हिन्दी राष्ट्रभाषा क्यो नहीं बन पाई?
(हिन्दी दिवस 14 सितम्बर पर विशेष)
-डॉ.डी एन पचौरी
आज 14 सितम्बर हिन्दी दिवस है। कल से फिर हफ्ते दर हफ्ते,महीना,दिन और एक वर्ष बाद पुन: हिन्दी दिवस 2014 आ जाएगा। फिर वही भाषण बाजी,वही सम्मेलन,हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाओ के नारे,पर नतीजा वही ढाक के तीन पात। जो काम पिछले 66 वर्ष में नहीं हुआ,वो क्या अगले वर्ष तक हो जाएगा? जिस भाषा को विश्व के 80 करोड से अधिक लोग बोलते और समझते है,जो दूसरे नम्बर की विश्वस्तरीय भाषा है तथा विश्व के 150 से अधिक विश्व विद्यालयों में पढाई जाती है,वही अपने देश में राष्ट्रभाषा का सम्मान नहीं पा रही है। विडम्बना तो यह है कि दूसरे देश हमारे भारत देश को अंग्रेजी भाषी लोकतांत्रिक देश कहते है। विदेशों में यह बात प्रचलित है कि हिन्दूस्तान जाने के लिए हिन्दी का ज्ञान आवश्यक नहीं है। यहां का सब काम अंग्रेजी में होता है।
विभिन्न भाषा भाषी भारत
भारत में 42 प्रतिशत लोग हिन्दी तथा 24 प्रतिशत दक्षिणभाषी है,जिनमें तमिल 7 प्रतिशत तेलुगू 9.3 प्रतिशत,कन्नड 4 प्रतिशत तथा मलयालम बाषी 3.7 प्रतिशत है। शेष 34 प्रतिशत में 1.39 प्रतिशत आसामी,7.03 प्रतिशत बंगाली,4.5 प्रतिशत गुजराती,7.5 प्रतिशत मराठी,3.68 प्रतिशत उडिया तथा एक प्रतिशत पंजाबी और संस्कृत,उर्दू,कश्मीरी,सिन्धी आदि मिलाकर 8 प्रतिशत तथा शेष 1 प्रतिशत में अन्य भाषाएं बोली जाती है। किन्तु यह कोई कारण नहीं है कि हिन्दी राष्ट्रभाषा नहीं बन सकती। रुस का उदाहरण लें तो वहां अविभाजित यू.एस.एस.आर. में लगभग सौ भाषाएं बोली जाती थी किन्तु फिर भी रशियन भाषा सबके उपर इनकी राष्ट्रभाषा थी। उनके राजनैतिक,शैक्षिक,प्रशासनिक कार्य रशियन भाषा में ही होते थे। फिर स्वतंत्रता के 66 वर्ष बाद भी हिन्दी पूरे राष्ट्र की भाषा नहीं बन पाई है तो ये सरकार की ढुलमुल नीति,दृढ इच्छाशक्ति और संकल्प शक्ति की कमी है। एक उदाहरण देखिए-
जब टर्की अंग्रेजों की दासता से मुक्त हुआ तो वहां का शासक कमाल पाशा बना। उसने अपने विशेषज्ञों से राय ली कि कितने समय में हमारे कार्यालयों में अंग्रेजी के स्थान पर टर्की भाषा में कार्य होने लगेगा? विशेषज्ञों की राय थी कि कम से कम दस वर्ष लगेंगे। कमाल पाशा ने कहा कि आज की रात दस वर्ष लम्बी है,कल प्रात:काल से हमारी भाषा में ही कार्य होने चाहिए अन्यथा कठोर दण्ड दिया जाएगा। कहा जाता है कि साल दो साल कठिनाईयां आई,फिर सबकुठ सामान्य हो गया। ये है दृढ इच्छाशक्ति का उदाहरण। अब भारत की दशा देखिए-
