न दूरी न मास्क बस एक टास्कः काले कानून वापस लो,मांगे मानने पर देश के हर व्यक्ति पर 2.30 लाख का खर्च
-पंडित मुस्तफा आरिफ
जिस खेत से दहकां को मयस्सर न हो रोजी। उस खेत के हर खोशा-ए-गंदूम को जला दो। आज दहकां यानि किसान परेशान है, मोदी सरकार द्वारा बनाये गये कानून को वापस लेने की मांग को लेकर दिल्ली घेर कर बैठे है। कोरोना काल में सभी दूरी और मास्क को तिलांजली देते हुए निर्भय होकर एक ही टास्क पर अङे है काले कानून वापस लो। पांच दौर की केंद्र सरकार के साथ बैठक के उपरांत कोई निर्णय नहीँ हो पाया है। किसान अडिग है सरकार पर दबाव बना रहा है कि इन काले कानूनों को वापस लिया जाए। लेकिन सरकार भी अडिग है कुछ सुधारने को तत्पर है लेकिन कानून वापस लेने को तैयार नहीँ हैं। अब उनकी अगली योजना दिल्ली को चारों ओर से घेर कर सारे रास्ते बंद करनें की हैं। 8 दिसम्बर को भारत बंद का आवाह्न है। किसानों के समर्थन में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी आवाज उठने लगीं है। कनाडा के प्रधानमन्त्री जस्टिन ट्रूडो और ब्रिटेन के 36 संसद सदस्य खुलकर समर्थन में सामने आ गये है। संयुक्तराष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेश के प्रवक्ता ने भारत में किसानों के प्रदर्शन पर कहा कि लोगों को शांतिपूर्ण तरीके से प्रदर्शन करने का अधिकार है और सरकार को उन्हें ऐसा करने देना चाहिये।
किसानों के काले कानून वापस लेने का आंदोलन जल्दी समाप्त हो ऐसा नहीँ दे रहा है। लगता है इसकी परिणति भी 1974 में जार्ज फर्नांडीज के आंदोलन जैसी दिखाई दे रहीं है। 1973 मे आल इंडिया रेलवेमेंस फैडरेशन के चेयरमैन चुने गये थे श्री फर्नांडीज। इंडियन रेलवे में उस वक्त 14 लाख कर्मचारी यानि देश के कुल संगठित क्षेत्र के 7 फीसदी लोग काम करते थे। रेलवे कामगार कईं सालो से कुछ जरुरी मांग कर रहें थे, पर सरकार उन पर ध्यान नहीँ दे रहीं थीँ। ऐसे में जार्ज ने आठ मई 1974 को देश व्यापी रेल हड़ताल का आवाह्न किया, रेल का चक्का जाम हो गया, कईं दिनों तक रेलवे का सारा काम ठप्प रहा, न तो कोई आदमी कहीँ जा पा रहा था, न सामान। पहले तो सरकार ने इस पर ध्यान नहीं दिया, लेकीन यह यूनियनो का स्वर्णिम दौर था, सारी यूनियन एकजुट हो गयीं। सरकार की जान सकते में आ गयी। ऐसे में उसने पुरी कङाई के साथ आंदोलन को कुचलते हूए 30 हजार लोगों को गिरफ्तार कर लिया, जिसमे जार्ज फर्नांडीज भी शामिल थे। हजारो लोग नोकरी और मकानों से बेदख़ल कर दियें गयें। सेना भी बुलाना पङी, इसका असर दिखाई दिया और तीन सप्ताह में हड़ताल ख़त्म हो गयी। इसका खामियाज़ा तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्रीमति इंदिरा गाँधी को भुगतना पड़ा और वो फिर जीते जी कभी भी मजदूरों और कामगारों के वोट नहीँ पा सकी। कृषि कानून की वापसी की मांग भी कमोबेस इसी प्रकार की हैं। यहीं वजह एनडीए के ऐसे घटक जिनके वोट का आधार किसान है, वो भयभीत होकर साथ छोड़ रहैं है। ऐसे मे इसका हल या तो भाजपा भी वोट के भय से ऊपर उठकर इंदिरा गाँधी का रास्ता अपनाएं या कानून वापस ले ले। दोनो रास्ते भाजपा के लिये जोखिम व कांटो भरे है ।
