सच को सामने लाने का सही वक्त
-तुषार कोठारी
देश की स्वतंत्रता के बाद सही मायने में सच को सामने लाने का यही सही वक्त है। पिछले 68 वर्षों में देश की जनता से कई सारे सच छुपाए गए है। सुभाष चन्द्र बोस हो या सावरकर,देश के सच्चे नायकों को दरकिनार कर जनता को भ्रम में रखा गया है। आज जब नेताजी से जुडी गोपनीय फाइलों और दस्तावेजों को सार्वजनिक करने की मांग उठाई जा रही है,तो यह इसके लिए सबसे सही वक्त है। यही नहीं इस तरह की और भी छुपा कर रखी गई जानकारियों को देश की जनता के सामने लाने का भी यही वक्त है।
नेताजी के परिवार की जासूसी का मुद्दा जैसे ही सामने आया,कांग्रेस के नेता इसे झूठ बताने में जुट गए। कहते हैं सच को चाहे जितना छुपाने की कोशिश की जाए,सच सामने आ ही जाता है। नेताजी के जीवन काल में वे गांधी जी और नेहरु जी से बडे नेता के रुप में स्थापित हो चुके थे। गांधी जी और नेहरु जी से मतभेद के चलते नेताजी ने अपनी अलग राह चुन ली थी। जिस दिन नेताजी ने आजाद हिन्द रेडियों के माध्यम से देश की जनता को सम्बोधित किया,पूरा देश नेताजी के नेतृत्व से अभिभूत हो गया था। इसके बाद आजाद हिन्द फौज ने जापान के साथ मिलकर जब देश को आजाद कराने की लडाई छेडी,एकबार तो पूरे देश को यह उम्मीद जग गई थी कि आजाद हिन्द फौज देश को आजाद करवा देगी।
लेकिन इसी समय अंहिसा के पुजारी मोहनदास गांधी के पट्ट शिष्य जवाहरलाल नेहरु को इस घटना पर इतना गुस्सा आया था कि उन्होने यह कहा था कि यदि बोस सेना लेकर भारत पर हमला करेंगे तो उनसे लडने के लिए मै तलवार लेकर जाने वाला पहला व्यक्ति होउंगा। जाहिर सी बात है नेहरु गांधी को इस बात की घबराहट थी कि यदि सैनिक अभियान के माध्यम से भारत आजाद हो गया तो आजाद भारत की कमान नेताजी के हाथ में होगी और कांग्रेस के अंग्रेस परस्त नेता सत्ता से दूर हो जाएंगे।
आजाद हिन्द फौज के प्रति नेहरु के रुख से ही क्या यह स्पष्ट नहीं हो जाता कि नेहरु जैसे अग्रेज परस्त नेता सुभाष चन्द्र बोस से कितनी घृणा करते थे। इसकी एक वजह यह भी थी कि नेताजी विलक्षण प्रतिभा के धनी थे और उनकी योग्यता जवाहरलाल नेहरु या अन्य नेताओं से कई गुना अधिक थी।
देश का दुर्भाग्य ही था कि द्वितीय विश्वयुध्द में अमेरिका द्वारा परमाणुबम का उपयोग किए जाने के कारण युध्द की स्थितियां बदल गई और जापान को बुरी तरह हार का सामना करना पडा। जापान के आत्मसमर्पण का असर आजाद हिन्द फौज पर भी पडा। अण्डमान और निकोबार द्वीपों को अंग्रेजों की गुलामी से सबसे पहले स्वतंत्रता दिलाकर इनका नाम स्वतंत्र व स्वराज द्वीप करने वाली आजाद हिन्द फौज के सैनिकों को गिरफ्तार कर लिया गया था। नेताजी स्वतंत्रता अभियान को फिर से सक्रिय करने के गुप्त मिशन को लेकर निकले और कथित विमान दुर्घटना में उनकी मृत्यु की खबरें फैल गई।
नेताजी की योग्यता से घबराए हुए जवाहरलाल नेहरु जैसे नेता के लिए इससे अच्छी खबर क्या हो सकती थी? लेकिन जैसे ही विमान दुर्घटना के फर्जी होने और नेताजी के जीवित होने की अफवाहें फैली,निश्चित तौर पर कम योग्यता वाले नेताओं के दिलों में फिर से घबराहट उत्पन्न हुई होगी। आज कल्पना कीजिए कि यदि किसी समय नेताजी अचानक प्रकट हो गए होते तो क्या होता? क्या देश की जनता नेहरु गांधी के पीछे चलती या बोस के? नेताजी के प्रति देश के लोगों में आज तक इतनी आस्था है तो आज से चालीस या पचास दशक पहले उनका कितना असर रहा होगा?
