November 23, 2024

चुनावी दंगल में गालियों का पुराना दौर

– प्रकाश खंडेलवाल
स्वतंत्र पत्रकार

16 वीं लोकसभा के गठन के पहले ही गालियों का जो दौर चला है वह अभी इतना ताजा है कि उसे दोहराने का कोई मतलब नही है। 35 साल पहले भी गालियों का ऐसा ही दौर चला था। उस वक्त 6 ठी लोकसभा भंग हुई थी। तब पत्रकारों और बुद्धिजीवियों का गुस्सा गालियों के रास्ते बाहर आया था। जिसे कलकत्ता की साप्ताहिक पत्रिका ’’रविवार’’ मे पत्रकार राज किशोर ने प्रकाषित चर्चित लेख में समेटा था।

संदर्भ के तौर पर याद करे तो 15 जुलाई 1979 को मोरारजी देसाई का इस्तीफा हुआ था और 22 अगस्त 1979 को 6ठी लोकसभा भंग हुई थी। दोनो ऐतिहासिक तारीख के बीच की अवधि भारत के राजनीतिक इतिहास के लिए कलंक की अवधि कही जाती है। केन्द्रीय राजनीति के तब वे 38 दिन राजनीतिक नैतिकता के चरम पतन के दिन थे। उस दौरान न केवल सत्ता-संघर्ष के बड़े घिनौने आयाम उभरे थे, बल्कि राजनीतिक दलों की अवसरवादिता और नेताओं की क्षुद्रता भी तब खुलकर सामने आयी थी।

कहा जाता है कि जब कोई भी तर्क अपना काम नही करता है तब मुॅंह से सिर्फ गालियों के अलावा कुछ और निकलता भी नही है। कुछ हालात ऐसे भी बन जाते है जिसमे बरबस गालियाॅं निकल ही पड़ती है।

उन दिनों दिल्ली में जो नाटक चला उससे पत्रकारांे और बुद्धिजीवियों के मन में तीव्र प्रतिक्रिया हुई थी। उनका मन गुस्से से भरा हुआ था और वे छटपटाते रह गए थे। उनकी तमाम आलोचनाएॅं बेमानी होकर रह गई थी और आलोचना के लिए उनके पास शब्दों का अकाल पड़ गया था। ऐसे हालात मे तब उनका गुस्सा गालियों के रास्ते फूट पड़ा था।

गालियों के उस दौर की शुरूआत अंग्रेजी साप्ताहिक ’’संडे’’ के संपादक एम.जे.अकबर ने की थी। 22 जुलाई 1979 के अंक मे उनका लेख इस शेर से शुरू हुआ था: ’’बरबाद गुलिस्ताॅं करने को, बस एक ही उल्लू काफी है, हर  शाख पे उल्लू बैठा है, अंजामे गुलिस्ताॅं क्या होगा’’। बंबई की दुर्गा भागवत, नेताओं को सिर्फ उल्लू भर कह देने से ही संतुश्ट नही हुई थी। उन्होने अपनी सड़क सभाओं मे तब उन्हें ’’वेश्या से भी बदतर’’ बताया था। अटलबिहारी वाजपेयी जैसे जिम्मेदार नेता ने भी बाद मे तब राजनीतिज्ञों को वेश्या कहा था।

संयमित पत्र पाक्षिक ’’इंडिया टुडे’’ भी अपने को रोक नही पाया था और तब वह भी उबल पड़ा था। जिस तरह उसने वाक्यों मे गालियों की बौछार की थी उन गालियों को इस तरह एक साथ रखकर पढ़ा जा सकता है: ’’भारत के राश्ट्रीय नेता जिस तरह अपने पापों की पोटली लिए सरेआम फिर रहे है, उसे देखकर मालूम होता है कि ये नेता नही, भड़वे, रंडिया, उठाईगिरे, जनखे, राक्षस, खून चूसने वाली जोंकें और आदी मुजरिम है, जो हिंजड़ों की तरह अपना लिबास उठा-उठाकर अपने विकृत जननांगों की नुमाईष कर रहे है।’’

उस दौरान चरणसिंह द्वारा बहुगुणा पर गंभीर आरोप लगाए गए थे और उन्हे वापस ले लिया था। इस संदर्भ मे ’’इंडियन एक्सप्रेस’’ के अरूण शौरी ने तत्कालीन नई राजनीति को ’’थूककर चांटना’’ बताया था।

’’स्टेट्समेन’’ भी अपनी नफरत को छिपाने मे पीछे नही रहा था। उसने मुख पृश्ठ पर एक कार्टून छापा था जिसमे चरणसिंह, श्रीमती गांधी और जगजीवनराम एक ही मेज के इर्द-गिर्द बैठे दिखाए गए थे और नीचे जाॅंर्ज आॅंरवेल के उपन्यास ’’एनिमल फार्म’’ से एक पंक्ति उद्द्यृत की गई थी: ’’बाहर के प्राणी कभी सूअर से आदमी हो जाते तो कभी आदमी से सूअर और फिर सूअर से आदमी, लेकिन यह पहचानना मुष्किल हो गया था कि इनमे से कौन आदमी है और कौन सूअर।’’

कलकत्ता से प्रकाषित ’’अमृतबाजार’’ पत्रिका ने तब पूरी हिम्मत नही दिखाई थी लेकिन थोड़ा कम साहस दिखाकर उसने भी ’’कुत्ता’’ कह ही डाला था। अपने एक स्तंभ मे उसने एक घटना का जिक्र करते हुए बताया था कि ’’एक इतालवी पषु पालक ने एक अजीब-सा दिखने वाला कुत्ता खरीदा। वह बिल्कुल भी नही भौंकता था, लेकिन वह इतना हट्टा-कट्टा और मोटा-ताजा था कि उसने चमड़े की जंजीर ही काट डाली। जब उसका मालिक उसे दूसरी जंजीर पहनाने गया तो उसने उसको भी काट खाया। जब डाॅंक्टर  को दिखाया गया तो उसने गौर से निरीक्षण के पष्चात् रहस्योद्धाटन किया कि ’’यह कुत्ते का नही,शेर का बच्चा है।’’ इस पर टिप्पणी करते हुए स्तंभकार ने बताया था कि उस वक्त ’’नई दिल्ली में मांस के एक टुकड़े पर कुछ व्यक्ति शेरो की तरह गरज रहे थे, जिन्हे पहचानने के लिए किसी डाॅक्टर की सेवाओं की जरूरत नही थी। यह साफ जाहिर था कि वे शेरो की नही, कुत्तो की औलाद है।’’ तत्कालीन राजनीतिक संदर्भ मे इषारा समझने मे किसी को भी कोई कठिनाई नही हुई थी।

बंबई से प्रकाषित ’’ब्लिट्ज’’ ने भी तत्तकालीन चरणसिंह सरकार के बारे में एक हल्का सा नमूना प्रस्तुत किया था। एक फब्तीबाज ने ठीक ही कहा था कि ’’यह दो एसों (गधों) का जमावड़ा है – जनता (एस) और कांग्रेस (एस)।’’ लब्बोलुआब यह कि छठी
लोकसभा भंग होने के वक्त पत्रकारों व बु़िद्वजीवियों का गुस्सा राजनीतिक नैतिकता
के चरम पतन पर फूटा था और अभी 16वीं लोकसभा के गठन से पहले ही राजनेतागणों के बीच जमकर बदजुबानी का दौर चल रहा है ।

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