हमें उपरोक्त दोनों परिस्थितियों के मद्देनज़र किसानों के इस आंदोलन की विवेचना करना होगी। इसके पहले इस बात को भी ध्यान रखना होगा के इस कानून के भाजपा सरकार द्वारा बनाने से पहले कांग्रेस सरकार का रवैया किया था, क्या कांग्रेस इस प्रकार की व्यवस्था के पक्ष में थी? पिछले संदर्भ और रेकार्ड खंगालने पर इसका जवाब हाँ में ही मिलेगा । कनाडा मुखर है जबकि अंतर्राष्ट्रीय मंच पर कृषि को लेकर भारत के विरोध में जो 14 सूत्र दिये थे, उसमें कृषि उपज पर अनुदानों की वापसी प्रमुख मुद्दा था। इन कानूनों की डार्क साइड सिर्फ़ यहीं है कि सरकार ने कानून बनाने से पहले आम सहमति नहीँ बनाई या बिल्ली के गले में घंटी नहीँ बांधी। नहीं तो न अकाली अलग होते और न किसान आक्रोषित होते, कुछ संशोधनों के साथ कानून बन जाते। सरकार को अब कानून वापस लेकर आम सहमति की प्रक्रिया दोहराना पड़ेगी। अगर साफ स्पष्ट और देश हित की बात की जाएं तो, इस बात को स्वीकार करना पडेगा इस प्रकार के कानूनों में लोक कल्याण व देशहित निहित है। अन्यथा देश आर्थिक विपन्नता के दलदल में धंसता चला जाएगा। राजनैतिक दलो कि अपनी विवशताएं है, लेकिन सरकार को इन विवशताओं से परे देश हित में काम करना चाहिए।
इस आलेख की इस बात पर गौर करना जरुरी है कि इस प्रकार के कानूनों में लोक कल्याण व देशहित निहित है। किसान सरकार द्वारा तय एमएसपी पर फसलों की गारंटी की मांग कर रहें है। इसकी गारंटी देने पर सबसे बङी मुश्किल यह है कि सरकार को बजट का एक बङा एमएसपी पर ही खर्च करना होगा। विशेषज्ञों के अनुसार एमएसपी पर सारी फसल का कुल खर्च आज के रेट के हिसाब से करीब 17 लाख करोड़ आएगा, जो कि सरकार के बजट का एक बङा हिस्सा होगा। इसके बाद एक लाख करोड़ रूपये फर्टिलाइजर सब्सीडी और एक लाख करोड़ रूपये फूड सब्सिडी यानि खाद्यान्न अनुदान पर खर्च आएगा। भारत सरकार ने वित्त वर्ष 2020-21 में 30,42,230 करोड़ का प्रावधान रखा है, जोकि 2019-20 के संशोधित अनुमान से 12.7 फीसदी अधिक है। देश की आबादी को 130 करोड़ मानते हुए गणना की जाएं तो प्रति व्यक्ति 2 लाख 31 हजार रुपये का प्रावधान होता है। यानी हमारे घर में राशन पहुंचे, हम भूखे न सोएं इसलिये सरकार को प्रति वर्ष इतनी राशि अन्नदाताओं को देना होंगी।
ये कथन आम है कि भारत कृषि प्रधान देश हैं, लेकीन पिछले 70 सालो का अनुभव कहता है कि भारत कृषि प्रधान नहीं अपितु कुर्सी प्रधान देश हैं। यहाँ वो सब किया जाता है जो सत्ता पर काबिज होने के लिये जरुरी है। देश की 85% जनता गांवों में रहतीं है, इसलिए उनकी राजी नाराजगी ही सत्ता प्राप्त करने का एक मात्र माध्यम है, वो अन्नदाता के साथ मतदाता भी हैं। इसलिये सरकार पर कब्ज़ा जमाने के लिये इनको वश में करना जरुरी है। कनाडा की विवशता भी कहीं न कहीं मतदान की राजनीति हैं। भाजपा सरकार ने कश्मीर से 370 हटाकर केंद्र शासित राज्य बनाने, नागरिकता संशोधन कानून बनाने और सबसे महत्वपूर्ण प्रभु श्रीराम के मंदिर निर्माण का काम प्रारंभ कर, अति उत्साह की इसी श्रृंखला में जल्द बाजी में कृषि सुधारों के मद्देनज़र कृषि कानून बना कर अनावश्यक रूप से एक झंझट मोल ली है। राजनैतिक दलो कि विवशताओं को दर किनार करते हुए यदि देश हित की बात करें तो देश के लिये जरूरी है वो काम तो करना होँगे, परंतु उसके लिये संयम और विवेक का रास्ता अपनाना होगा। जल्दबाजी हर हालत में घातक है। देश की प्रगति और विकास के लिए ये गंभीरता आवश्यक है। अन्यथा आगामी चुनावों में प्रगति और आर्थिक विकास की जगह भाजपा के नेताओं को आदतन हाथ में कटोरा लेकर राम नाम पर वोट की भीख मांगना होंगी। और देश के धर्म प्रेमी इन सत्ता भक्तों की बात मान कर परंपरा का निर्वहन कर लेंगे।