२६ जनवरी १९५० को भारत का संविधान लागू हुआ तो उसके आर्टिकल ३४३(१) में प्रावधान रखा गया कि १५ वर्ष पश्चात अर्थात २६ जनवरी १९६५ से देवनागरी लिपि वाली हिन्दी केन्द्रीय कार्यालयों की भाषा होगी। साथ ही आर्टिकल ३४४(१) में प्रावधान रखा गया कि संविधान लागू होने के पांच वर्ष बाद राष्ट्रपति महोदय एक कमीशन बैठायेंगे जो हिन्दी की प्रगति और अंग्रेजी को हटाने में व्यावहारिक कठिनाईयों पर रिपोर्ट देगा। जिससे कि २६ जनवरी १९६५ से अंग्रेजी को पूर्णतया अंग्रेजी हटाई जा सके।
७ जून १९५५ को कमीशन बिठाया गया,जिसने दो वर्ष बाद १९५७ में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की,कि अंग्रेजी का अधिक समय तक उपयोग हिन्दी के राष्ट्रभाषा बनने में कठिनाईयां उत्पन्न करेगा। इस पर दक्षिण भाषी लोगों ने बहुत हो हल्ला मचाया। पंडित नेहरु की पूर्ण शिक्षा अंग्रेजी में हुई थी,उन्हे हिन्दू,हिन्दुत्व और हिन्दी से कोई लेना देना नहीं था। अत: उन्होने १९६३ में लोकसभा में राज्यभाषा अधिनियम पास करवा दिया। जिसके नियम ३(१) में लिखा है कि २६ जनवरी १९६४ से अंग्रेजी शासकीय प्रयोजनों के लिए काम में लाई जाती रहेगी। इतना ही नहीं राजभाषा अधिनियम १९६३ की धारा ३ के अनुभाग (३) अर्थात ३(३) के अनुसार द्वि भाषा का प्रयोग अर्थात हिन्दी के साथ अंग्रेजी भी जारी रहेगी। इसमें समय की कोई सीमा निर्धारित नहीं की गई थी। अत: संविधान लागू होने के ६३ वर्ष तथा राज्यभाषा अधिनियम लागू होने के ५० वर्ष बाद भी हिन्दू केन्द्र की कार्यालयीन भाषा और राष्ट्रभाषा का दर्जा प्राप्त नहीं कर सकी है।
गत वर्ष केन्द्र से प्राप्त रिपोर्ट के अनुसार,केन्द्रीय मंत्रालयों में लगभग ५००० कागज अंग्रेजी में जारी किए गए और लगभग २००० हिन्दी के कागजातों का जवाब भी अंग्रेजी में दिया गया।
प्राथमिक कक्षाओं से लेकर हायर सेकेण्डरी कक्षाओं तक की शिक्षा कोई भी राज्य अपनी मातृभाषा में दे सकता है किन्तु विश्वविद्यालयीन शिक्षा में अलग अलग प्रान्तों के छात्र आते है,अत: राज्य अपनी प्रान्तीय भाषा प्रयोग में नहीं ला सकता।
हिन्दी को पूरे राष्ट्र की भाषा बनाने के लिए त्रिभाषा फार्मूला भी लागू किया गया,जिसमें कोई भी राज्य हिन्दी,अंग्रेजी और अपने प्रान्त की भाषा में छात्रों को शिक्षित करे। किन्तु सभी राज्यों ने इसे गंभीरता से लागू नहीं किया और केन्द्र ने भी कोई रुचि नहीं दिखाई। अत: त्रिभाषा फार्मूला भी फेल हो गया।
अब जब तक राजभाषा अधिनियम की धारा ३ के अनुभाग(३) में संशोधन नहीं होता,अंग्रेजी का प्रयोग यथावत जारी रहेगा और हम हिन्दी दिवस मनाकर अपने कत्र्तव्य की ईति श्री करते रहेंगे। हिन्दी राष्ट्रभाषा तथा केन्द्र की कार्यालयीन भाषा नहीं बन पाएगी। लगभग १५ दिन पूर्व का समाचार है कि सुप्रीम कोर्ट ने कठोरता से हिन्दी का प्रयोग वर्जित कर दिया है और अंग्रेजी छोडने के पक्ष में नहीं है। जबकि अच्छे अनुवादक रखकर अहिन्दी भाषी प्रान्तों की हाईकोर्ट के फैसलों का हिन्दी अनुवाद सुप्रीम कोर्ट में पंहुचाया जा सकता है।