वो मटकेवाला
(डॉ.डीएन पचौरी)
दिल्ली मुंबई जैसे महानगरों में रहने वाले लोगों के बारे में आम धारणा यही है कि वहां लोग अपने पडोसियों से लगभग अपरिचित ही रहते है। वहां के गतिशील तथा व्यस्ततम जीवन में अव्वल तो समय ही नहीं मिलता कि पडोसियों का हालचाल जान सके और संडे या अन्य छुट्टी के दिन समय मिलता भी है तो पत्नी बच्चों के साथ व घरेलु समस्याओं में समय का पता ही नहीं चलता है। मेरा शहर,महानगर तो क्या नगर भी नहीं है,एक बडा कस्बा जैसा है,किन्तु मै जिस कालोनी में रहता हूं वहां के लोग दिल्ली,मुंबई को भी मात करते है। एक तरफ जहां अन्य कालोनियों में चिल्लपौं,धमाचौकडी,शोर शराबा और चहल पहल रहती है,मेरी कालोनी में सदैव सन्नाटा पसरा रहता है। बन्द नहीं अब भी चलते है नियति नटी के कार्यकलाप,पर कितने एकान्त भाव से कितने शान्त और चुपचाप,कविता की ये पंक्तियां हमारी कालोनी पर एकदम सटीक बैठती है। कस्बे के एकान्त में निराली कालोनी है हमारी।
पन्द्रह सौलह घरों की इस कालोनी में अपने को आम आदमी से अलग समझने वाले स्वयंभू करोडपति लोग रहते है। सबके अपने अपने अहं है। एक से बढकर एक और हमसे बढकर कौन? सबसे बढकर एक कोने पर पुलिस से रिटायर्ड डीएसपी साहब रहते है। प्रमोशन पाकर मात्र २० दिन डिप्टी सुपरिटेण्डेन्ट आफ पुलिस रहे थे और रिटायर्ड हो गए। अब जीवनभर के लिए रिटायर्ड डीएसपी कहलाएंगे। पद रिटायर्ड डीएसपी,रुतबा डीआईजी का। उन्होने घर के बाहर एक नेमप्लेट लगा रखी है जो नेमप्लेट कम साईनबोर्ड ज्यादा नजर आती है। रिटायर्ड पुलिस डीएसपी इतने बडे अक्षरों में लिखा है जो आधा किलोमीटर दूर से नजर आता है।
सिंह साहब की दबंगई का ये हाल है कि उन्होने अपने बंगले के दो और पांच पांच फीट नजूल की जमीन हथिया ली है। कालोनी वालो से चन्दा करके आम रास्ते पर फाटक लगा रखा है जो कभी भी बन्द हो जाता है और कभी भी खुल जाता है। जब फाटक बन्द होता है तो लोगों को एक किलोमीटर का चक्कर लगा कर दूसरी ओर जाना पडता है। कई बार शिकातें हो चुकी हैं पर सिंह साहब को इससे क्या? उनका पूरा परिवार बेटे दामाद समधी,भाई,भतीजे सभी पुलिस की नौकरी में है अत: वो किसी की चिन्ता नहीं पालते। पुलसिया रौब हमेशा गालिब रहता है।इनके अलावा कालोनी में दो एडवोकेट,दो उद्योगपति,एक छोटी मिल के मालिक,दो चार्टर्ड एकाउण्टेन्ट,एक रिटायर्ड प्रोफेसर,एक इलैक्ट्रानिक इंजीनियर,दो बडी होटलों के मालिक आदि रहते है। दुआ सलाम तो दूर एक दूसरे से बात करना भी अपनी शान के खिलाफ समझते है। अपने बापों का टाटा बिडला,अम्बानी समझने वाले बच्चे,बडों से भी दो कदम आगे हैं। अन्य गली,मोहल्लो,सड़कों पर या कालोनियों में बच्चे क्रिकेट फुटबाल,पकडम पाटी जैसे खेल खेलते रहते है। हमारी कालोनी के बच्चे वातानुकूलित कमरों से निकलकर स्कूल और वहां से फिर अपने घरों में कैद हो जाते है। सभी हैल्थ कांशस है। ऐसा लगता है कि बैक्टीरिया,वाइरस,विषाणु,जीवाणु सभी इन पर आक्रमण करने को तैयार बैठे है। आम दिन की बात छोडिए,होली,दीवालीजैसे त्यौहारो पर भी हां शान्ति स्थापित रहती है।
