कुतुब परिसर हमारी वैदिक विरासत,प्राचीन वैदिक भारत का वैभव लौह स्तम्भ दिल्ली
-डा. सीपी त्रिवेदी
लौह स्तम्भ, जो सदियों से अक्षुण्ण, अटल, अचल भारत की गौरव गाथा का परचम लहरा रहा है। वैदिक प्राचीन भारत का वैभव लौह स्तम्भ, दिल्ली कुतुब मीनार परिसर मे स्थित लौहे का आष्चर्य जनक स्तम्भ है, जिस पर आज तक जंग नही लगी और न कौई इसे हिला सका। मुस्लिम आक्रान्ताओं ने इसे नष्ट करने के असंख्स प्रयास किए और हारकर आस पास के 27 जैन और हिंदू मंदिरो को तोड कर मस्जिद का निर्माण कराया। यह कहा जाता है कि कुतुबुद्दीन एबक ने इन पत्थरों से कुतुब मिनार का निर्माण कराया। परिसर मे आज भी गणेष और देवताओं की मुर्तियाॅ तथा दिवारों पर यंत्र अंकिंत है। लौह स्तम्भ मौर्य कालीन है, जो वैदिक संस्क्रति की वाहक थी, स्तम्भ पर अंकित चित्र स्ष्टि निर्माण का रहस्य वर्णन करते है कि एक मौलिक ऊर्जा से स्ष्टि का निर्माण हुआ, जो सर्वत्र व्याप्त और सर्वषक्तिमान है, जिसे विष्व मे एकेष्वरवाद के रुप में ग्रहण किया गया। इससे कहा जा सकता है कि यह वैदिक परिसर था।
इस वैदिक ज्ञान का स्रोत कौई अलौकिक सेदेष नही वरन् यथार्थ के वैज्ञानिक धरातल पर इसे विज्ञान की कसौटी पर सिद्ध किया गया, तत्पष्चात यह ज्ञान परम्परा के माध्यम से पल्लवित हुआ, जो आज भी हमारे भारतीय जीवन मे रचा बसा है। परन्तु विडम्बना यह है कि वेद ज्ञान को हमने ऋषियों के ध्यान की उपज और पाष्चात्य संस्कृति की आंधी मे वेदो को धर्म ग्रंथ की श्रेणि मे रख दिया।
भारत के प्राचीन गौरव को नकारने के लिए लार्ड मॅकाले ने इसे हिन्दू नाम दे दिया और भारत विभाजन के गहन अंधकार से ग्रस्त हो गया। इसे स्वीकार कर हमने विष्व मे विज्ञान के स्रोत का स्वयं ही अवमूल्यन कर दिया, जिन्हे सिर्फ विज्ञान के परिप्रेक्ष्य मे ही समझा जा सकता है।
इसे किसी धर्म का नाम देना भारतीय संस्क्ति का अवमूल्यन है। वेद मानव सभ्यता के प्राचिनतम ग्रंथ है, जो प्थ्वी पर सुसंस्क्त मानव का प्रथम ष्षब्द है, जो पृथ्वी पर मानव मात्र की विरासत है।
लौह स्तम्भ पर उकेरी इबारत से पता चलता है कि इसका निर्माण चन्द्रगुप्त द्वितीय के समय हुआ जब भारत उन्नति के षिखर पर था। इसका निर्माण कहा जाता है उदयगीरी विदीषा मे हुआ और वहाॅ से दिल्ली लाया गया।
भारत का गौरवषाली अतीत भारत का आधार है, सैकडो सालो की गुलीमी ने इसे नेस्तनाबुत करने के असंख्य प्रयत्न किए, परन्तु यह कालजयी संस्कृति आज भी जीवित है। जो कवि इकबाल के षब्दो का जीवंत प्रमाण है।
बाकी मगर है अब तक नामो निषां हमारा,
कुछ बात है कि हस्ती मिटती नही हमारी
सदियों रहा है दुष्मन दौरे जमाॅ हमारा।
जिस वेद ज्ञान ने विष्व को आलोकित किया, वही आज अज्ञान के अंधकार से ग्रस्त है। वैदिक प्राचीन भारत का वैभव भारत एक खोज
