नदियों के अस्तित्व पर मंडरा रहा संकट-मेघा पाटकर
नर्मदा बचाओ आंदोलन की प्रणेता और विश्वविख्यात सामाजिक कार्यकर्ता मेघा पाटकर रतलाम प्रवास पर
रतलाम 26 फरवरी(इ खबरटुडे)। अपनी घाटियों में घने वन, जीव, जंगल समेटे, कलकल बहने वाली मध्यप्रदेश की जीवनरेखा और देश की पांचवी सबसे बड़ी नदी नर्मदा संभवत: आज से पांच सालों बाद अस्तित्व ही खो दे तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। देश की तमाम नदियों और विशेषकर नर्मदा घाटी किनारे एक-एक गांव से 1500 टन तक एक बार में रेत का अवैध खनन हो रहा है। राजनैतिक दबाव, प्रशासनिक अर्कमण्यता के कारण भारत में नदियां इस हद तक प्रदूषित हो चुकी हैं कि आने वाले कुछ सालों में यही हाल रहे तो नदियां बचेंगी ही नहीं।यह बात नर्मदा बचाओ आंदोलन की प्रणेता और विश्वविख्यात सामाजिक कार्यकर्ता मेघा पाटकर ने रतलाम प्रवास के दौरान पत्रकारों से चर्चा करते हुए कही। मेघा ने बताया कि नर्मदा घाटी किनारे चल रही सेवा यात्रा केवल वहां से विस्थापित किए जा रहे आदिवासियों और प्राकृतिक दोहन से लोंगो का ध्यान हटाने का साधन है। उन्होंने कहा कि नर्मदा घाटी के किनारे उद्योगपतियों को लाभ पहुंचाने के लिए 35 थर्मल पॉवर प्रोजेक्ट और एक न्युक्लीयर पॉवर प्रोजेक्ट संस्थापित किया जा रहा है, जबकि इसमें से उत्पन्न होने वाली बिजली गांव या शहरों को मिलेगी ही नहीं। उन्होंने कहा कि नर्मदा किनारे सदियों से पैदल यात्रा आदिवासी और भक्त करते ही आ रहे हैं, अब सरकार पर्यटन प्रोजेक्ट की मुफ्त में ब्रांडिग करने के लिए इसपर करोड़ों रुपए खर्च कर रही हैं।
रतलाम को कितने समय तक मिलेगा पानी?
नर्मदा-शिप्रा लिंक परियोजना के बारे में बताते हुए मेघा ने कहा कि हाल ही में भाजपा के ही एक नेता ने बताया है कि परियोजना फेल हो गई है। इस प्रोजेक्ट के पीछे राज्य सरकार की मंशा केवल इतनी थी कि नर्मदा-शिप्रा का पानी डीएमआईसी के तहत रतलाम, मंदसौर, नीमच बेल्ट में स्थापित हो रहे उद्योगिक क्षेत्र को दिया जाना था। उन्होंने सवाल किया जिस रफ्तार से नदियां विलोपित होने की कगार पर पहुंच रही है और जलसंरक्षण का कोई आधार नहीं उसमें कितना पानी और कितने दिन तक सच में रतलाम पंहुच पाएगा।
स्थानीय लोगों को साथ लेकर ही विकास और प्राकृति की रक्षा संभव
मेघा ने बताया कि नदियों का प्रदूषण मिटाने के लिए अरबों रुपयों की योजनाएं बन रही हैं, लेकिन इन्हें प्रदूषित होने से रोकने के बजाय उद्योगपतियों के दबाव में बढ़ावा दिया जा रहा है। आदिवासियों और प्राकृतिक संसाधनों को तोड़कर हटाकर बांध बनाकर इनके किनारे ईकाइयां स्थापित करना विकास नहीं बल्कि हानिकारक है। मेघा पाटकर ने कहा कि नर्मदा घाटी के विस्थापितो को 60 लाख लेकर 31 जूलाई तक जगह खाली करने को कहा गया है। जिनको पैसा दिया जा रहा है उनकी संख्या बेहद कम है जबकि विस्थापितो की संख्या 45 हजार से अधिक है। उन्होंने बताया कि भारत के सारे जनआंदोलनों को एक मंच पर लाने का प्रयास किया जा रहा है। उनका सशक्त होना बहुत जरूरी है। क्योंकि स्थानीय लोगों को साथ लेकर ही विकास और प्राकृति की रक्षा संभव है।
हवा पर गांव का हक
मेघा पाटकर ने रतलाम जिले में विंड एनर्जी कंपनियों द्वारा की जा रही मनमानी पर कहा कि अब समय आ गया है कि जब हवा भी उद्योगपतियों की पूजंी बनती जा रही है। किसानों की जमीन का हर टुकड़ा वे अपने लाभ के लिए छीन रहे हैं, प्रकृति को नष्ट कर रहे हैं। इसके विरोध में किसानों को बहुत मजबूती से एकता के साथ लडऩा होगा नहीं तो भविष्य में खेत, नदी, पहाड़ कुछ नहीं बचेगा। उन्होने कहा कि गांव में बहने वाली हवा पर ग्रामीणों का हक है।