December 24, 2024

देश के लिए घातक है यह मौन

– तुषार कोठारी

दिल्ली की जामा मस्जिद के कथित शाही इमाम द्वारा देश के प्रधानमंत्री की उपेक्षा करने और शत्रु देश के नेता को न्यौता भेजने के निहितार्थ जितने खतरनाक है,उससे कहीं अधिक खतरनाक इस मुद्दे पर राष्ट्रवादी मुस्लिमों का मौन है। देश में यदि कोई अल्पसंख्यक समस्या है,तो उसका हल मुख्यधारा में मौजूद राष्ट्रवादी अल्पसंख्यकों के ही पास है। उनकी मुखरता ही देश में मौजूद इक्का दुक्का अलगाववादी स्वरों को बन्द कर सकती है।
धर्म के आधार पर हुए देश के बंटवारे के जख्म भरना आसान नहीं था। लेकिन बहुसंख्यक समाज की सहिष्णुता के चलते सामाजिक सद्भाव का ताना बाना मजबूत होने लगा था। जब तक राजनीति में कांग्रेस अकेली मजबूत पार्टी थी,तब तक स्थितियां फिर भी ठीक थी। लेकिन जैसे जैसे राजनीति में अन्य पार्टियों का आना और मजबूत होना शुरु हुआ,देश के अल्पसंख्यकों को वोट बैक के रुप में उपयोग करने की भी शुरुआत हो गई। सत्ता हासिल करने की चाहत ने पहले तो अल्पसंख्यकों को वोट बैंक बनाने,वोट बैंक बनाने के लिए तुष्टिकरण और भयभीत रखने जैसे फार्मूलो का उपयोग होने लगा। बिहार और उत्तरप्रदेश जैसे प्रमुख प्रदेशों की तो पूरी राजनीति अल्पसंख्यक वोटों पर आधारित हो गई। देश के अल्पसंख्यक समुदाय को राष्ट्र की मुख्यधारा में लाने के कोई गंभीर प्रयास कभी भी नहीं किए गए। राजनीति अल्पसंख्यकों के मुख्यधारा में शामिल होने की राह में रोडे अटकाती रही।
इतना सबकुछ होने के बावजूद,ये शायद भारतीय संस्कृति की ही विशेषता है कि देश के गिने चुने अल्पसंख्यकों को छोडकर शेष सभी सामाजिक सद्भाव के ताने बाने से जुडे हुए है। दूरस्थ गांवों में सामाजिक और धार्मिक उत्सवों को दोनो समाज मिलजुलकर मनाते है। दीवाली और ईद के त्यौहार पर दोनो समुदाय के लोग एक दूसरे के गले मिलकर बधाईयां देते है। भारतीय संस्कृति की ही खासियत है कि अनेक परंपराएं दोनो ही समुदायों में एक समान है। विवाह के मौके पर मुस्लिम समुदाय में दुल्हा दुल्हन को हल्दी लगाई जाती है। एक दूसरे को सात वचन देने का रिवाज भी दोनो समुदायों में एक सा है। विश्व की मौजूदा स्थितियों को देखें तो इस्लाम की परिभाषाओं में भी अंतर है। एक इस्लाम तालिबान और आईएस का कट्टरपंथी क्रूर इस्लाम है,लेकिन दूसरा इस्लाम भारतीय इस्लाम है,जिसमें सूफी मत की उदारता भरी पडी है।
लेकिन तालिबान और आईएसआईएस की खबरों के बीच जब कथित शाही इमाम के ऐसे बयान आते है,तब गलत संकेत जारी होने लगते है। समुदायों के बीच अविश्वास का माहौल बनने लगता है। जबकि वास्तविकता यह है कि भारत के दूर दराज गांवों तक फैले करोडों मुसलमानों में से शाही इमाम को महत्व देने वाले मुसलमानों की संख्या कुछ सौ भी नहीं है। इस्लाम में ऐसा कोई निर्देश नहीं है कि आम मुसलमान शाही इमाम के किसी आदेश निर्देश को मानने के लिए बाध्य है। इमाम का मुख्य कार्य लोगों से नमाज अता करवाना होता है। उसकी भूमिका इतनी ही होती है। दिल्ली की जामा मस्जिद के इमाम की हैसियत देश की अन्य मस्जिदों के किसी इमाम से अधिक नहीं होती,लेकिन मीडीया के प्रस्तुतिकरण से ऐसी छबि बन चुकी है,जैसे शाही इमाम,पूरे देश के मुस्लिम समुदाय का धार्मिक नेता हो। यही वजह है कि चुनाव के पहले कई नेता जामा मस्जिद पंहुचकर समर्थन जुटाने की कोशिश करते रहे है।
यह भी वास्तविकता है कि देश का आम मुसलमान वतन परस्त है। कुछ गिने चुने सांप्रदायिक नेताओं और इक्के दुक्के देशद्रोहियों की हरकतों की वजह से पूरे समाज को शक की निगाह से देखा जाता है। गलती मुस्लिम समुदाय के राष्ट्रवादी लोगों की है। शाही इमाम जैसे अलगाववादी लोगों की हरकतों पर समाज के लोगों का मुखर विरोध होना जरुरी है। लेकिन अब तक समाज का देशभक्त तबका मुखर नहीं हुआ है। देशभक्त समाज का मौन ही घातक है।  इस तबके का मौन ही है,जिसकी वजह से समाज के सांप्रदायिक तत्व पूरे समाज को अपने असर में ले लेते है और पूरे समाज की छबि नकारात्मक हो जाती है।
देश में जब कभी राष्ट्रवादी मुस्लिमों को मुखर करने के प्रयास हुए है,इसके बडे सार्थक परिणाम सामने आए है। बहुत कम लोग यह जानते है कि कट्टर हिन्दूवादी संगठन कहे जाने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने विगत करीब दो दशकों से इसी परिकल्पना पर काम शुरु किया है। संघ की अगुवाई में सबसे पहले तो मुस्लिम समुदाय से संवाद स्थापित किया गया और इसके बाद राष्ट्रीय मुस्लिम मंच के नाम से अनुषंगिक संगठन भी स्थापित किया गया। मुस्लिम समुदाय से संघ के संवाद का ही असर हुआ है कि बकरीद पर दारुल उलूम देवबन्द द्वारा गौकशी(गौहत्या) नहीं किए जाने का फतवा जारी किया जाता है। काश्मीर समस्या जैसे मुद्दों पर जब राष्ट्रीय मुस्लिम मंच ने देशभक्ति पूर्ण कार्यक्रम किए तो पूरे देश में इसका सकारात्मक संदेश गया। हांलाकि राष्ट्रीय मुस्लिम मंच जैसे प्रयास अभी अपनी शैशवावस्था में है,इसलिए इसका असर भी अपेक्षाकृत कम है।
सांप्रदायिकता से जुडी तमाम समस्याओं का हल इसी में निहित है। उदारवादी और आधुनिक विचारों वाले तबके की मुखरता से ही अलगाववादी तत्व अलग थलग हो पाएंगे और तभी सही मायने में देश आगे बढ सकेगा।

You may have missed

Here can be your custom HTML or Shortcode

This will close in 20 seconds