वैदिक प्राचीन भारत का वैभव लौह स्तम्भ, दिल्ली कुतुब मिनार परिसर मे स्थित लौहे का आष्चर्य जनक स्तम्भ है, जिस पर आज तक जंग नही लगी और न कौई इसे हिला सका। हारकर कुतुबुद्दीन एबक ने कुतुब मिनार का निर्माण कराया। स्तम्भ पर उकेरी इबारत से पता चलता है कि इसका निर्माण चन्द्रगुप्त द्वितीय के समय हुआ जब भारत उन्नति के षिखर पर था। इसका निर्माण कहा जाता है उदयगीरी मे हुआ और वहाॅ से दिल्ली लाया गया। चन्द्रगुप्त द्वितीय के समय ही हिलीयोडोरस ग्रीक साम्राज्य से चन्द्रगुप्त के दरबार में राजदूत था उसने बेसनगर विदिषा मे हिलीयोडोरस स्तम्भ का निर्माण करवाया 113 बी सी ई जो चन्द्रगुप्त द्वितीय के काल मे हुई उन्नति और ज्ञान का प्रमाण है, जो वह अपने साथ ग्रीक ले गया जिसकी स्वीक्ति और पावती के हेतु हिलीयोडोरस स्तम्भ का निर्माण करवाया। जो यह संदेष देता है कि जीवन तीन अविनाषी तत्वो का संगम है।
1, अविनाषी आकाष जिसके एक भाग से मूल भूत कणों कां भार प्राप्त हुआ, जो सबके अस्तित्व की पहचान है।
2, अविनाषी अष्विन, डीएनए का न्युक्लियोटाईड जोडाॅ, अविनाषी सूक्ष्म ध्वनि तरंग के साथ सभी जीवों के जीवन का कारण है।
3, प्रकाष संष्लेषण की अविनाषी रासायनिक ऊर्जा, जो सभी जीवों मे जीवन का आधार है।
इन्हे तीन अमृत त्रिणी अमृत पदानि कहा गया है।
1, अविनाषी आकाषिय भाग से मूल भूत कणो को भार प्राप्त हुआ।
2,अविनाषी अष्विन डीएनए का न्युक्लियोटाईड जोडा प्यूरीन और पायरीमिडीन क्षार तीन अविनाषी और जीवन की तीन अवस्था के साथ हवा मे विभाजित होते है, जैसे आईने मे छवि इनमे सिर्फ नायट्ोजन का अंतर होता है।स्ष्टि निर्माण की खगोलिय घटना के सरथ ये सूर्य से क्षरित हूए। इनमे स्वतः सम्च्रेषण और अनुवाद समय के साथ यांत्रिक होता है। जो विचार और क्रिया के रुप मे परिलक्षित होता है।
जीवन तीन अविनाषी का संगम है। जिसे तीन अक्षर बोलिएं के द्वारा अभ्व्यिक्त किया गया है। अक्षर जो प्रकसष से पहले है। जो इस कोषा मे दूध के द्वारा अम्त उत्पन्न करता है। और षषक्तिषाली व्षभ मौलिक ऊर्जा,अवतरित होती है, जो जीव तगत का आधार ह।
हे सरस्वती, तुम्हारा स्वरूप विराट है, जैसे विष्णु, हे सरस्वती, हे सिनीवाली इसे अच्छि संतान दो, जो इसके हित मे हो। सरस्वती विचार वाक् को सम्बोध्न है, तथा सिनीवाली गर्भ मे विभाजित होने वाले डीएनए को कहा गया है।
1ण् डंल टपेीदन वितउ ंदक उवसक जीम ूवउइए उंल ज्अंेीजं कनसल ेींचम जीम वितउेण्
च्तंरींचंजप पदनिेमे जीम ेजतमंउ ंदक कंजं संल जीम हमतउ वित जीममण्
1. May Vishnu form and mold the womb, may Tvashta duly shape the forms.
PrajÈpati infuses the stream and data lay the germ for thee.
2- SinÏvali set the germ, set thou the germ SarasvatÏ. May the twain gods bestow the germ. The Ashwins crowned with lotuses.
