Scientific Heritage : भारत की वैज्ञानिक विरासत कुम्भ मेला
-डॉ चंद्रप्रकाश त्रिवेदी
महाकुम्भ वह क्षण है जब सृष्टि की प्राग्वस्था मे आकाषिय समुद्रमंथन मे अतिउच्च तापक्रम पर जीवन घटकुम्भ जीवन यंत्र आधुनिक अविताषी डीएनए का संयोजन संकलन हुआ और सनातन जीवन का कारक अमृत आकाषिय समुद्र से बंदुक की गोली के समान क्षरित हुआ। पृथ्वी पर जीवन हेतु अनुकूल परिस्थितियों के निर्मित होने पर अविनाषी स्वरतरंग सरस्वती ने अपनी समानुपाती अनुर्द्धेय तरंग ने सनातन जीवन के कारक जीवघट कुम्भ मे जीवन की धारा को गंगा की धारा के समान तीव्रगति से बह निकली और पहला जीव जीवन की तीन अवस्था के साथ अस्तित्व मे आया और सरस्वती की स्वरतरंग सहस्त्रो धाराओं मे जीवन का महाकुम्भ के साथ जीवन समुद्र मे बहरही है। जिसे पृथ्वी पर जीवन का महाकुम्भ जीवघट का मेला जहां जीव विकास की विभिन्न 84 लाख योनियों को पार करता हुआ मनुष्य योनि मे पहुंचा है। जिसका उद्देष्य है जन्म मत्यु के चक्र से मुक्ति। इस परम्पद को प्राप्त करने के लिए जीव बार बार जन्म लेता है।
पृथ्वी पर जीवन सूर्य से आ रही प्रकाष किरणे जो ध्वनि और स्पंदन के साथ दो नदी की धारा के समान आपस मे टकराते हुए समानांतर गति करते हुए अपने गंतव्य समुद्र मे मिलने हेतु आतुर है। वैसे ही जावनघट कुम्भ मे जीव का जीवन तीन अविनाषी का संगम है। अनन्त आकाष मे आकाष की उत्पत्ति हिग्स फिल्ड आधारिय आकाष से मुलभूत कणो को भार प्राप्त हुआ और ग्रहनक्षत्र बने। जो सबके अस्तित्व का कारण है। मुलभूत कणो को स्वरतरंग सरस्वती एक सूत्र मे बांधती है। यह अद्दष्य अविनाषी स्वरतरंग वाक् जीव का धारणपोषण और नियंत्रण करती है और जीव का पीढी दर पीढी नए जन्म के साथ अनुसरण करती है कि जीवन सनातन है। प्रयागराज मे महाकुम्भ जीवन मेला गंगा यमुना और गुप्त गंगा सरस्वती का संगम है कि जीवन तीन अविनाषी का संगम है। गुप्त गंगा स्वरतरंग वाक् अपनी समानुपाती अनुर्द्धेय तरंग सरस्वती धारण पोषण और मन बुद्धि मे परिस्थिति अनुसार उत्पन्न विचारो के अनुसार क्रिया करता है और सरस्वती स्वरतरंग कर्मानुसार जीव का नियंत्रण करती है।
सनातन जीवन के ज्ञान को संरक्षित करनम हेतु प्रयागराज संगम तट पर जीवो का समागम कुम्भ मेला आयोजित होता है। जो यह स्मरण कराता है कि पहला मानव और पहली सुसंस्हृत सभ्यता का साक्षी भारतीय उपमहाद्वीप है। जो गहरे समुद्र टेथिस सी समुद्र मे हिमालय पर्वत श्रंखला के अस्तित्व मे आने से विष्व के षेष भाग से कट गया। इस भूभाग मे सृष्टि और जीवन के प्रत्येक पहलू पर गहन वैज्ञानिक षोध किया गया जो सृष्टि ज्ञान की पराकाष्ठा है कि जीवन की हर पीढी नई है उसका अनुसरण अक्षर षब्द स्वरतरंग दये जीवन के साथ अनुसरण करते है। इस ज्ञान को स्वरोघात पद्धति से वेदो की ऋचाओं मे षब्दसकेत के माध्यम से समाहित किया जहां प्रत्येक षब्दसंकेत ऋचा मे ज्ञान का अथाह भंडार है जिसका ज्ञान वेदो की पदपाठ ऋचाओं मे मिलता है जिन्हे स्वरोघात द्वारा पीढी दर पीढी श्रुति स्मृति की परम्परा द्वारा संरक्षित किया गया जो आज अपने मूलरूप मे हम तक पहुंचे है। यह विष्व के लिए आष्चर्य जो विकास की दोड मे अभी बहुत पीछे आस्था विष्वास तक सिमीत है। और वेदिक परम्परा को आस्था विष्वास के चष्मे से देखते है। जिसका अनुसरण आधुनिक वैज्ञानिक और बुद्धिजीवी करते है। जिनके लिए वेद अनबुझ पहेली है और डीएनए तथा हिग्सफिल्ड गॉडपार्टीकल को आधुनिक खोज समझते है।
वेदो की ऋचाओं मे षब्दसकेत के माध्यम से समाहित किया जहां प्रत्येक षब्दसंकेत ऋचा मे ज्ञान का अथाह भंडार है। सृष्टि का सांगोपांग पूर्ण ज्ञान होने पर ही वेदो को समझा जा सकता है। सृष्टि और जीवन के ज्ञान को वेदो की ऋचाओं मे षब्दसकेत के माध्यम से समाहित किया गया जहां प्रत्येक षब्दसंकेत ऋचा मे ज्ञान का अथाह भंडार है। इन स्वरषब्द संकेतो को मंदिरो की दिवारो और खम्बो पर उकेरा गया मुर्तियां सकेत मात्र है। अज्ञानी को यह चित्रकारी लगती है। जिसे आक्रांता नष्ट नही कर पाये। जो आज भी भारतीस संस्कृति का गुणगान कर रही है।