डॉ प्रणव मुखर्जी के उदबोधन के निहितार्थ
-डॉ रत्नदीप निगम
देश में एक बहस हर स्तर पर चल रही है कि पूर्व राष्ट्रपति डॉ प्रणव मुखर्जी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संघ शिक्षा वर्ग ,तृतीय वर्ष के दीक्षांत समारोह में मुख्य अतिथि के रूप में क्यों गए । यह बहस तब अस्तित्व में आयी जब प्रणव मुखर्जी जी ने संघ के आमंत्रण को स्वीकार कर लिया ।आश्चर्यजनक यह है की प्रणव मुखर्जी के समारोह में सम्मिलित होने के पूर्व से लेकर उनके उदबोधन के पश्चात् भी यह अनवरत् जारी है ।यह स्वाभाविक है कि पूर्व राष्ट्रपति जी के सम्बोधन को लेकर प्रत्येक व्यक्ति और हर विचारधारा के अनुयायी अपने दृष्टिकोण से उसकी व्याख्या कर रहे है ।कुछ विश्लेषक तो यह प्रश्न भी उठा रहे है कि इससे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को कितना फायदा होगा और कांग्रेस को कितना नुकसान । कुछ विचारधारा के लेखक , समीक्षक और संपादक तो यहाँ तक लिख रहे है कि जिस विचारधारा को हमने बड़ी ही योजनाबद्ध तरीके से अछूत बना कर रखा हुआ था , प्रणव मुखर्जी ने उस सब किये धरे पर पानी फेर दिया ।कुछ विचारकों का मत यह भी है कि इस संपूर्ण कवायद से संघ नहीं बदलने वाला और प्रणव मुखर्जी ने संघ के मंच से ही उनको अच्छा पाठ पढ़ा दिया ।विभिन्न तर्कों और कई अवरोधों से होती हुई यह बहस अब निष्कर्ष के चरण में जा पहुँची है ।
पूर्व राष्ट्रपति डॉ प्रणव मुखर्जी के उदबोधन के आलोक में कुछ बातें इंगित करती है कि विद्वान और अनुभवी राजनीतिज्ञ के सम्बोधन में प्राचीन भारत से लेकर वर्तमान तक के भारत का आकलन समाहित था ।डॉ मुखर्जी ने संघ के स्वयंसेवक शिक्षार्थियों के सामने भारत की महान् प्राचीन परम्पराओं एवम् उसके गौरव का उल्लेख किया ।संघ के शिक्षार्थी प्राथमिक से लेकर तृतीय वर्ष तक इन्हीं भारतीय परम्पराओं और भारतवर्ष की महानता पर गौरव को ही तो ग्रहण करते है , जिसका उल्लेख श्री मुखर्जी करते है , तो क्या यह कहा जाये कि उन्होंने अप्रत्यक्ष अथवा प्रत्यक्ष रूप शिक्षार्थियों के पाठ्यक्रम का ही अनुमोदन किया ? जब प्रणव मुखर्जी भारत के लोकतंत्र और उसके वैशिष्ट्य का गुणगान करते है तो क्या वो केवल संघ के शिक्षार्थियों से ही उसकी अपेक्षा कर रहे होंगे ? मेरी दृष्टि में जिस तरह से उन्होंने प्राचीन से वर्तमान का समग्र चिंतन प्रस्तुत किया ,उसमें केवल संघ ही नहीं अपितु सभी के लिए निहितार्थ रहे होंगे ।जैसे पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने अपने एक सम्बोधन में कहा था कि मैं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसकी विचारधारा का समूल नाश कर दूँगा , तो क्या प्रणव दा का लोकतंत्र का सन्देश प्. नेहरू के इस वक्तव्य को आईना नहीं दिखाता है , क्या जवाहरलाल नेहरू का यह विचार भारत के महान् लोकतंत्र के अनुरूप था ? जब डॉ प्रणव मुखर्जी यह कहते है कि लोकतंत्र में हिंसा के लिए कोई स्थान नहीं है तो क्या उनके समक्ष श्रीमती इंदिरा गाँधी का आपातकाल ( हिंसक ) दौर ध्यान में नहीं होगा जब जयप्रकाश नारायण से लेकर जार्ज फर्नांडीज तक से कोई संवाद न करते हुए हिंसा का मार्ग अपनाया गया दमन के लिए ।जब पूर्व राष्ट्रपति जी कहते है कि यह देश सभी सम्प्रदायों एवम् समुदायों के सह अस्तित्व में यकीन करता है तो शायद वे 1984 में सिखों के कत्लेआम की ओर इशारा करते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी को सह अस्तित्व सिखाते हुए लगते है । प्रणव मुखर्जी बंगाल का प्रतिनिधित्व भी करते है जंहाँ उन्होंने अपने ही कार्यकर्ताओ का विचार के आधार पर क़त्ल होते देखा है , जब वे विचार की स्वतंत्रता के संवैधानिक विशेषताओ का वर्णन कर रहे थे तो उनको बंगाल के अपने कार्यकर्त्ता भी मस्तिष्क में रहे होंगे जिनका क़त्ल मार्क्सवादी विचार के लोगो ने लोकतान्त्रिक संवैधानिक भारत में किया । उन्होंने वैचारिक असहिष्णुता को वर्तमान भारत में अस्वीकार्य बताया तो मैं समझता हूँ कि उनकी अपने पूर्व राजनीतिक दल कांग्रेस द्वारा जिस तरह उन्हें असहिष्णु बनाने का प्रयास किया और मार्क्सवादी विचारकों और jnu प्रशिक्षित टीवी एंकरों तथा संपादकों द्वारा मीडिया के माध्यम से उन पर जो दबाव बनाया गया ।शायद वैचारिक असहिष्णुता का उल्लेख उस परिदृश्य से परिचित होने से ही उन्होंने किया होगा ।
उनके सम्बोधन के एक दिन बाद देश को एक जानकारी प्राप्त हुई कि माओवादी , वामपंथी विचार के कुछ प्रोफेसर , वकील प्रधानमंत्री जी की हत्या का षड्यन्त्र कर रहे है । इस खबर का डॉ प्रणव मुखर्जी के संपूर्ण उदबोधन को अत्यधिक प्रासंगिक होना सिद्ध करता है । अर्थात् विद्वान अनुभवी पूर्व राष्ट्रपति नागपुर की धरती पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मंच से केवल संघ के लोगो को ही नहीं अपितु भारत के इतिहास से लेकर वर्तमान तक व्यक्तियो , विचारधाराओं , संस्थाओ , दलों एवम् संगठनो को अपने अंदर झाँकने के लिए कह रहे थे । उपनिषद में वर्णित यम और नचिकेता संवाद , रामायण में अंगद और रावण का संवाद , महाभारत में कृष्ण और कौरवों का संवाद , महात्मा गाँधी और अंग्रेजो का संवाद की महान् भारतीय परम्परा को समृद्ध करते हुए डॉ प्रणव मुखर्जी ने सभी को समग्र रूप से यह सन्देश दिया कि ईसाईयत और इस्लाम से पूर्व भी यह भारत और उसकी महान् संस्कृति मौजूद थी और विभिन्न आक्रांताओ और आक्रामक विचारधाराओं की हिंसा भी इस महान संस्कृति के महान् शाश्वत मूल्यों को मिटा नहीं सकी , क्योंकि यह देश सम्पूर्ण वसुंधरा की चिंता करता है न कि केवल एक वर्ग की और सभी के विकास को लक्षित करता है न कि किसी एक परिवार अथवा समूह का ।