इसी कालोनी के एक कोने में खाली पडे एक प्लाट पर एक मटके वाले ने डेरा जमा रखा है। गर्मी के दिनों में फ्रीज के ठण्डे जल में वह आनन्द कहां जो मिट्टी के घडे के ठण्डे मिठास व सौंधी गंध वाले जल में आता है। गर्मियों में मटकों का धन्धा अच्छा चलता है,अत:ज्यों ज्यों गर्मी बढती है मटके के जल की ठण्डक भी बढती है। किन्तु मटके वाले के मिजाज की गर्मी बढती जाती है। मटके की कीमत जो बोल दी,वो बोल दी,लेना है तो लो और नहीं तो चलते बनो।
एक दिन शाम के समय ७ बजे मटके वाले के यहां थोडा शोरगुल हुआ किन्तु रात आठ बजे गाली गलौज,मारपीट और धडाधड मटके फूटने की आवाजें आने लगी। कालोनीवासी अपनी अपनी बालकनियों से आदत के अनुसार उठकर घरों के अन्दर जाने लगे,कुछ अन्दर से झांकने की कोशिश करने लगे,किन्तु बाहर कोई नहीं आया।
यद्यपि घटनास्थल के निकट थाना भी है। जब शोरशराबे की आवाज थाने में उंघते हुए दरोगा खैंचूमल बटोरसिंह उर्फ केबी सिंह के कानों में पडी तो उन्होने वहीं से आवाज लगाई-रामरतन देखो क्या गुलगपाडा मच रहा है? सिपाही रामरतन एक प्राकृतिक दृश्य का आनन्द ले रहे थे। किसी फरियादी के साथ आई एक महिला टूटी बैंच पर बैठी थी। उसके चेहरे पर अपूर्व शान्ति विराजमान थी जैसे कोई मीराबाई अपने कृष्ण की याद में खोई हो। उसके अन्दर के व के उपर के दो बटन टूटे हुए थे और साडी का पल्लू खिसका हुआ था। पर उस वियोगिनी को कोई लेना देना नहीं था कि बटन खुले होने और पल्लू खिसकने से कोई नफा नुकसान भी है। रामरतन की ध्यान अवस्था भंग हुई तो उन्हे बुरा लगा और उन्होने वहीं से बैठे बैठे आवाज लगाई। सबै ठीक ठाक है। ऐसा लगा जैसे उनके ऐसा कहने से सब ठीक हो गया हो। जब तक कोई पीडीत एफआईआर ना लिखवाए। तब तक वैसे भी वो ध्यान नहीं देते थे,चाहे उनके सामने कोई किसी को मारे डाल रहा हो,तो भी। पुलिस घटनास्थल पर तभी पंहुचती है,जब मारपीट करने वाले दोनो पक्ष दो दो हाथ दिखाकर,ऊ र्जा गंवाकर घटाध्वस्त हो चुके होते है। स्ट्रांग केस भी तभी बनता है। अपनी जिन्दगी का ऐसा अनुभव समेटे रिटायर्ड डीएसपी सिंह साहब घटनास्थल की ओर चले। उनके पीछे उनकी रात दिन चमचागिरी करने वाले एकाउन्टेन्ट भी चल दिए। देखा देखी एडवोकेट,होटल मालिक,इंजीनियर और सभी अहं ब्रम्हास्मि,सिंह साहब के पीछे चलने लगे। जाकर देखा तो बीस पच्चीस घडे फूटे पडे थे,कुम्हार की पत्नी और बच्चे रो रहे थे व कुम्हार आसमान की ओर मुंह किए शायद भगवान से मन ही मन सवाल जवाब कर रहा था। सिंह साहब के चमचे कुम्हार के यहां से टूटी सी प्लास्टिक की कुर्सी उठा लाए,जिसपर रिटायर्ड डीएसपी सिंह साहब स्थापित हो गए। शेष लोग चारो ओर खडे हो गए। नाटक स्टेज तैयार हो गया। सिंह साहब ने पचास प्रतिशत अपनी फटे बांस जैसी आवाज में पचास प्रतिशत सोहराब मोदी की आवाज मिलाकर डॉयलाग मारा अय मटकेवाले बताओ तुम्हारे साथ क्या हुआ है? कुम्हार कुछ नहीं बोला,पेड का एक पत्ता तक नहीं हिला। मटके वाले की इस चुप्पी पर सिंह साहब को बडा गुस्सा आया। उन्होने फिर वही प्रश्न दुहराया,किन्तु मटकेवाला फिर भी चुप रहा। डीएसपी से रिटायर्ड और डीआईजी का रुतबा रखने वाले सिंह साहब मन ही मन आगबबूला हो गए। एक अदना से आदमी की ये हिम्मत कि उनके प्रश्न पर मौन? सिंह साहब का