आतंकवाद के कारणों पर चर्चा भी पूर्वाग्रहों से ग्रस्त
-डॉ.रत्नदीप निगम
फ़्रांस की राजधानी पेरिस पर आतंकवादी हमला होना पूरी दुनिया के लिए चिंता और चिंतको के लिए चिंतन का विषय बन गया है । वैसेआतंकवाद पर अलग अलग देशो की तरह चिंतको की भी अलग अलग राय है । एक लोकतांत्रिक देश के नागरिक होने के नाते इस मत भिन्नता को दुनिया के लोकतान्त्रिक स्वरूप का स्वागत करने का मन करता है लेकिन इन। लोकतान्त्रिक स्वरों से बेसुरे सुर निकलकर आ रहे है वह लोकतंत्र का नहीं अपितु सभ्यताओं के संघर्ष की कर्कश ध्वनि है । हमारे देश मेभी यह ध्वनि सुनाई दे रही है । आदर्श स्तिथि तो। यह होगी कि हम कहे यह चिंता और चर्चा हमारे वसुधैव कुटुम्बकम् के संस्कार और स्वभाव के कारण हो रही है लेकिन हमारे यहाँ आदर्श की बात करना पुरातनपंथी होना माना जाता है , इसलिए इस आदर्शवाद के प्रति असहिष्णु होते हुए हम इस पर विचार करे कि आखिर भारत के मिडिया एवम् बुद्धिजीवी समूहों में इस अंतर्राष्ट्रीय विषय पर चर्चा का वास्तविक और व्यवहारिक कारण क्या है ? आज की शब्दावली में इसे हिडन एजेंडा भी कह सकते है ।
पेरिस हमले के बाद से लगातार मिडिया चैनलो को सुनने और समाचार पत्रों के आलेखों को पढ़ने के बाद यह स्पष्ट होता जा रहा है कि चिंता का केंद्र आतंकवाद नहीं अपितु जिस नाम पर वैश्विक आतंकवाद हो रहा है उस नाम और उस विचार के प्रति भारत का आधुनिक युवा क्या देख रहा है और क्या समझ रहा है ? इसलिए इस्लाम की महानता से लेकर अमेरिका के आचरण तक पर तर्क उसी स्टाइल में दिए जा रहे है जैसे सेकुलरिज्म को लेकर दिए जाते है । ख़ैर हमारा यहाँ विषय सेकुलरिस्म नहीं अपितु पेरिस हमले को गलत ठहराते हुए इसके लिए अमेरिका को दोषी बताकर अपना दामन पाक साफ बताने की मंशा पर ध्यान दिलाना है ।
कहा जा रहा है कि आज जो आतंकवाद हमें विश्व में दिख रहा है उसका जन्मदाता अमेरिका है क्योंकि उसने अपने स्वार्थ के लिए इन्हीं आतंकवादियो को कभी हथियार , पैसा और ट्रेनिंग दी थी । इसलिए बोये हुए विष बीजो का ही यह वृक्ष है । यदि इस तर्क को मान लिया जाये तो हथियार , पैसा और प्रशिक्षण देने वाले अमेरिका ने इन्हें कोई पवित्र पुस्तक भी दी थी क्या ? क्या अमेरिका के पास जेहाद की शिक्षा देने के लिए इतने धर्म गुरु थे क्या ? क्या अमेरिका किसी पवित्र पुस्तक की व्याख्या अपने मनमाने ढंग से कर सकता था क्या ? यदि यह भी मान ले कि यह सब अमेरिका कर रहा था तो यह वर्ग जो आज अमेरिका की आलोचना कर रहा है , कहाँ था और उस समय इस्लामिक मुल्को ने उसका साथ क्यों दिया ? अमेरिका के कुकर्मो का साथ देने वाले मुस्लिम मुल्को के विरुद्ध एक भी आवाज क्यों नहीं आ रही है ? इन प्रश्नो के उत्तर कदाचित् नहीं मिले लेकिन यह स्पष्ट हो जाता है कि आतंकवाद जैसे अति गंभीर