3. That which Ashvins the Twain rub forth with the attrition stock of gold that germ of thine we invoke that in the tenth month thou may bear.Rig.10-184-1, 2, 3
यह अभिव्यक्त किया गया है कि डीएनए, गर्भ मे भ्रुण को आकार प्रदान करता है, औैर अविनाशी प्रजापति जीवन की धरा प्रदान करता है, जिसे विष्णु भोजन द्वारा गर्भ मे पोषित करता है। यह तीन भ्रुण को पैतृक रूप से प्राप्त होते है।
तदनुसार सरस्वती – वाक्-विचार विभाजित हो रहे डीएनए के मन संकेत को उत्प्रेरित करती है।
जो संयुक्त होकर भ्रुण के भाग्य को अंकुरित करते है। तद्नुसार अश्विन – डीएनए के न्यूक्लियोटाइड जोडे, जो एक दूसरे के पूरक है। ये पल्लवित होकर भ्रुण को कमल के समान प्रस्फ्रफुटित करते है।
इसे ही अश्विन स्वर्ण के समान शोध्ति कर पूर्ण आकार प्रदान करता है। उत्तम संतान के लिऐं, दस माह मे अंकुरित, इस बीज का यहांॅ आह्नान किया गया है।
नवीन जीवन का सनातन संदेष
ध्वनि के सात स्वर प्रकाष की सात दृष्य किरणो के समान विपरीत गुणो वाली अनुद्र्धेय तंरंगे है, जिसका स्पेक्ट्म प्रकाष के स्पेक्ट्म के समान ही परन्तु विपरीत गुण वाला है, जो एक दूसरे के पूरक है, यह ष्षब्द, विचार और क्रिया के रुप मे विकसीत हुए है।
सृष्टि का उद्भव और विकास ऊर्जा के उष्मा सम्बंधी सिद्धान्तो के अंतर्गत एक मौलिक ऊर्जा से हुआ। योगिक मुद्रा मे पुरूष की आकृति वाली सील पर उत्किर्ण इबारत जीव जगत के विकास को दर्षाती है। पुरूष सूक्त ऋग्वेद 10-90 एक मौलिक ऊर्जा से सृष्टि का उद्भव और विकास ऊर्जा के उष्मा सम्बंधी सिद्धान्तो के अंतर्गत एक मौलिक ऊर्जा से हुआ है, जो आज भी प्रासंगिक है। इसके साथ ही मौलिक ऊर्जा अपने द्विस्वभाव ध्वनि और प्रकाष के माध्यम से कार्यरत है। डीएनए जीव का यंत्र है, जिसे वाक्ध्वनि क्रिया हेतु प्रेरित करती है,जिसे सरस्वती कहा गया है।
मौलिक ऊर्जा की कल्पना पुरूष रूप मे करते हंए, उसके हजारो हाथ, हजारो आंॅखे, और हजारो पावॅ के द्वारा मौलिक ऊर्जा की सर्वत्र उपस्थिति का संकेत दिया गया है
यह कहते हुए कि जो कुछ भी था, और जो कुछ भी है, वह यह मौलिक ऊर्जा ही है, इसके द्वारा मौलिक ऊर्जा के सनातन अक्षय स्वरूप को बताया गया है कि मौलिक ऊर्जा नष्ट नही होती। भोज्य पदार्थो – अन्न के द्वारा इसकी वृद्धि होती है। अर्थात अन्न संकेत है, कि ऊर्जा के रूपान्तरण के द्वारा इसकी वृद्धि होती है, यह द्दष्य जगत उसका एक चैथाई भाग है। औरतीन चैथाई सनातन अमृत का भाग होकर ब्रह्माण्ड मे उपर है। यह कह कर मौलिक ऊर्जा के अनन्त भण्डार की तरफ संकेत किया गया है।
यह कहते हुए कि उसका एक भाग बार बार उत्पन्न होता है। वह प्रत्येक दिषा मे जीव और अजीव के रूप मे फैला। यह ऊर्जा के रूपान्तरण की तरफ संकेत है। ऋग्वेद 10-90-1 से 4इसे ही ऋग्वेद के प्रथम मंत्र मे अभिव्यक्त किया गया है।
