शिवराज की मायनाखेज दिल की बात
प्रकाश भटनागर
‘हनक सत्ता की सच सुनने की आदत बेच देती है। हया को, शर्म को आखिर सियासत बेच देती है। निकम्मेपन की बेशर्मी अगर आंखों पे चढ़ जाए, तो फिर औलाद पुरखों की विरासत बेच देती है।’ खवातीनो-हजरात, ये पंक्तियां कवि डॉ. कुमार विश्वास की हैं। इन्हें प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने ‘मेरे दिल की बात’ कहकर सोशल मीडिया पर साझा किया है। ‘जहां न पहुंचे रवि, वहां पहुंचे कवि।’ सत्य वचन।यहां तो कवि उस जगह पहुंच गया, जहां अच्छे-अच्छे तुर्रम खां भी नहीं पहुंच सकते। विद्यार्थी परिषद के मामूली छात्र नेता से लेकर सांसद, विधायक और मुख्यमंत्री पद तक पहुंचे शिवराज की यही यूएसपी है कि चेहरे के भावों से वे जितना समझ में आते हैं, उतना उनके भीतर की बात को समझना टेढ़ी खीर से कम नहीं है। अब इस यूएसपी को आप चाहे अच्छा कहें या बुरा, लेकिन सच यही है कि भाजपा के इस नेता ने पेट में दाढ़ी वाले हुनर को चेहरे पर दाढ़ी न हुए बगैर भी खूबसूरती से खुद में कायम रखा है। और मुझे लग रहा है कि अब वे एक नहीं, बल्कि दो-दो दाढ़ी वालों से हिसाब चुकता करने की मुद्रा में आ गये लगते हैं।
अब दो दाढ़ी वालों की इस बात को पूरा समझिए। सोशल मीडिया पर भाई लोग पिल पड़े हैं। इस पोस्ट को मुख्यमंत्री कमलनाथ के खिलाफ बताने के लिए। लेकिन क्या वाकई ऐसा ही है? मुझे तो नहीं लगता। यह पोस्ट उस परमाणु बम की तरह है, जिसे चलाने वाले का यही मकसद होता है कि जितने अधिक लोग उसकी जद में आयें, उतना ही इसे सफल माना जाएगा। हां, यह तय किया जाता है कि बम उस जगह जरूर गिरे, जहां उसका मुख्य लक्ष्य है। न तो सोशल मीडिया की शब्द संख्या सीमित है और न ही शिवराज का शब्द ज्ञान। लिहाजा यदि उन्होंने नाथ के लिए यह सब लिखा होता तो तय था कि बकायदा मुख्यमंत्री को संबोधित करके यह लिखते। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। मामला ऐसा है भी नहीं। वास्तव में कहें तो पुरखों की विरासत बेच देती है पढ़ते समय शिवराज का वह चेहरा याद आ जाता है, जब वे पार्टी के तत्कालीन और अब अतीत में धकेल दिये गये पुरखे लालकृष्ण आडवाणी की सियासी विरासत से उनकी बेदखली को लेकर खासे दुखी थे। भोपाल के जम्बूरी मैदान पर हुई वह सभा सबको याद होगी, जिसमें नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री पद के तगड़े दावेदार के तौर पर सामने आये थे। इस सभा में भी शिवराज ने मोदी से अधिक तवज्जो आडवाणी को ही दी थी। फिर जिस तेज गति से आडवाणी की अधोगति हुई, उसी क्रम से मोदी का सियासी उठाव होता चला गया। सियासी तराजू के इस उतार-चढ़ाव को देखकर शिवराज फिर चुप हो गये। लेकिन अब वह मुखर जान पड़ रहे हैं। सत्ता रूपी सुरा के नशे को लेकर वह दु:ख जता रहे हैं।
