November 8, 2024

गैर हिंदी राज्यों में हिंदी दक्षिण भारत में हिंदी का प्रचलन

– डा. के.संगीता

सहायक प्राध्यापिका, हिंदी विभाग, उस्मानिया वि.वि. हैदराबाद

दक्षिण भारत की संज्ञा भारत के दक्षिण भू-भाग को दी जाती है जिसमें केरल, कर्नाटक, आंध्रा एवं तमिलनाडु राज्य तथा संघ शासित प्रदेश पांडीचेरी शामिल है।इन प्रांतो के भाषा-भाषियों की संख्या भारत की आबादी में लगभग 25 प्रतिशत है, दक्षिण की इन भाषाओं की अपनी-अपनी विशिष्ट लिपियां है। सुसमृध्द शब्द-भण्डार, व्याकरण तथा समृध्द साहित्यिक परम्परा भी है। अपने-अपने प्रदेश विशेष की भाषाओं के प्रति यहाँ की जनता में निसंदेह आत्मीयता की भावना है, अत: यह बात स्वत: स्पष्ट है कि दक्षिण भारत भाषी सदभावना के लिए उर्वर भूमि है।

धार्मिक, व्यापारिक और राजनैतिक कारणों से उत्तर भारत के लोगों का दक्षिण में आने-जाने की परम्परा शुरु होने के साथ ही दक्षिण में हिंदी का प्रवेश हुआ। दक्षिण भू-भाग पर मुसलमान शासकों के आगमन और इस प्रदेश पर उनके शासन के दौर में एक भाषा विशेष के रुप में दक्खिनी का प्रचलन चौदहवीं से अठारवीं सदी के बीच हुआ, जिसे दक्खिनी हिंदी की संज्ञा भी दी जाती है। दक्खिनी हिंदी का विकास एक जन भाषा के रुप में हुआ था इसमें उत्तर दक्षिण की कई बोलियों के शब्द जुड जाने से यह आम आदमी की भाषा के रुप में प्रचलित हुई। द्क्खिनी हिंदी में प्रचुर मात्रा में साहित्य का सृजन भी हुआ है। हिंदी को दक्षिण भारत में ले जाने का पहला श्रेय बहंमनी एवं मुगल प्रशासकों को है।

शताब्दियों पूर्व ही दक्षिण में हिंदी भाषा के प्रचलन के सम्बंध में एक और तथ्यात्मक उध्दरण केरल प्रांत से मिलता है। ‘स्वाति-तिरुनाला’ के नाम से सुविख्यात तिरुबिरनकुर राजवंश के राजा राम वर्मानेहिंदी में कई पद रचे थे।

दक्षिण में हिंदी भाषा की कई शैलियाँ, कई शब्द और रुप मिल गये है।भिन्न भाषा, भाषियों के बीच आदान-प्रदानएवं स्वीकृत भाषा के रुप में दक्षिण में हिंदी प्रचलित हुई है।

आधुनिक काल में हिंदी का दक्षिण भारत में व्यापक प्रचलन हुआ। आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द सरस्वती ने हिंदी का प्रबल समर्थन किया था। उन्होंने हिंदी को ‘आर्य भाषा’ की संज्ञा देकर अपने महत्वपूर्ण ग्रंथ ‘सत्यार्थ प्रकाश’ की रचना हिंदी में ही की थी। आर्य समाज ने जहाँ एक ओर समूचे भारत में भारतीयता एवं राष्ट्रीयता का प्रबल प्रचार किया,वहीं दूसरी ओर हिंदी का प्रचार-प्रसार भी किया। आंध्र में निजाम शासन के दौरान चार हिंदी पत्र-पत्रिकाएं भी प्रकाशित की थी। उस समय निजाम शासन व्दारा आर्य समाज की गतिविधियों पर रोक लगाये जाने पर राज्य की सीमा पर सोलापुर से इन पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन कराके बडी चुनौती के साथ राज्य में इनका प्रसार किया जाता था। हिंदी के प्रचलन में आर्य समाज के योगदान की यह एक मिसाल है।

स्वाधीनता आंदोलन के दिनों में भावात्मक एकता स्थापित करने में हिंदी को सशक्त माध्यम मानकर इसके प्रचार के लिए कई प्रयास किये गये। तमिल के सुविख्यात राष्ट्रकवि सुब्रमण्यम भारती ने अपने संपादन में प्रकाशित तमिल पत्रिका ‘इण्डिया’ के माध्यम से 1906 में ही जनता से हिंदी सिखने की अपील की थी।

