भी बेनकाब हुए। जिन्हे ढाई सौ निर्दोष लोगों की जान लेने वाले नरपिशाच की मौत पर दुख हो रहा था और जो इसका खुलेआम प्रदर्शन कर रहे थे,देशवासी उन्हे बडी आसानी से देख पा रहे है। आम नागरिक के पास अपनी नाराजगी जताने का कोई जरिया नहीं होता। जब मीडीया अथवा बुध्दिजीवियों का कोई वर्ग जनमत के विरुध्द राग अलापता है,तो आम आदमी वैसे तो जवाब नहीं दे पाता,लेकिन जब आम आदमी को मौका मिलता है,वह अपनी नाराजगी को न सिर्फ प्रदर्शित करता है,बल्कि जनमत का अपमान करने वालो को बेहिचक सबक भी सिखाता है। जनमत का अपमान यदि किसी राजनैतिक दल ने किया हो तो आम आदमी चुनाव में उस दल को सबक सिखाता है। हाल के लोकसभा चुनाव इसका बेहतरीन उदाहरण है। ये अलग बात है कि कांग्रेस अब भी सबक सीखने को तैयार नहीं और अभी भी जनमत को पसन्द ना आने वाली बातें ही किए जा रही है। इसी तरह जनमत का अपमान यदि कोई टीवी चैनल करता है,तो आम आदमी उसका बहिष्कार करने लगता है और टीआरपी के जरिये सबक सिखाता है। यही स्थिति बुध्दिजीवियों की है। आम आदमी तथाकथित बुध्दिजीवियों को भी अपने ही अंदाज में सबक सिखाता है।
टीवी चैनलों पर जब जब याकूब की फांसी के बहाने फांसी के औचित्य पर बहसें आयोजित की गई और जब जब इन बहसों में फांसी की खिलाफत की गई,यकीन जानिए इन बहसों को देखने वाले दर्शकों में से बहुसंख्यक व्यक्तियों ने उक्त टीवी चैनल और तथाकथित बुध्दिजीवी के बारे में अपशब्द ही कहे। मीडीया और राजनेताओं के एक वर्ग की दिक्कत यह है कि वे आम जनता से पूरी तरह कट चुके है और उन्हे लगता है कि वे जो कुछ परोस देंगे उसे दर्शक आंख मूंद कर मान लेंगे और यहां तक कि अपनी राय भी बदल लेंगे। हो सकता है कुछ सामान्य मसलों पर ऐसा हो भी जाए,लेकिन जब मसला देशद्रोही को सजा देने जैसा संवेदनशील हो,तब ऐसा नहीं होता। एक पंचर जोडने वाले से लगाकर हाथठेला खींचने वाले मजदूर और सब्जी का ठेला चलाने वाले व्यक्ति तक से पूछिए,देशद्रोही को मिलने वाली सजा से हर कोई खुश नजर आता है। वहां देशद्रोही का धर्म कोई मुद्दा हीं नहीं होता। इतना ही नहीं,जब कोई नेता ऐसे मुद्दों पर धर्म को बीच में लाने की कोशिश करते है,देश का आम आदमी उन्हे भी नहीं बख्शता। यही तथ्य यदि दिग्विजयसिंह समझ गए होते,तो मध्यप्रदेश से यूं बेइज्जत करके निकाले नहीं गए होते। देश के इस मेहनतकश नागरिक का हिसाब बहुत सीधा साधा है। जिसने देशद्रोह किया और निर्दोषों को मारा,उसे भरे चौराहे पर फांसी पर लटका दिया जाना चाहिए। थोडी देर के लिए यह बात कांग्रेस के भी ध्यान में आई थी,इसीलिए चुनाव के पहले गुपचुप ढंग से ही सही, कसाब और अफजल गुरु को फांसी दे दी गई थी। लेकिन फिर जल्दी ही कांग्रेसी नेताओं पर वही पुरानी वोटबैंक की बीमारी हावी हो गई,जिसका खामियाजा उन्हे आज तक भुगतना पड रहा है।
पिछले लोकसभा चुनाव के नतीजों ने जनमत की दिशा साफ तौर पर दिखा दी है। इसके बावजूद भी यदि कुछ टीवी चैनल ,मीडीया और कुछ नेता,बुध्दिजीविता की आड में देशद्रोहियों की वकालत करने के अपने रवैये पर बरकरार रहते है तो तय मानिए,इस देश का आम आदमी बेहद समझदार है। उसे कलाम और कसाब का फर्क बडे अच्छे से समझ में आता है। और यह ताकत भी आम आदमी में ही है कि वह कसाब के कारिन्दों पर कहर ढा सकता है।