मै उस मौलिक ऊर्जा का आह्नान करता हूं, जो इस सृष्टि यज्ञ का कर्ता धर्ता और रत्नो की खान है। ऋग्वेद 1.1.1
सृष्टि का विकास एक मौलिक ऊर्जा से हुआ है, जो हाथी के समान स्थिर है। मौलिक ऊर्जा अपने द्विस्वभाव प्रकाष फोटाॅन और फोनाॅन सूक्ष्म ध्वनि के अंतर्गत क्रियाषील है। फोटाॅन प्रकाष की सूक्ष्मतम इकार्द है और फोनाॅन ध्वनि की सूक्ष्मतम इकाई है। फोनाॅन सूक्ष्म ध्वनि अविनाषी है जो फोटाॅन को क्रिया हेतु प्रेरित करती है और सूक्ष्म प्रकाष फोटाॅन का समय के साथ संष्लेषण और विघटन होता है। आईंस्टीन के सूत्र म् त्रडब2
सृष्टि का आधार परमाणु के चार घटक इलेथ्ट्ान, प्रोटाॅन, न्यूट्ान और ऊर्जा है। तथा जीव जगत का आधार डीएनए के चार क्षार एडेनीन, ग्वानीन, थायमीन और सायटोसीन है।
अनन्त संसार के मध्य में और सृष्टिरूपी गहन समुद्र के पृष्ठ में वह महान् यक्ष के समान खड़ा है, जो कुछ भी इस सृष्टि में है, ये सभी उसके, वृक्ष की षाखाओं के समान है।
इस प्रकार संसार वृक्ष जिसका मूल ब्रह्माण्ड में है और अविनाशी ब्रह्म-सोम अक्ष है, जिसे आध्ुनिक विज्ञान मंे गुरुत्वाकर्षण चुम्बकीय आकर्षण कहा गया है और जो स्थिर और सर्वव्याप्त है, यह सृष्टि का आधर है, जो सबका धरण पोषण करता है। सभी चर-अचर इससे जुड़े हुए हंै।
मौलिक ऊर्जा अपने द्विस्वभाव फोटॅान और फोनाॅन के द्वारा क्रियाषील है। वाक् षब्द मन मे विचारों का स्फुरण करते है। डीएनए जीव का यंत्र है, जिसे वाक्ध्वनि सरस्वती क्रिया हेतु प्रेरित करती है, और अष्विन, डीएनए के न्युक्लोटाईड कोडे कमल के फुल के समान जीव को आकार प्रदान करता है। इसे लौह स्तम्भ के षिर्ष टापॅ पर खिलते हुए कमल के रूप मेअभिव्यक्त किया गया है।
वाक्,स्वर ध्वनि को सरस्वती कहा गया है, जो दिमाग मे विचारो की प्रेरक है।
मौलिक ऊर्जा अपने द्विस्वभाव फोटॅान और फोनाॅन के द्वारा क्रियाषील है।
Both their father are also their son; both the chief are also the meanest (Kani–—ha) of them; the one god, who has entered in to the mind, born the first, and he within the womb. (Ath. 10.8.28)
दोनों पिता भी हैं और पुत्रा भी हैं। दोनों वरिष्ठ भी हैं और कनिष्ठ भी। एक देव मन में और वही गर्भ में प्रविष्ट हुआ।
जिसका अनुसरण विद्युत्-इन्द्र करता है। यह सृष्टि का आधर है। जिसे सांकेतिक रूप मे स्तन, दूध् कहा गया है, जो सृष्टि को दूध् की सतत् धरा के समान पोषित करता है। एक देव मन में और वही गर्भ में प्रविष्ट हुआ। मन और गर्भ के द्वारा परमाणु मंे केन्द्रक, न्युट्राॅन और प्रोटाॅन को बाँध्ने वाली अदृश्य शक्ति, वाक् शब्द की तरपफ ध्यान आकर्षित करती है, जो बिना किसी आधर के सबको एक दूसरे से अदृश्य रूप से जोड़ती है।
जीव-चेतना का वैदिक विज्ञान