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जी ने अपने रचनात्मक कार्यक्रमों में हिंदी प्रचार को भी जोड लिया था। गांधी जी ने यह महसूस किया था कि भिन्न-भिन्न भाषाएं बोलने वाले भारतीयों के बीच व्यवहार की भाषा के रुप में हिंदी सर्वोपयुक्त भाषा है। हिंदी गंगोत्री की धारा को दक्षिण के गांवो तक ले आने सम्बंधी गांधी जी के भागीरथ प्रयासों से सम्बंधित ऐतिहासिक तथ्यों से कोई भी अनभिज्ञ नहीं है। 19 मार्च 1918 को इंदौर में सम्पन्न हिंदी साहित्य सम्मेलन के अधिवेशन में सभापति के मंच से भाषण देते हुए गांधी जी ने कहा था कि “जब तक हम हिंदी भाषा को राष्ट्रीय और अपनी-अपनी प्रांतीय भाषाओं को उनके योग्य स्थान नहीं देते, तब तक स्वराज्य की सब बातें निरर्थक है”। गांधी जी की राय में भाषा वही श्रेष्ठ है, जिसको जनसमूह सहज में समझ ले। आगे चलकर गांधी जी की संकल्पना से दक्षिण भारत में हिंदी प्रचार का एक बडा अभियान शुरु हुआ। भारत के संविधान में राष्ट्रीय राजकाज की भाषाओं के रुप में हिंदी को तथा देश के विभिन्न राज्यों में वहाँ की क्षेत्रीय भाषाओं को राजकाज की भाषाओं के रुप में मान्यता देने की चेष्टा की गई। अपनी संकल्पनाओं को साकार बनाने की दिशा में गांधी जी ने अपने सुपुत्र देवदास गांधी को मद्रास भेजा था तथा हिंदी सिखने वाले हजारों हिंदी प्रेमी हिंदी प्रचारकों के रुप में निष्ठा एवं लगन के साथ दक्षिण के गांवो में हिंदी का प्रचार करने लगे थे।

1918 में हिंदी साहित्य सम्मेलन का क्षेत्रीय कार्यालय मद्रास में खुला था।

दक्षिण में हिंदी के प्रचार-प्रसार में योग देने में कई निजि प्रयास भी सामने आये है। नि:शुल्क हिंदी कक्षाओं का संचालन, लेखन, प्रकाशन, पत्रकारिता, गोष्ठियों का आयोजन आदि कई रुपों में हिंदी के प्रचार, प्रसार हेतु कई प्रयास किये जा रहे है। यहाँ हिंदी फिल्मों के प्रदर्शन की बडी मांग रहती है, इनके दर्शको में अधिकांश हिंदीतर भाषी भी होते है। हिंदी गीतों की लोकप्रियता की बात तो अलग ही है। अंत्याक्षरी, गायन आदि कई रुपों में हिंदी गीत दक्षिण के सांस्कृतिक जीवन के अभिन्न अंग बन गये है। हिंदीतर भाषियों का हिंदी भाषा का अर्जित ज्ञान इतना परिमार्जित हुआ है कि यहाँ सैकडो की संख्या में हिंदी के लेखक उभर कर सामने आये है।

दक्षिण से सैकडो की संख्या में हिंदी की पत्र-पत्रिकाएं प्रकाशित हुई है। इनमें हिंदीतर भाषियों व्दारा हिंदी प्रचार हेतु निजि प्रयासों से संचालित पत्रिकाएं भी कई है।निष्कर्ष के तौर पर कहा जा सकता है कि दक्षिण में हिंदी भाषा के प्रचार के साथ अध्ययन, अध्यापन, लेखन, प्रकाशन में उल्लेखनीय प्रगति हुई है।

दक्षिण में हिंदीतर भाषी विभिन्न भाषा-भाषियों के बीच भी एक आम सम्पर्क भाषा के रुप में हिंदी की भूमिका अविस्मरणीय है। भारत संघ की राजभाषा के रुप में इसका प्रचार-प्रसार एवं प्रयोग अन्य गैर हिंदी प्रांतों की तुलना में दक्षिण में अधिक है। जनता की जरुरतों तथा सरकार की नीतियों के आलोक में दक्षिण भारत में हिंदी भाषा का भविष्य निश्चय ही उज्जवल रहेगा।

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