November 16, 2024

नादानी के सहचर राहुल गांधी

प्रकाश भटनागर

यह कल्पना बचकानी लग सकती है। किंतु यह बेमानी नहीं है। नरेंद्र मोदी और अमित शाह प्रार्थना कर रहे होंगे कि राहुल गांधी अपनी वर्तमान क्षमताओं के साथ ही युग-युग तक कांग्रेस के कर्ताधर्ता बने रहें। राज्यसभा में उपसभापति चुनाव के नतीजे ने एक बार फिर दिखा दिया है कि गांधी दुश्मन के रूप में भी भाजपा को वह फायदा दिला सकते हैं, जो इस पार्टी के कई मित्र भी न दिला सकें। इसलिए प्रधानमंत्री और भाजपा अध्यक्ष की दुआओं में संभवत: यह प्रमुख रूप से शामिल होगा कि यदि आम चुनाव से पहले विपक्ष का महागठबंधन बनता है तो उसकी कमान भी राहुल ही संभालें।

बीके हरिप्रसाद की हार को राहुल की बेवकूफी, अकड़ या अति-आत्मविश्वास के बीच किसी फ्रेम में रखकर ही देखा जा सकता है। क्योंकि इनमें से ही किसी एक तत्व या इनके सम्मिश्रण के चलते हरिवंश जीत गए। राज्यसभा में एनडीए का बहुमत न होने के बावजूद।

राहुल की समस्या यह है कि वह समझदारी का परिचय बहुत बिरले ही दे पाते हैं, जबकि नादानी उनकी सहचरी-सी बन गई है। आम आदमी पार्टी खुलकर कह रही थी कि हरिप्रसाद के लिए समर्थन चाहिए तो राहुल उसके संयोजक अरविंद केजरीवाल से खुद बात करें। ऐसा नहीं किया गया। कांग्रेस अध्यक्ष ने पहले तो कहा कि इस चुनाव के लिए उनकी पार्टी प्रत्याशी ही नहीं उतारेगी। जब तृणमूल कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस ने अपने उम्मीदवार के लिए पहल की तो ऐन समय पर राहुल के पिटारे से हरिप्रसाद फुदककर बाहर आ गए। जाहिर है कि यह कदम बाकी दलों को नहीं सुहाया होगा। गांधी एक केजरीवाल से बात करने में कतराते रहे और नरेंद्र मोदी ने राजग के एक-एक घटक दल से स्वयं बात की। बाहरी मामले में उनके अनुरोध पर नीतिश कुमार ने बीजू जनता दल तथा वायएसआर कांग्रेस से संपर्क साधा। नतीजा यह हुआ कि जिस एनडीए के पास राज्यसभा में केवल 92 मत थे, उसका प्रत्याशी 125 वोट पाकर जीत गया। हैरत इस बात की कि उस बीजू जनता दल तक ने एनडीए का साथ दिया, जिसे अपने राज्य ओडिशा में अगले साल भाजपा से मुख्य चुनावी मुकाबला करना है। यह मोदी का जादू हो या न हो, लेकिन गांधी की नादानी को इसकी वजह जरूर कहा जा सकता है।

सच कहें तो इस समय कई कांग्रेसी ही शीला दीक्षित के सुर में सुर मिलाकर राहुल को इम्मैच्योर कहने की इच्छा को बलात दबा रहे होंगे। क्योंकि कर्नाटक के सियासी नाटक के बाद यह चुनाव ही वह मौका था, जिसमें विपक्षी एकता का सशक्त परिचय दिया जा सकता था। बीते कई मुख्य और उपचुनावों में कांग्रेस की करारी हार के बाद यह साफ होता जा रहा है कि राहुल में विपक्ष का नेतृत्व करने की क्षमता नहीं हैं। हरिवंश प्रसंग के बाद तो उन्हें इसके लिए अनफिट होने का अघोषित सर्टिफिकेट तक मिल गया है।

यह हार विपक्षी एकता से ज्यादा कांग्रेस की है। क्योंकि एकता तो अब तक आकार ही नहीं ले सकी है। आने वाले समय में यदि महागठबंधन ने आकार ले लिया, तब भी इस बात में पूरा संशय है कि राहुल का उसमें प्रभावी दखल रह सकेगा। हां, मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनाव में यदि कांग्रेस जीती, तो राहुल की स्थिति में सुधार आ सकता है। ऐसा होना भी मुश्किल लग रहा है। क्योंकि कांग्रेस के दिल्ली स्थित मुख्यालय के कुएं में जो भांग घुली हुई है, उसका असर राज्य इकाइयों तक भी पहुंच चुका है।
राहुल केवल दो बातें प्रभावी रूप से कर पाते हैं। बंद कमरे में बैठकर मोदी के खिलाफ ट्वीट और भाजपा-विरोधी किसी दल की जीत पर खुशी का इजहार। बाकी बंद कमरे से बाहर उनका खुलने वाला मुंह अक्सर किसी चुटकुले का सबब बन जाता है और कांग्रेस की भाजपा के खिलाफ जीत के उनके अधिकांश जतन किस कदर नाकाम रहे हैं, यह सबके सामने साफ है।
कर्नाटक में कांग्रेसी बैसाखी पर झूलते हुए सरकार चला रहे एचडी कुमारस्वामी ने कुछ समय पहले कहा था कि वह गठबंधन में जहर के घूंट पी रहे हैं। अब बसपा, वामपंथी दल, सपा, तृणमूल कांग्रेस, राष्ट्रवादी कांग्रेस, तेदेपा और राजग तो जहर का स्वाद चखने से रहीं। कर्नाटक की हांडी का एक चावल यह बताने के लिए पर्याप्त है कि गठबंधन धर्म से कांग्रेस का आशय किसी घोर अधर्मी आचरण से ही है। तिस पर अकड़ और बेवकूफी के चलते बीके हरिप्रसाद की हार का नया सोपान रचने वाले गांधी अपनी पार्टी का अन्य विपक्षी दलों के बीच यकीन कायम रख पाएंगे, कम से कम आज की तारीख में तो यह संभव नहीं दिखता है

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