बस चलता तो वो मुगले आजम फिल्म के पृथ्वीराज कपूर की तरह हुकम दे डालते-दरोगाए जिन्दान,इस मटके वाले नामुराद को इसके मटके में ही चिनवा दिया जाए,हुकुम की तामील हो- किन्तु फिर उन्हे ध्यान आया कि न तो वे कहीं के बादशाह है और अब तो पुलिस में भी नहीं है। वो आगे कुछ बोलते कि एक कोने से बकरी के मिमियाने जैसी आवाज आई। ये आवाज मटकेवाले के पडोसी नारियल बेचने वाले की थी। उसने कहा-ऐसा हुआ कि पहलवान के लडका लोग इनसे मटका खरीदने आए थे पर भावताव के मामले में वो लडके भाव छोडकर ताव खा गए और फिर इनकी पिटाई और मटको की फुटाई एक साथ कर दी साब जी। पहलवान का नाम सुनते ही सिंह साहब को अपने दिमाग में ३० वर्ष पहले के थप्पड की गूंज सुनाई देने लगी। आज से ३० या ३५ वर्ष पहले सिंह साहब टीआई का प्रमोशन पाकर इस कस्बे में आए थे। पुलिस की वर्दी के रौब में उन्होने चौराहे पर इन्ही पहलवान को आईपीसी की किसी धारा को तोडने के जुर्म में भरी भीड के सामने जोरदार थप्पड रसीद कर दिया था। पहलवान भी कम नहीं ,ईंट का जवाब पत्थर,उसने सिंह साहब के गाल पर तुरन्त झन्नाटेदार थप्पड मारा। जिसकी गूंज आज तक सिंह साहब को सुनाई दे रही है। अपने दाये गाल पर हाथ रखते हुए सिंह साहब ने उपदेशात्मक स्वर में कहा-इन पहलवानों के मुंह शरीफ आदमी को तो लगना ही नहीं चाहिए। चारो ओर चुप्पी छाई रही,कोई कुछ नहीं बोला। थोडी देर बाद सन्नाटे को चीरती हुई इंजीनियर साहब की आवाज सुनाई दी। प्रोफेसर साहब दिखाई नहीं दे रहे हैं? घुसे होंगे अपने दडबे में,सीए साहब की राय थी,ये शिक्षक लोग होते ही डरपोक किस्म के इन्सान। एडवोकेट महोदय ने प्रोफेसर साहब के साथ सभी शिक्षकों को चरित्र प्रमाणपत्र टिकाते हुए कहा शिक्षकों को तो निडर निर्भीक,साहसी और बहादुर होना चहिए। ऐसा लगा जैसे शिक्षकों को पढाने नहीं युध्द में जाने के लिए तैयार रहना चाहिए। प्रोफेसर साहब के पडोसी होटल मालिक ने अपनी ईष्र्या छुपाने की जरा भी कोशिश नहीं की और फरमाया-इन प्रोफेसरों को फोकट के पचास साठ हजार रु.प्रतिमाह वेतन मिलता है,कभी ढंग से कॉलेज में पढाते भी है?
ये इन की डिग्रीयों का कमाल है,सिंह साहब के चमचे ने कहा।
ऐसी डिग्रीयां तो मै कितनी ले सकता था,क्या रखा है इन डिग्रीयों मे?
ऐसा लगा कि सिंह साहब की इस बात से देशभर की यूनिवर्सिटियों में शोक छा गया कि सिंह साहब ने हमारे यहां से कोई डिग्री क्यों नहीं ली? ये वही सिंह साहब थे जिन्होने बीए फाईनल की परीक्षा तीन वर्ष में घोर परिश्रम करके तृतीय श्रेणी में उत्तीर्ण की थी।
चुप रहिए आप सब,बहुत देर से आप प्रोफेसर साहब की बुराई किए जा रहे है। ये थोडे बहुत मटके बिना फूटे बच गए,वो उन्ही की मेहरबानी से। यहां सबसे पहले वही आए और पहलवान के लडकों को समझा बुझा कर चौराहे की तरफ ले गए। आप सब तो झगडे के समय अपने घरों,बालकनियों बरामदों में से झांक रहे थे,जबकि गुरुजी लड़कों को शान्त करने में लगे थे। सब चुप हो गए। कोई कुछ नहीं बोला। सभी की समझ में आ गया कि संस्कार शिक्षा से प्राप्त होते हैै,पैसे से खरीदे नहीं जा सकते। वे उंगन चिडीय की चाल से सब कथित करोडपति अपने अपने दडबों की ओर लौटने लगे।