बिहार घटनाक्रम-लौट के बुध्दु घर को आए
-तुषार कोठारी
बिहार का घटनाक्रम और नीतीश कुमार का मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा इसे अगर एक वाक्य में कहा जाए तो यही कहा जा सकता है कि लौट के बुध्दू घर को आए। कहावतें अनुभवों के आधार पर ही बनीं है। बिहार का राजनीतिक घटनाक्रम इस कहावत को पूरी तरह सही साबित करता है।
नीतीश कुमार की राजनीति का विश्लेषण करने से साफ हो जाता है कि बिहार विधानसभा चुनाव में जैसे तैसे जीत कर मुख्यमंत्री का पद हासिल करने के बाद जल्दी ही यह बात उनके ध्यान में आ गई थी कि लालू से गठबन्धन करके वे बहुत बडी गलती कर बैठे है। वे लगातार इस गलती को सुधारने का मौका तलाश रहे थे और इसकी पृष्ठभूमि भी तैयार करने में लगे हुए थे।
असल में नीतीश कुमार माहौल का आकलन करने में चूक कर गए थे। वे लम्बे समय से राजग (एनडीए) के साथ थे। लेकिन जैसे ही भाजपा ने नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया,उन्होने एनडीए से नाता तोडने की घोषणा कर डाली थी। यहीं वे गलती कर गए थे। नीतीश कुमार का आकलन यहीं गलत हो गया था। उनका आकलन यह था कि नरेन्द्र मोदी की छबि कट्टर हिन्दू और मुस्लिम विरोधी नेता की है,इसलिए अगर वे भाजपा के साथ जुडे रहे तो उनसे जुडे हुए मुस्लिम मतदाता नाराज हो जाएंगे। नीतीश कुमार को कहीं न कहीं ये भी लग रहा था कि वे मोदी विरोधी रुख अख्तियार करके बिहार के उन मुस्लिम मतदाताओं को भी रिझाने में सफल हो जाएंगे,जिन पर लालू या अन्य पार्टियों का प्रभाव है।
इसी आकलन के आधार पर वे तुरत फुरत एनडीए से अलग हो गए और मोदी विरोधी बयानबाजी में जुट गए। बिहार के विधानसभा चुनाव में उन्होने अपने धुर विरोधी लालू प्रसाद यादव से गठबन्धन करने में भी संकोच नहीं किया। जबकि लालू यादव भ्रष्टाचार के मामले में दोषसिध्द हो चुके थे। नीतिश को लग रहा था कि भ्रष्टाचार का मुद्दा फिलहाल इतना बडा नहीं है,जितना कि सांप्रदायिकता का। इन्ही कारणों के चलते उन्होने लालू और कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लडा था।
बिहार विधानसभा चुनाव में भाजपा की हार के बाद देश के अधिसंख्य राजनीतिक विश्लेषकों ने इसे मोदी लहर का अंत बताया था। यह भी कहा गया था कि विपक्ष की एकजुटता मोदी लहर की हवा निकालने में सक्षम है। अधिकांश भाजपा विरोधी दल और भाजपा विरोधी राजनीतिक विश्लेषकों ने तो बिहार चुनाव के नतीजों के आधार पर 2019 के आम चुनावों में नरेन्द्र मोदी की पराजय की भविष्यवाणी भी कर दी थी।
विधानसभा चुनाव की जीत के इन सतही विश्लेषणों में वास्तविक तथ्यों को पूरी तरह छुपा दिया गया था। जबकि वास्तविक तथ्य यह था कि बिहार विधानसभा के चुनावों में सर्वाधिक फायदा लालू को हुआ था,जबकि नीतिश कुमार की जनता दल यूनाईटेड को सबसे ज्यादा नुकसान हुआ था। भाजपा जदयू गठबन्धन को मिली सीटों की तुलना नीतीश लालू के गठबन्धन को मिली सीटों से करने पर स्थिति स्पष्ट हो रही थी। जब भाजपा जदयू गठबन्धन था,तब नीतीश कुमार को 115 सीटें मिली थी,लेकिन पिछले विधानसभा चुनाव में जब वे लालू के साथ चुनाव लडे उनकी पार्टी को मात्र 71 सीटें ही मिल पाई थी। इस तरह उन्हे 44 सीटों का नुकसान हुआ था। इसी तरह भाजपा को 38 सीटों का नुकसान उठाना पडा था। इसके विपरित लालू को सर्वाधिक 58 सीटों का फायदा हुआ था। पिछले विधानसभा चुनाव में लालू की आरजेडी सबसे बडी पार्टी बनकर उभरी थी। चूंकि चुनाव नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री घोषित कर लडा गया था इसलिए कम सीटों के बावजूद नीतीश को मुख्यमंत्री बनाया गया था।