वेदिक ज्ञान की अविनाषी तरंगो मे जीवन की पहचान है, जो जीवन को प्रस्फुठित करते है। मनुष्य का जन्म माॅं के गर्भ मे होता है, गर्भ मे निषेचन के पष्चात उत्पन्न डीएनए के जोडे को सरस्वती वाक् उत्प्रेरित कर डीएनए के मन संकेत को जाग्रत करती है, और जीव डीएनए के एक जोडें से कमल के फूल के समान आकार ग्रहण करता है।
जीव-चेतना का वैदिक विज्ञान
वेदिक ज्ञान की अविनाषी तरंगो मे जीवन की पहचान है, जो जीवन को प्रस्फुठित करते है। मनुष्य का जन्म माॅं के गर्भ मे होता है, गर्भ मे निषेचन के पष्चात उत्पन्न डीएनए के जोडे को सरस्वती वाक् उत्प्रेरित कर डीएनए के मन संकेत को जाग्रत करती है, और जीव डीएनए के एक जोडें से कमल के फूल के समान आकार ग्रहण करता है।
अर्थात जिस प्रकार कमल जल मे पल्लवित होता है, परन्तु जल उसकी सतह पर नहीं ठहरता, इसी प्रकार विचार तरंगंे जीव के षरीर का स्र्पष करती है, परन्तु ठहरती नहीं है।
अविनाषी वाक् तरंग की एक तरंग आकाषिय समुद्र से जीव कोषा को थामे हुएंे है। इसे लौह स्तम्भ पर चित्र द्वारा अभिव्यक्त किया गया है, कि एक ध्वनि तरंग अष्विन न्यूक्लियोटाइड जोडे के मध्य मे विपरीत अनुर्द्धेय तरंग के द्वारा क्रियाषील है और बाहर से विपरीत अनुर्द्धेय तरंग के द्वारा जीव को नियंत्रित करती है।
सफेद प्रकाष की सात किरणे तथा ध्वनि के सात स्वर सृष्टि का आधार है। प्रकाष और ध्वनि एक दूसरे के पूरक है। जिसे वदो में सप्त सिंधु कहा गया है, जिससे तात्पर्य है सात स्वर, जो असंख्य जीवन धाराओं के रुप मे इस आकाषीय जीवन समुद्र मे नदियों के समान गति कर रही है।
व्यक्तिगत जीवन धारा, स्वर को सरस्वती कहा गया है, जो नदी की धारा के समान जीव षरीर मे बह रही है, और जीवन समुद्र मे अपने गंतव्य की तरफ अग्रसर है। यही सरस्वती क्रिया हेतु विचारों का स्फुरण कर जीवन का जीवन पर्यंत नियंत्रण करती है। ष्षब्द स्वर, ध्वनि तरंग को सरस्वती कहा गया है। इसकी एक तरंग आकाषिय समुद्र से जीव कोषा को थामे हुएंे है। इसे लौह स्तम्भ पर चित्र द्वारा अभिव्यक्त किया गया है, कि एक ध्वनि तरंग अष्विन न्यूक्लियोटाइड जोडे के मध्य मे विपरीत अनुर्द्धेय तरंग के द्वारा क्रियाषील है और बाहर से विपरीत अनुर्द्धेय तरंग के द्वारा जीव को नियंत्रित करती है।
यह वाक् षब्द ध्वनि तरंग ऊर्जा बल है, जो हर जगह क्रियाषील है। अक्षर षब्द की तंरंगे अपनी गति और आवृत्ति के अनुसार जब विपरीत गुणो वाली तरंग से टकराती है तो तुरन्त पलटती है, परन्तु अपना चिन्ह अंिकत कर देती है, जो प्रकाष की अनुद्र्धेय तंरंगो मे परिवर्तन उत्पन्न कर देती है, जो विद्यृत स्पंदन के द्वारा तुरन्त अंत तक पहुचं जाती है। जैसा कि ध्वनि तरंगो के कान से ठकराने पर होता है, और दिमाग उसे तुरन्त कार्य रुप मे परिणित कर देता है।