विषय पर भी हमारे देश में चर्चा और चिंतन वैचारिक पूर्वाग्रहों के दड़बे में बैठकर ही की जाती है । जिस तरह घर घर सोवियत नारी की पुस्तके बाँट कर और पाठ्यक्रमों , विश्वविद्यालयों में अमेरिका के प्रति नफरत सिखाई गयी है वही नफरत मिडिया चैनलो के एंकरों और समाचार पत्रो के संपादको में तर्क के आवरण में दिखाई दे रही है । यहाँ मेरा आशय अमेरिका को कोई प्रमाण पत्र देना नहीं है क्योंकि हम जानते है कि अमेरिका ने क्या किया है लेकिन इसे लेकर यह तर्क देना बिल्कुल उचित नहीं है कि सिर्फ अमेरिका ही विश्व अशांति का कारण है । यदि इस समूचे विमर्श को भारतीय संदर्भो में देखा जाये तो क्या यह तर्क हमारे गले उतरेंगे कि लिट्टे को पैसा , हथियार और ट्रैनिंग किसने दी और उसके प्रति फल में राजीव गाँधी की हत्या उचित थी क्योंकि यह बीज उन्होंने ही बोया था । पंजाब में अकालियों से लड़ने के लिए भिंडरावाले को सहयोग और बढ़ावा किसने दिया और उसके परिणाम स्वरुप इंदिरा गाँधी की हत्या भी उसी तरह उचित है जैसे अमेरिका और यूरोप पर हमले । एक कुतर्क यह भी दिया जा रहा है कि नक्सलियों को क्या हिन्दू आतंकवादी कहेंगे ? ये तर्कशास्त्री बताएँ कि नक्सलियों ने कब अपनी गतिविधियों को हिंदुत्व के आधार पर दर्शाया जबकि देश और दुनिया में हमले करने वाले आतंकवादी इस्लाम का नाम लेकर यह सब कर रहे है । इन नक्सलियों को जो हथियार और पैसा जो देश दे रहे है उनके खिलाफ इस देश में कोई आवाज क्यों नहीं सुनाई दे रही ? नेपाल में माओवादी आतंक को पैसा , हथियार और ट्रेनिंग देने वाले देश के प्रति भी हमारा आचरण वैसा क्यों नहीं है जैसा अमेरिका के प्रति है जबकि दोनों ही गलत कार्य करते है । यह दोहरा व्यवहार अमेरिका ( पूंजीपति ) और यूरोपीय राष्ट्रों के प्रति हीन ग्रंथि से प्रेरित है ।
इसी से सम्बंधित रोज एक उपदेश सुनने को मिल रहा है कि इस्लाम भाईचारे का मजहब है । इस उपदेश से कोई असहमति नहीं है लेकिन यह समझ में नहीं आ रहा है कि इन आतंकवादी हमलो से , उनके अत्याचारो से त्रस्त होकर मुस्लिम शरणार्थी के रूप में ईसाई देशो में क्यों जा रहे है ? जबकि सऊदी अरब , तुर्की , जॉर्डन , बहरीन , ओमान , संयुक्त अरब अमीरात , कुवैत , ईरान तो विशुद्ध मुस्लिम मुल्क और पडोसी देश है । तो फिर यह देश अपने मुस्लिम भाइयों से भाईचारा क्यों नहीं रख रहे है ? क्या यह भाईचारे के उपदेश उसी तरह के है जैसे हमारे देश में असहिष्णुता और धर्मनिरपेक्षता के उपदेश अर्थात् इसके उपदेशकों पर यह लागू नहीं होगा लेकिन दूसरों को जरूर मानने पर मजबूर किया जायेगा । पेरिस हमले से लेकर भारत पर होने वाले आतंकवादी हमलो को अप्रत्यक्ष शाब्दिक समर्थन देना भी आतंक से लड़ने की हमारी इच्छाशक्ति पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करती है ।