चुनाव नतीजों का चाहे जो विश्लेषण किया गया हो,कम से कम नीतीश कुमार खुद तो यह समझ ही रहे होंगे कि उन्हे लालू के साथ आने से बडा नुकसान हो गया है। सरकार चलाने के दौरान भी उन्हे बार बार इस बात एहसास हुआ होगा कि भाजपा के साथ उनका गठबन्धन सहज गठबन्धन था जबकि यहां वे कम सीटों के साथ मुख्यमंत्री बने थे। लालू का अक्खडपन उन्हे दुख देता ही रहा होगा। इसी अक्खडपन का नतीजा था कि तेजस्वी जैसे कम पढे लिखे अनुभवहीन युवा को उन्हे उपमुख्यमंत्री जैसा महत्वपूर्ण पद देना पडा। इतना ही नहीं रोजमर्रा के कामकाज में आरजेडी नेताओं का बेवजह का हस्तक्षेप,निर्णय लेने की स्वतंत्रता का अभाव जैसे मुद्दे उन्हे दुखी करते ही रहे होंगे। जबकि भाजपा के गठबन्धन में उनके सामने इस तरह की समस्याएं नहीं थी।
इसके विपरित बिहार विधानसभा चुनाव के बाद हुए अन्य चुनावों और खासतौर पर उत्तर प्रदेश जैसे विशाल राज्य में भाजपा को मिले प्रचण्ड बहुमत ने यह भी सिध्द कर दिया था कि मोदी लहर समाप्त नहीं हुई है बल्कि और तेज हो रही है। इन परिस्थितियों में नीतीश को यही लग रहा था कि जैसे भी हो लालू के चक्रव्यूह से वे बाहर निकल जाएं। उन्हे यह भी डर था कि कहीं लालू यादव और उनके परिवार की भ्रष्टाचारी छबि,उनकी सुशासन बाबू वाली इमेज को ध्वस्त ना कर दे।
नीतीश कुमार लम्बे समय से संकेत दे रहे थे कि वे महागठबन्धन में खुश नहीं है। वे किसी ना किसी तरह से भाजपा की नजदीकी चाह रहे थे। कई मुद्दों पर उन्होने भाजपा और मोदी का समर्थन किया। सर्जिकल स्ट्राईक से लेकर नोटबन्दी जैसे मामलों में उन्होने नरेन्द्र मोदी का खुलकर समर्थन किया। राष्ट्रपति चुनाव में तो उन्ही की वजह से विपक्षी एकता के दावों की हवा पूरी तरह निकल गई थी। लम्बे समय से वे भाजपा से नजदीकियां बढाने में लगे हुए थे। अन्दर ही अन्दर कहीं ना कहीं भाजपा और जदयू में यह फार्मूला तय होने लगा था कि नीतीश फिर से भाजपा और एनडीए का दामन थाम लेंगे और मुख्यमंत्री भी बने रहेंगे। सीबीआई द्वारा लालू राबडी और तेजस्वी के खिलाफ दर्ज एफआईआर ने उनका काम आसान कर दिया। अब सिर्फ यह काम बाकी था कि गठबन्धन टूटने का ठीकरा किसके सिर फोडा जाए। इसके लिए भी नीतीश कुमार ने पर्याप्त इंतजार किया और जैसे ही लालू ने हेंकडी दिखाने वाले बयान दिए,नीतीश ने इस्तीफा देने की घोषणा कर डाली।
कल्पना कीजिए कि अगर नीतीश ने एनडीए नहीं छोडा होता,तो बिहार में क्या हुआ होता? भाजपा और जदयू का गठबन्धन बडी आसानी से चुनाव जीतता और नीतीश मुख्यमंत्री भी बनते। न तो अल्पसंख्यकों में उनका जनाधार कम हुआ होता और ना ही सरकार बीस महीनों में औंधे मुंह गिरती। बहरहाल,बीस महीने का वक्त जाया करके नीतीश कुमार फिर से वहीं आ गए है,जहां से चले थे। जाहिर है लौट के बुध्दू घर को आए वाली कहावत पूर्णत: चरितार्थ हुई है।