वेदिक ज्ञान को सदियों से श्रुति स्मृति का पीढी दर पीढी परम्परा के द्वारा पोषित और सुरक्षित किया गया, जो हजारों वर्ष की यात्रा के पष्चात अपने पूर्ण रुप मे हमारे सामने है। यह विष्व के लिए आष्चर्य का विषय है कि वेद मंत्र बिना किसी रुपांतरण के अपने वास्तविक रुप मे सुरक्षित है। हमारा यह कर्तव्य है कि हम इस अक्षुण्ण परम्परा के महत्व को हृदय से ग्रहण करे, जो यह सन्देश दे रही है कि जीव की प्रत्येक पीढी नई है, परन्तु वाक्-सरस्वती की चेतन ऊर्जा सनातन है, जो पीढी दर पीढी मनुष्यों का नये जन्म के साथ अनुसरण करती है।
जीवन-सिद्धान्त विष्व व्यापी वेद
जीवन की उत्पत्ति एक डीएनए और कोषा से अनुवांषिक पुनर्संयोजन द्वारा हुई है, जीव द्रव का स्पंदन और गति जीव चेतना का सिद्धान्त है। कोषा के निष्क्रिय या मृत होने पर स्पंदन और गति बंद हो जाती है और चेतना लुप्त हो जाती है।
मनुष्य के श्रवण यंत्रा कान के पर्दे से षब्द टकराकर पलट जाते है, और पर्दे की कोषा के डीएनए मे उत्पन्न परिवर्तन विद्युत चुम्बकीय ऊर्जा की अनु(ेर्य तरंग मे परिवर्तन है, जो तुरन्त दिमाग को कार्य के लिए प्रेरित करता है। अर्थात षरीर एक डीएनए और उसकी अनु(ेर्य तरंग से विद्युत चुम्बकीय ऊर्जा के द्वारा एक सूत्रा मे गुंथा हुआ है। यही व्यक्ति की व्यक्तिगत पहचान है, जो मृत्यु के बाद भी जन्म जन्मान्तर तक मनुष्य नए जन्म के साथ अनुसरण करती है।
अक्षर षब्द की अविनाषी तरंगे जब गर्भ मे प्रथम संयोजित डीएनए के प्रथम मन संकेत से टकराती है, तो समान र्ध्मा संकेत डीएनए संकेत की अनु(ेर्य तरंग मे परिवर्तन कर उसे बाह्य वातावरण से सम्बंध्ति कर देता है। यह सम्बंध जीवन भर चलता है, और पूर्व जन्म के कर्म जीवन पर्यंत मार्ग दर्षन करते है।
भरतीय संस्कृति और वेद का ध्वनि विज्ञान आधर है, जिस पर सृष्टि और जीवन आधारित है। यही अविनाषी अक्षर षब्द, विचार मनुष्य के जन्म जन्मान्तर की पहचान है। यह ज्ञान विष्व को भारत की देन है, जिसके कारण विष्व मे भारत विष्व गुरु कहलाता था और वैदिक सस्ंकृति विष्व व्यापी संस्कृति थी। पृथ्वी पर प्राकृतिक प्रकोप और हिम युग के अवतरण के साथ यह संस्कृति भारतीय उपमहाद्वीप तक सिमित हो गई। जिसके प्रमाण वेद विज्ञान है। जिसकी जडे अमेरिका मे पल्लवित हुई, और मनुष्य जीवन मे चेतना की खोज का सहभागी बना। उŸारी अमेरिका मे ग्राण्ड केन्योन की आष्चर्यजनक गुपफाऐं इसकी साक्षी है। इस भूमिगत षहर का निर्माण 11000 हजार वर्ष पूर्व वैदिक वैज्ञानिको द्वारा जीवन के अहम् पहलुओं पर अध्ययन के लिए किया गया था। यह जिनेवा मे हिग्स पिफल्ड की खोज के लिए प््राफांस तथा जिनेवा के मध्य निर्मित लार्ज हेड्रान कोलाईडर भूमिगत टनल से की जा सकती है। पत्थरो और चट्टानो पर उकेरे षैल चित्रा संकेत वैदिक विज्ञान की गाथा का बखान करते है कि ब्रह्माण्ड और पृथ्वी पर जीवन का रहस्य पुथ्वी और समुद्र के गर्भ मे है। जहॉ पृथ्वी का भूचुम्बकिय बेल्ट उपस्थित है, यह अति सूक्ष्म जीवन्त ऊर्जा का स्रोत है। जिसके द्वारा समय की गति के समान ब्रह्माण्ड की यात्रा सम्भव है। इसी की खोज आधुनिक विज्ञान भी कर रहा है।
