वाह रे कलात्मक फिल्म
बात करामात-डॉ.डीएन पचौरी
सन 1974 का काल,कलात्मक फिल्मों की धूम मच रही थी। ओम पुरी,नसीरुद्दीन शाह,शबाना आजमी,स्मिता पाटिल आदि सितारों का उदय हो रहा था। इसी समय हमारे नगर के कुछ तथाकथित बुध्दिजीवियों को लगा कि नगर के सिनेमाघरों में कलात्मक फिल्मे नहीं लगती है,अत: इन्हे देखने के लिए क्यों न एक एसोसिएशन बनाया जाए। अत: नगर के बुध्दिजीवियों का संगठन तैयार हुआ,जिसके अध्यक्ष आयकर अधिकारी थेष आयकर अधिकारी को संगठन में शामिल करने का फायदा ये था कि कपडा व्यवसायी,किराना स्टोर्स मालिक,हलवाई आदि से अच्छा चंदा इक_ा हुआ। जबकि इस वर्ग का कलात्मक फिल्मों से दूर का ही रिश्ता रहता है। संगठन का नाम रखा गया कलात्मक फिल्म अभिरुचि संगठन। शुल्क 5 रुपए प्रतिमाह। पांच रुपए में बुध्दिजीवी कहलाने का सुअवसर हम कहां छोडने वाले थे,तुरंत दो माह के दस रुपए जमा करवा दिए।
तय हुआ कि प्रति रविवार प्रात: ९ बजे से फिल्म का शो रखा जाएगा। चार पांच दिन के लम्बे इन्तजार के बाद आखिर वह रविवार आ ही गया,जब एक स्थानीय सिनेमाघर में कलात्मक फिल्म का प्रदर्शन किया जाना था। प्रात: ९बजे के शो के लिए हम सब दोस्त,जो वास्तव में पढे लिखे थे,जल्दी आठ बजे ही सिनेमाघर इसलिए पंहुच गए कि देखें हमारे अलावा शहर में और कौन कौन से बुध्दिजीवी है? फिल्म से ज्यादा बुध्दिजीवियों को देखने की उत्सुकता थी। एक एक कर आयकर अधिकारी के भय से ग्रस्त पैसे वाले सेठों से लगाकर व्यापारी,अन्य अधिकारी,प्रोफेसर,वकील और उनके साथ दीगर नाई हलवाई तक आने लगे। गौरतलब है कि ये सब पहली बार बडी संख्या में इसलिए आए थे कि आयकर वाले साहब भी खुश और लगे हाथ कलात्मक फिल्म कैसी होती है वो भी देख लेंगे। लेकिन बाद के रविवारों को इनमें से एक भी नहीं आया। पहली ही कलात्मक फिल्म इण्टरवल तक देखकर ढेर हो गए। परम्परा के अनुसार,आयकर अधिकारी एक घण्टे लेट होने की बजाय आधे घण्टे लेट हुए और उनके आने पर ९.३० बजे कलात्मक फिल्म का प्रदर्शन प्रारंभ हुआ। फिल्म का नाम क्या था ये तो अब याद नहीं है अलबत्तादेखे गए एक एक सीन आज भी याद हहै। क्योकि जिन चीजों से आपको जीवन में कष्ट हुआ हो उन्हे आप सरलता से भुला नहीं सकते हैं। चूंकि फिल्म अंग्रेजी फिल्मों की तर्ज पर मात्र एक या सवा घ्ट्टे की थी अत: पहले उबाउ विज्ञापन जैसे वज्रदन्ती फज्रदन्ती,विको वज्रदन्ती आदि प्रारंभ हुए फिर स्थानीय समाचार चित्र का प्रदर्शन और आधे घण्टे बोर करने के बाद असली फिल्म प्रारंभ हुई।
सर्वप्रथम गाडी के इंजन के दर्शन कराए गए। अनेकों बार रेलयात्रा की थी,किन्तु इतने गौर से गाडी को देखने का मौका पहली बार मिल रहा था। इंजन में दो भीमकाय काली मूर्तियों के दर्शन कराए गए,जो शायद चालक व परिचालक थे। उन दिनों गाडियां कोयले से चलती थी अत: इंजन के सामने कोयले झोंकने से वैसे ही गोरा आदमी काला हो जाता था। फिर लगातार कोयले झोंकने जैसे मेहनत के काम करने से दुबले पतले शरीर वाला भी बाडी बिल्डर बन जाता था। आजकल इलेक्ट्रिक इंजन में कुछ बटन दबाने पडते है,जिन्हे सींकीया पहलवान भी दबा कर इंजन चला सकता है। उस समय सचमुच रेलगाडी चलाना दिलगुर्दे का