सियासी बवासीर की ऐसी तकलीफ
प्रकाश भटनागर
सार्वजनिक स्थल पर तीन सदस्यीय परिवार का मुखिया किसी पहलवान से उलझ गया। पहलवान ने उसे एक तमाचा रसीद कर दिया। मुखिया बोला, ‘मुझे मारा, ठीक है, लेकिन मेरी बीवी को हाथ लगाया तो जान ले लूंगा।’ पहलवान ने बीवी को भी तमाचा जड़ दिया। आदमी ने कहा,‘मेरे बेटे को गलती से भी मत छू लेना, वरना तेरी शामत आ जाएगी।पहलवान ने बेटे को भी जोरदार तमाचे का स्वाद चखाया। मुखिया चुपचाप वहां से चलता बना। एक तमाशबीन ने उससे पूछा, ‘जब अगले का कुछ बिगाड़ ही नहीं सकते थे तो बीवी और बच्चे को भी क्यों पिटवा दिया?’ मुखिया का उत्तर था, ‘अकेला पिटता तो ये दोनो सारी जिंदगी मेरा मजाक उड़ाते। इसलिए मैंने इनकी भी पिटाई लगवा दी।’
मध्यप्रदेश की सरजमीं पर इस समय भाजपा के मुखिया शिवराज सिंह चौहान ही दिखते हैं। खुद उन्हें पहला तमाचा तब पड़ा, जब अपेक्षाकृत मजबूत हुई कांग्रेस ने उनकी सरकार को पटखनी दे दी। दूसरा तमाचा विधानसभा अध्यक्ष के चुनाव में विजय शाह की पराजय के रूप में भाजपा के गाल पर पड़ा। पार्टी को तीसरा और सर्वाधिक ताजातरीन पड़ा झापड़ उपाध्यक्ष के तौर पर हिना कांवरे की जीत तथा भाजपाई जगदीश देवड़ा की हार के तौर पर अभी तक फिजा में गूंज रहा है।
बिना किसी तफ्तीश के कहा जा सकता है कि शेष दो झापड़ का इंतजाम मुखिया यानी शिवराज ने ही किया था। अध्यक्ष पद के मतदान के समय उन्होंने ही विधानसभा से भाजपा के बहिष्कार की घोषणा की थी। इस पद पर हार के बावजूद उपाध्यक्ष का चुनाव कराने की सोच भी उनके दिमाग की ही उपज थी। तो क्या यह भी ‘’अकेले पिटता तो…’ वाली दलील से जुड़ा मामला ही है?
समझ से परे है कि क्यों कर पूरी तरह तयशुदा हार के बावजूद भाजपा ने बचकाने जतन कर अपनी भद पिटवाने का बंदोबस्त किया। क्यों नहीं यह दल इस सच को पचा पा रहा है कि राज्य की जनता ने उसे विपक्ष में बैठने का आदेश दिया है। यह सच है कि लगातार पंद्रह साल तक सत्ता के मखमल पर बैठने के बाद विपक्ष की खुरदुरी बैंच पर बैठना ‘सियासी बवासीर’ जैसी नारकीय तकलीफ दे रहा होगा, लेकिन हकीकत तो स्वीकारना ही होगी। अपनी जगहसाई का प्रबंध करते-करते भाजपा ने इस प्रदेश की परम्पराओं को भी तार-तार कर दिया। अब आगे यह होगा कि हर एक मसले पर सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच दुश्मनी के अंदाज में व्यवहार देखने मिलेंगे। भाजपा को चाहिए था कि चुनाव परिणाम के बाद वह सरकार के खिलाफ तथ्यपरक जंग की रणनीति बनाती।
सदन में उसे सही मामलों पर पूरी ताकत से घेरती। 109 विधायकों की ताकत बहुत कुछ कर सकती है। लेकिन पार्टी ने ऐसा नहीं किया। जबकि इस पद्धति से यदि वह आचरण करती तो बहुत संभव है कि लोकसभा चुनाव आने तक वह प्रदेश में अपने लिए अनुकूल माहौल बना चुकी होती। इस विशालकाय विपक्ष को जो ताकत सड़क पर दिखाना चाहिए थी, उसने उसे सदन में भौंडे तरीके से दिखाकर खुद की मिट्टीपलीद कर दी।
अंत में एक बात याद आ रही है। प्रदेश में जिस दिन दिग्विजय सिंह सरकार ने लगातार दूसरी बार बहुमत पाया, तब मेरा प्रदेश भाजपा मुख्यालय में जाना हुआ था। पार्टी के एक वाचाल और मीडिया फ्रेंडली नेता से मैंने नतीजे पर उनकी प्रतिक्रिया पूछी। जवाब में उन्होंने कैल्क्यूलेटर उठाया। उस पर 365 से पांच का गुणा किया। फिर कैल्क्यूलेटर की स्क्रीन पर आये 1825 के अंक को दिखाकर मुझसे बोले, ‘प्रदेश की जनता को इतने और दिन का कुशासन मुबारक हो।’ तब मेरी हंसी छूट गयी थी। नेताजी को मेरे इस व्यवहार का काफी बुरा भी लगा। आज समूची भाजपा कैल्क्यूलेटर हाथ में लिए बगैर ही ऐसा मूर्खतापूर्ण आचरण कर रही है। जिस पर हंसी आती है और तरस भी।