पदमावत प्रकरण-पागलपन की पराकाष्ठा
-तुषार कोठारी
विश्व की तेजी से उभरती अर्थव्यवस्था भारत,विश्वशक्ति बनने की राह पर भारत,अंतरिक्ष विज्ञान में विश्व के अग्रणी देशों में शामिल भारत। लेकिन यह क्या। इसी भारत में पागलपन की पराकाष्ठा चल रही है। सामान्य बुध्दि गंवा चुके कुछ लोगों के पीछे न सिर्फ मीडीया बल्कि कुछ राज्य सरकारें भी चल पडी है। जिस चीज का अस्तित्व ही नहीं है,उसके विरोध में मरने मारने और यहां तक कि जौहर करने की धमकियां दी जा रही है। सडक़ों को जाम किया जा रहा है,तोडफोड की जा रही है। उग्र आन्दोलन की धमकियां दी जा रही है।
पागलपन का ऐसा दौर इससे पहले कभी देखने को नहीं मिला। सबसे दुखद पहलू यह है कि सरकार में बैठे नेताओं को इस प्रकरण में वोटों के हानि लाभ का गणित नजर आने लगा। सुप्रीम कोर्ट द्वारा एक बार निर्णय दे दिए जाने के बावजूद मध्यप्रदेश और राजस्थान की राज्य सरकारें दोबारा से सुप्रीम कोर्ट जा पंहुची। गनीमत यह थी कि सर्वोच्च न्यायालय ने दोनो सरकारों को जमकर लताड लगाई और पदमावत को लेकर दायर तमाम याचिकाओं को एक बार में रद्द कर दिया।
फिल्मों को हिट कराने के लिए विवाद खडे करना फिल्म निर्माताओं की पुरानी रणनीति रही है। पदमावती के निर्माता ने भी शायद इसी फार्मूले का उपयोग किया था। याद कीजिए,पदमावती पर हुआ पहला विवाद,जब जयपुर में शूटिंग के दौरान तथाकथित करणी सेना ने सेट पर जाकर तोडफोड की। आरोप यह लगाया गया कि फिल्म में पदमावती और खिलजी के ड्रीम सिक्वेंस के दृश्य है। फिल्म निर्माण की तकनीक को समझने वाले जानते है कि शूटिंग कर रहे कलाकारों और शूटिंग देखने वालों को यह कतई पता नहीं चलता है कि फिल्म में कैसा और कौनसा दृश्य दिखाई देगा। तोडफोड करने वालों को क्या सपना आया था कि इस फिल्म में ऐसे आपत्तिजनक दृश्य है। शुरुआती घटनाक्रम तो यही संकेत दे रहा था कि विवाद प्रायोजित था। यहां तक तो ठीक था। पागलपन का दौर इसके बाद शुरु हुआ। जब विवाद प्रारंभ हुआ था,उस समय तो फिल्म बनी ही नहीं थी। काफी दिनों बाद जब फिल्म तैयार होकर सेंसर बोर्ड में पंहुची,तो विरोध करने वालों ने फिर शोर मचाया। परिणाम यह हुआ कि सेंसर बोर्ड ने फिल्म का नाम बदलवा दिया और अब यह पदमावती से पदमावत हो गया।
विवाद के शुरुआती दौर में भाजपा की कुछ राज्य सरकारों ने शायद राजपूत समाज के वोटों की पकड करने के लिए फिल्म पर प्रतिबन्ध की घोषणा की थी। यहां तक तो मामला निर्माता की इच्छानुसार ही चलता दिखाई दे रहा था। क्योंकि हर कदम पर फिल्म को प्रचार मिल रहा था। जैसा कि अपेक्षित था,सेंसर से पास होने के बाद निर्माता ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया और सुप्रीम कोर्ट ने फिल्म को पूरे देश में रिलीज करने का आदेश जारी कर दिया।
फिल्म निर्माता का पब्लिसिटी स्टंट पूरा हो चुका था। फिल्म प्रदर्शित होने से पहले ही पूरी दुनिया में चर्चित हो चुकी थी। इन्टरनेट,एफएम रेडियो हर कहीं फिल्म का घूमर गाना चर्चित हो चुका था। रिलीज के पहले ही फिल्म का सुपर डुपर हिट होना तय हो चुका था। होने को तो यह होना था कि एक बार सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय आ जाने के बाद विवाद खत्म हो जाना चाहिए था,लेकिन अब पागलपन की पराकाष्ठा का दौर शुरु हुआ।