काम था। चूंकि हम कलात्मक फिल्म देख रहे थे इसलिए कैमरे की आंख से गाडी को तीन चार बार दिखाया गया,साथ ही चाय वाले,नाश्ते वाले,फलवाले,ताले जंजीर चाबी वाले,खिलौने वाले और उनके ठेले,पुस्तक वाले की गाडी आदि भरपूर दिखाए गए। और जब सभी दर्शक सभी से सुपरिचित हो गए तब गाडी ने भाप छोडी,पहिया खिसका और गाडी चलने लगी। गाडी में एब एक डिब्बे पर कैमरा फोकस किया गया,जहां कुछ लोग लेटे,कुछ बैठे और कुछ सचमुच सो रहे थे। एक आदमी अखबार पढ रहा था,शायद वह हीरो था फिल्म का,क्योकि उसका चेहरा क्लोजअप में तीन चार बार दिखाया गया। हीरो एकदम आम आदमी। फिल्म में न कोई डॉयलाग,न बैक ग्राउण्ड म्यूजिक और न हीरो के चेहरे पर किसी प्रकार के एक्सप्रेशन। हीरोइन भी नहीं। कहीं किसी प्रकार का कोई झंझट नहीं था। आखिर कलात्मक फिल्म थी इसलिए बडे मजे से साफ सुथरी सारी फिल्मी विघ्न बाधाओं से दूर दर्शकों के दिलदिमाग को रौंदती हुई चली जा रही थी।
गाडी तीव्र गति से दौडी जा रही थी। बार बार इंजिन,पहिए और पटरियां दिखाई जा रही थी। बचपन में पढा था कि दो समानान्तर रेखाएं परस्पर कभी नहीं मिलती है। यह बात यहां सही साबित हो रही थी। समानान्तर पटरियां और उनके साथ नदी कुए तालाब झरने झाड पहाड,गाय बैल भैंस बकरी बाग बगीचे,आम अमरुद से लेकर पीपल बबूल सभी प्रकार की वनस्पतियों और जानवरों के दर्शन से हम रोमांचित थे।
गाडी बडी तीव्र गति से दौड रही थी। यकायक कैमरा एक जानवर पर टिक गया और हम पहचान गए कि यह भैंस थी,जिसका पानी मिला दूध पी पीकर हमारा ये सुगठित शरीर रचा गया है। फिर राष्ट्रपिता की पसंद बकरी दिखाई गई। बकरी कुछ मुस्कुराई,आखिर पर्दे पर आ रही थी और बीच बीच में चालक परिचालकों की ६ इंच चौडी मुस्कान तथा विकराल हंसी भी दिखा रहे थे। आखिर वे बेचारे भी तो पर्दे पर आ रहे थे। गाडी की स्पीड क्या फुल स्पीड थी। दर्शक सांस रोके बैठे थे। समझ नहीं आ रहा था कि आखिर निर्देशक दिखाना चाहता है? एक्सीडेन्ट दिखाएगा या क्या करेगा? बडा संस्पेंस हो रहा था कि अचानक गाडी की स्पीड कम होने लगी। सभी दर्शकों की जान में जान आई। शायद निर्देशक को ध्यान आ गया कि ये रेलयात्रा थी,हवाई यात्रा नहीं,अत: रेलवे स्टेशन भी होते है,जिन्हे दिखाना चाहिए। गाडी की स्पीड कम होने लगी तो हम प्रसन्न हुए कि एक्सीडेन्ट नहीं हुआ और उधर कैमरा फिल्म के आम आदमी अर्थात हीरो को दिखाने लगा,जो झपकी लेते लेते उठकर बैठ गया। गाडी एक स्टेशन पर रुक गई और पर्दे पर लिखा दिख गया इण्टरवल। सचमुच इण्टरवल हो गया। टाकीज की लाइटें जल गईं और दर्शक बाहर निकलने लगे। जैसे कैद से छूटे हो। समझदार लोगों ने तो पीछे मुडकर नहीं देखा। जो भागे तो भागते ही चले गए। कुछ समझदार टाइप के आदमी आयकर अधिकारी को नमस्ते करके निकल लिए। जो वास्तव में पढे लिखे थे,वो बुध्दिजीवी कहलाने के चक्कर में फंस गए और शेष बची फिल्म देखकर शहीद होने के लिए तैयार हो गए। हम भी बुध्दिजीवी कहलाने के चक्कर में लडख़डाते कदमों से टाकीज में घुसे और अपनी सीट पर ढेर हो गए।