मिस्र के पिरामिड तथा ग्राण्ड केन्योन के भूमिगत गहरी गुपॅफाओं मे इस जीवन्त ऊर्जा का राज समाहित है। इसकी खोज के पष्चात कहा गया कि अतिसूक्ष्म ध्वनि तरंगे सुनामी प्रलय और सृष्टि और जीवन का स्रोत है। ध्वनि और प्रकाष की तरंगे इसका विकसित रुप है। डीएनए से जीवन की उत्पिŸा के साथ ध्वनि तरंगो का विकास अक्षर षब्द और विचार के रुप मे हमारे सामने है। यही अक्षर षब्द और विचार जीवन की जन्म जन्मांतर की पीढी दर पीढी मनुष्य का नए जीवन के साथ स्वागत करती है। अविनाषी डीएनए विचार स्पुफरण का माध्यम है। अर्थात डीएनए के द्वारा विकसित दिमाग और इन्द्रियॉ क्रिया के मात्रा कारक है।
अविनाषी षब्द विचार ब्रह्माण्ड मे सर्वत्रा व्याप्त है, इनकी कौई सीमा विभाजन नही है। जिस प्रकार से सपेफद प्रकाष की सात किरणो मे लाल अनु(र्ेय तरंग प्रकाष संष्लेषण के द्वारा रासायनिक ऊर्जा मे परिवर्तित होकर अक्षय होती है। उसी प्रकार षब्द विचारो के सात स्वर की एक अनु(ेर्य तरंग गर्भ मे डीएनए के मन संकेत को स्पुफरित करती है। जो व्यक्ति विषेष के जीवन विचार और डीएनए पिफंगर प्रिंट की पहचान है। डीएनए की स्पुफरित अनु(ेर्य तरंग के द्वारा डीएनए उत्प्रेरित होकर जीव के षरीर का विकास करता है। यही स्पुफरित अनु(ेर्य तरंग जीवन पर्यंत जीव को आकाषिय समुद्र मे व्याप्त अनन्त अक्षय विचार ऊर्जा से सीध्े सम्पर्क की कारक है। तदनुसार समान विचारो की आवृŸा मनुष्य को क्रिया हेतु प्रेरित करती है। डीएनए मे विचारो का सम्प्रेषण और अनुवाद साथ साथ होता है, तदनुसार क्रिया का लेखा डीएनए मे संग्रहित होता जाता है, जिसे स्मृति कहते है। जो षब्द विचार और दृष्य चित्रा के द्वारा उत्प्रेरित होकर जीव को क्रिया हेतु प्रेरित करते है।
उपसंहार
इस वैदिक ज्ञान का स्रोत कौई अलौकिक सेदेष नही वरन् यथार्थ के वैज्ञानिक धरातल पर इसे विज्ञान की कसौटी पर सिद्ध किया गया, तत्पष्चात यह ज्ञान परम्परा के माध्यम से पल्लवित हुआ, जो आज भी हमारे भारतीय जीवन मे रचा बसा है। परन्तु विडम्बना यह है कि वेद ज्ञान को हमने ऋषियों के ध्यान की उपज और पाष्चात्य संस्कृति की आंधी मे वेदो को धर्म ग्रंथ की श्रेणि मे रख दिया। भारत के प्राचीन गौरव को नकारने के लिए लार्ड मॅकाले ने इसे हिन्दू नाम दे दिया और भारत विभाजन के गहन अंधकार से ग्रस्त हो गया। इसे स्वीकार कर हमने विष्व मे विज्ञान के स्रोत का स्वयं ही अवमूल्यन कर दिया, जिन्हे सिर्फ विज्ञान के परिप्रेक्ष्य मे ही समझा जा सकता है।
इसे किसी धर्म का नाम देना भारतीय संस्क्ति का अवमूल्यन है। वेद मानव सभ्यता के प्राचिनतम ग्रंथ है, जो प्थ्वी पर सुसंस्क्त मानव का प्रथम ष्षब्द है, जो प्थ्वी पर मानव मात्र की विरासत है।