फिल्म का विरोध कर रहे बुध्दिहीन लोगों ने फिर से फिल्म का विरोध शुरु किया। अब हालत यह है कि उन्हे यह पता ही नहीं है कि वे विरोध कर किसलिए रहे हैं? उनके द्वारा लगाए गए तमाम आरोप निराधार साबित हो चुके है। फिल्म देख चुके अनेक लोग यह कह चुके है कि यह फिल्म पदमावती की प्रतिष्ठा को बढाने वाली ही है,न कि प्रतिष्ठा को धूमिल करने वाली। फिल्म निर्माता विरोध करने वालों को फिल्म देखने का निमंत्रण दे रहे है। लेकिन विरोधी है कि विरोध किए जा रहे है। हद तो तब हो गई,जब राजस्थान और मध्यप्रदेश की सरकारों ने भी इन मूर्खों के स्वर में स्वर मिलाते हुए फिल्म को प्रतिबन्धित करने के लिए दोबारा सुप्रीम कोर्ट का रुख किया और वहां से डांट खाई।
यही नहीं पागलपन के इस खेल को मीडीया ने भी पर्याप्त हवा दी। अब तो स्थिति यह बन गई है कि जिस किसी को प्रचार हासिल करना है,वह बेसिर पैर के विवादित बयान जारी कर देता है और न्यूज चैनलों पर उसे फुटेज मिल जाती है। कोई कह रहा है सिनेमाहाल जलाने वाले को एक लाख रु.दिए जाएंगे। कोई कह रहा है कि जनता कफ्र्यू लगा दिया जाएगा। पागलपन की पराकाष्ठा के इस दौर में सबसे महत्वपूर्ण पक्ष छुप सा गया है।
सबसे महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि हमारे महापुरुषों की गौरव गाथाएं यदि सेल्यूलाईड पर आती है,तो यह समाज के लिए बेहद अच्छी बात है। रामायण और महाभारत सीरीयल आने के कारण हजारों लाखों लोगों को रामायण और महाभारत के अनछुए तथ्यों की जानकारी मिली थी। मनोज कुमार जैसे निर्माताओं ने भगतसिंह और चन्द्रशेखर आजाद जैसे क्रान्तिकारियों पर फिल्म बनाकर जन जन तक उनकी वीरगाथाएं पंहुचाई। हाल के दौर में भी भगतसिंह पर तीन फिल्में बनी है। देश के महान नायकों और योध्दाओं के जीवन चरित्रों पर फिल्में बनाई जाना निश्चय ही स्वागतयोग्य पहल है।
फिल्म इण्डस्ट्री में फिल्म निर्माता कमाई के लिए फिल्में बनाता है। लेकिन यदि कमाई के साथ समाज में अच्छे विषयों और अच्छे चरित्रों को केन्द्र में रखकर फिल्मे बनाई जाती है,तो यह निश्चय ही देश और समाज के लिए काफी अच्छा होता है। खुशी की बात यह है कि इस दौर में निर्माता राष्ट्रनायकों को फिल्मी पर्दे पर उतारने का साहस कर रहे है। जबकि इसमें घाटे का खतरा भी है। आमिर खान ने 1857 की क्रान्ति के अगुआ रहे मंगल पाण्डे पर फिल्म बनाई। अभी झांसी की रानी और शिवाजी के वीर सेनापति तानाजी पर फिल्में बन रही है। देश के हजारों महापुरुष अभी बाकी है,जिनके जीवन पर फिल्मे बनाई जा सकती है। लेकिन पदमावती पर हो रहे पागलपन के चलते यह अनुकरणीय पहल कहीं रुकने ना लग जाए। आखिरकार पदमावत के निर्माता ने मेवाड की महारानी के उच्चतम बलिदान के प्रसंग को जीवन्त करने के लिए ही यह फिल्म बनाई है। भारत के किस व्यक्ति में साहस हो सकता है कि वह महान वीरांगना पदमावती की महिमा को कम कर सकता है। कोई फिल्मकार तो इतना साहस कर ही नहीं सकता। बहरहाल देखने वाली बात यह है कि पागलपन की पराकाष्ठा का दौर कब तक चलने वाला है।