इण्टरवल के बाद फिर फिल्म चलने लगी। वही इंजन पटरियां,चालक परिचालक। समझ में नहीं आ रहा था कि फिल्म का निर्देशक क्या दिखाना चाहता था? फिल्म का उद्देश्य क्या था? वही पहचाने चेहरे थे,कहां जाए कि घर जाएं? कलात्मक फिल्म में यथार्थ दर्शाया जाता है। जिससे फिल्म बोर हो जाती है। जैसे फिल्म के किसी पात्र को किसी गहरे तालाब या बावडी से जल लेना है और उपर से नीचे तक पचास सीढियां है,तो बन्दा पचास सीढी उतरेगा और पचास सीढी चढेगा। आप गिनते रहिए और अपनी छाती माथा कूटते रहिए,उन्हे कोई फर्क नहीं पडता है। इसी तर्ज पर फिल्म चलती रही और हम सिर धुनते रहे। बडी मुश्किल से गाडी एक छोटे से स्टेशन पर रुकी और फिल्म का वयोवृध्द हीरो गाडी से उतरा। फिर एक तांगा दिखाया गया। उसमे जुते घोडे,गधे की साइज के थे। घांस और दाने पानी की कमी से घोडो का साइज घटकर गधे जैसा रह गया होगा और इन्हे विशेष तौर पर इस कला फिल्म के लिए लाया गया था। तांगेवाला ऐसा लगता था जैसे किसी मुगलकालीन इतिहास की पुस्तक से फडफडाकर बाहर आया हो। उसने झुककर हीरो को सलाम किया,हीरो चुपचाप तांगे में बैठ गया। डॉयलागबाजी का कोई झंझट नहीं। कविवर मैथिलीशरण गुप्त के स्टाइल में देखें तो बन्द नहीं फिर भी चल रही थी फिल्म बेचारी का कार्यकलाप,पर कितने एकान्त भाव से कितना शान्त और चुपचाप। तांगा अत्यन्त धीरे धीरे चल रहा था। कहीं कोई जल्दी नहीं। दशर््क सिर धुने तो धुने,निर्देशक को लगभग डेढ घण्टा पूरा करना था। तांगा जंगल में पंहुच गया। ऐसा लगा कि शायद बीस साल बाद जैसी फिल्म का कोई सीन आएगा। किन्तु ऐसा कुछ नहीं हुआ और तांगा एक झोंपडी के आगे रुक गया।
हीरो ने बडे आहिस्ता से दरवाजे पर दस्तक दी। एक बुढिया ने दरवाजा खोला और बिना चेहरे पर किसी प्रकार की भाव भंगिमा के फिल्म का एक ही अकेला तथा अंतिम डॉयलाग बोलकर धन्य हो गई। डॉयलाग था-आप आ गए- और फिल्म समाप्त। कला फिल्म की एक और विशेषता होती है कि ये कहां से शुरु और कहां समाप्त हो जाए कोई नहीं जानता।
फिल्म समाप्त होते ही हम सभी दर्शक टाकीज से बाहर ऐसी तेजी से निकले जैसे पीछे कोई मुसीबत छोड कर आ रहे हो। चाय की दुकान पर एस्प्रो एनासिन लेना अनिवार्य हो गया। सुना था कि दो या तीन रविवार और कुछ कला फिल्मों का प्रदर्शन हुआ किन्तु दर्शकों के अभाव में कला फिल्म अभिरुचि संगठन बन्द करना पडा। ऐसा नहीं कि सभी कलात्मक फिल्में ऐसी ही खराब होती है,किन्तु इस फिल्म को देखकर हम इतने डर गए थे कि अच्छी कला फिल्मे देखने का भी साहस नहीं जुटा सके। निर्देशक ऐसी फिल्मे बनाकर क्या शिक्षा देना चाहते है? फिल्मे मनोरंजन के लिए होती है,न कि सिरदर्द उत्पन्न करने के लिए। ऐसे ही एक बंगाली निर्देशक ने मनमोहन देसाई की सुपर डुपर हिट फिल्म अमर अकबर एन्थोनी की आलोचना की तो देसाई ने कहा था कि यदि ये बंगाली बाबू कभी मुंबई में दिख गया तो इसकी धोती उतार लूंगा। खुद तो एक से एक बोर फिल्मे बनाकर जनता का समय और पैसा बर्बाद कर रहा है और मनोरंजक फिल्मों की आलोचना करता है। आखिर यथार्थ दर्शाने के नाम पर ऐसे निर्देशक क्या संदेश देना चाहते है? क्या यह कि आईए और बोरियत के साथ सिरदर्द भी पाईए। मजा तो ये है कि ऐसी फिल्में भी लोग पसंद करते है। आखिर मुण्डे मुण्डे मतिर्भिन्ना। पसंद अपनी अपनी खयाल अपना अपना।