वैसे इस दिल की बात की टाइमिंग गजब है। क्योंकि ऐसा तब कहा गया, जब राज्य की खाली हो रही राज्यसभा सीटों के लिए चुनाव होने हैं। खबर है कि इस दौरान क्रॉस वोटिंग के जरिये कमलनाथ सरकार को अस्थिर करने का पूरा प्रयास किया जाएगा। खबरची कहते हैं कि इस दिशा में सभी सक्रिय हैं। कमलनाथ अपनी सरकार को पुख्ता करने के बंदोबस्त कर रहे हैं। तो जिन्हें सरकार को अस्थिर करना है और वे भी, जो ऐसा होने की सूरत में अपना-अपना लाभ होने की कामना कर रहे हैं। तो क्या शिवराज ने बगैर नाम लिए अपना दु:ख स्वयं की ताकत बनाकर दिल्ली दरबार तक पेश कर दिया है? यह जता दिया है कि यदि उनके मन की नहीं सुनी गयी तो वे इन पंक्तियों से संबद्ध अपने सारे दुख सार्वजनिक कर देंगे? उदाहरणों सहित? या फिर यह पोस्ट इस बात का द्योतक है कि शिवराज के लिए बिल्ली के भाग्य से छींका टूटने वाली संभावनाओं पर आला कमान ने रोक लगा दी है? अक्सर हमने यही देखा है कि गलत से गलत शख्स भी खुद के साथ अनुचित होने पर पाप-पुण्य की दुहाई देने से नहीं चूकता है। मध्यप्रदेश में यदि क्रॉस वोटिंग वाली स्थिति बनी तो जाहिर है कि ऐसा तमाम राजनीतिक मयार्दाओं के चीरहरण के जरिये ही किया जाएगा। अब राजनीतिक महाभारत के इस प्रसंग का शिवराज को लाभ मिलता नहीं दिख रहा, इसलिए वे ऐसे दु:शासनीय प्रयासों की अभी से निंदा करने लगे हैं।
चलिए मान लिया कि यह एक गलतफहमी है। तो फिर एक और खयाल आ रहा है। एक इतिहासकार ने दावा किया था कि अपने आखिरी दिनों में मोहम्मद अली जिन्ना बहुत पछताये थे। किसी खास सहयोगी से उन्होंने ख्वाहिश जतायी थी कि भारत विभाजन की भूल के लिए वे प्ांडितजी (जवाहर लाल नेहरू) से मिलकर माफी मांगना चाहते हैं। सच है। पराभव वाले दौर में वैभव के दिनों की गलतियां याद आना मानवीय स्वभाव है। तो क्या ऐसा है कि कुमार विश्वास की कविता के प्रति शिवराज का अनुराग अतीत की गलतियों के पश्चाताप से जुड़ा हुआ है। सत्ता की हनक में उन्होंने भी सच सुनना तो दूर, उसकी दिशा में देखना भी बंद कर दिया था। मुख्यमंत्री रहते हुए शिवराज ने हया को, शर्म को बेचा था, यह सीधे-सीधे कह देना तो ठीक नहीं होगा। लेकिन घुमा-फिराकर तो कुछ कहा जा सकता है।
वह यह कि ‘कोई माई का लाल’ वाली दंभोक्ति भी निर्लज्जता से भरा वह आचरण थी, जिसने भाजपा के विजय रथ को चौथी बार में रोक दिया था। चौहान को निकम्मेपन की बेशर्मी से तो भूल कर भी नहीं जोड़ा जा सकता लेकिन यह तो तय है कि कोई शर्मो-लिहाज किए बगैर उन्होंने भाजपा की उस विरासत को बेच दिया था, जिसके बदले व्यापमं घोटाला से लेकर प्याज के कारोबार, व्यक्तिगत ब्रांडिंग में जनता का करोड़ों रूपया फूंकने जैसे ढेर सारे तमाम लंबे किस्से हैं।
आखिर वे तेरह साल तक सत्ता के सर्वेसर्वा थे। होना तो यही चाहिए था कि शिवराज अपनी बात खुलकर रखते। साफ-साफ बताते कि कुमार विश्वास की कविता को अपने ट्विट में वे किसके लिए और क्यों लिख रहे हैं। मगर उन्होंने ऐसा नहीं किया। तो फिर वही हो रहा है, जो होगा। ‘मैं तो गजल सुनाके खामोश हो गया, सब अपने-अपने चाहने वालों में खो गये’ जैसा यह प्रयोग कयासों को ही जन्म देगा। कुछ कयास मेरे हैं तो कुछ बाकियों के भी होंगे ही। देखते हैं कि इनका सच क्या है। राज्यसभा चुनाव तक रुक जाइए। इसका उत्तर तभी मिल सकने की संभावना है।