बहरहाल जब जब विमान दुर्घटना की जांच की मांग जोर पकडती थी,कांग्रेस की सरकारों की नींद उडने लगती थी। यदि नेताजी से सम्बन्धित गुप्त दस्तावेजों में उनके अंतिम समय के बारे में कोई तथ्यात्मक जानकारियां मौजूद हैं,तो आज उनके उजागर होने से यह साबित हो जाएगा कि जवाहरलाल नेहरु ने नेताजी के विरुध्द कोई षडयंत्र रचा था,जिससे कि वे देश की जनता के बीच में वापस ना आ पाए और नेहरु की सत्ता को चुनौती ना दे पाए। और यदि जवाहरलाल नेहरु ने नेताजी के विरुध्द कोई षडयंत्र नहीं रचा था,तो भी गुप्त दस्तावेजों को सार्वजनिक किए जाने में सरकार को कोई दिक्कत नहीं होना चाहिए।
इससे पहले तक की सरकारों का रुख तो वैसे ही बेहद साफ रहा है। जवाहरलाल नेहरु और फिर उनके ही वंशजों की सरकारों से यह उम्मीद भी कैसे की जा सकती थी कि वे देश के सच्चे सपूतों को सम्मान देने की कोशिश करेंगे। चाहे सुभाष हो या सावरकर कांग्रेस नीत सरकारों के लिए ये सब बेकार लोग थे। यदि कोई देशभक्त था तो वे गांधी और नेहरु परिवार के लोग थे। इसी का नतीजा था कि देश में जब जब नेताजी के रहस्यों पर से पर्दा उठाने की मांग की जाती थी,तब तब उसे नकार दिया जाता था।
इतिहास पर नजर डालें तो पता चलता है कि देश में चार बार नेताजी की खोज के लिए प्रयास किए गए। लेकिन इन में से तीन प्रयास तो केवल जनता को संतुष्ट करने के लिए किए गए थे। सबसे पहले सन 1946 में कर्नल जान फिग्गिस से जांच करवाई गई। यह जांच तो अंग्रेजों ने ही करवाई थी। कर्नल फिग्गिस ने जुलाई 1946 को अपनी जांच रिपोर्ट पेश की और नेताजी की मृत्यु की पुष्टि कर डाली। इसके बाद जवाहरलाल नेहरु के प्रधानमंत्री रहते जनता के दबाव में 1956 में भारत सरकार ने शाहनवाज कमेटी गठित की। इस तीन सदस्यीय कमेटी में सुभाषचन्द्र बोस के बडे भाई सुरेशचन्द्र बैस भी एक सदस्य थे। इस कमेटी ने भी यही रिपोर्ट दी कि नेताजी की मृत्यु विमान दुर्घटना में हुई थी। हांलाकि इस कमेटी की रिपोर्ट की विश्वसनीयता तब समाप्त हो गई जब कमेटी के सदस्य सुरेशचन्द्र बोस ने तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु पर स्पष्ट आरोप लगाया कि उन्होने जांच के निष्कर्षों को बदलवा दिया था। सुरेशचन्द्र बोस ने कमेटी की रिपोर्ट पर हस्ताक्षर करने से भी इंकार कर दिया था। सुरेशचन्द्र बोस का स्पष्ट आरोप था कि कोई विमान दुर्घटना नहीं हुई थी और नेताजी की मृत्यु भी नहीं हुई थी। इसके बाद फिर 1970 में जस्टिस जीडी खोसला के नेतृत्व में खोसला आयोग गठित किया गया। खोसला आयोग ने 1974 में अपनी रिपोर्ट पेश कर फिर यह साबित करने की कोशिश की,कि नेताजी की मृत्यु उसी विमान दुर्घटना में हुई थी।
1946 से 1970 के दौरान तीन बार जांच होने के बावजूद देश की जनता को इन रिपोर्टो पर भरोसा नहीं हुआ था। फिर 1999 में कोलकाता हाईकोर्ट के निर्देश पर तत्कालीन एनडीए सरकार ने जस्टिस मुकर्जी के नेतृत्व में मुकर्जी कमिशन गठित किया। मुकर्जी आयोग ने सुस्पष्ट मत दिया कि 18 अगस्त 1945 को ताईहोकू की कथित विमान दुर्घटना पूरी तरह फर्जी थी और इस दुर्घटना में नेताजी की मृत्यु नहीं हुई थी। देश का दुर्भाग्य यह था कि मुकर्जी आयोग ने जिस समय अपनी अंतिम रिपोर्ट प्रस्तुत की उस समय 17 मई 2006 को देश में फिर कांग्रेस के नेतृृत्व वाली सरकार थी। मुकर्जी आयोग के स्पष्ट मत के बावजूद कांग्रेस की बेशर्म सरकार ने बिना कोई कारण बताए इस रिपोर्ट को मानने से इंकार कर दिया और इसे खारिज कर दिया गया।
इतने सारे तथ्य सामने है। कांग्रेस सरकार के रहते नेताजी के रहस्य से पर्दा उठना असंभव था। जवाहरलाल नेहरु और उनके बाद की कांग्रेस सरकारों के इस रवैये से ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि नेताजी के मामले में कहीं न कहीं कांग्रेस के तत्कालीन नेताओं की संदिग्ध भूमिका रही होगी। लेकिन अब तो देश में राष्ट्रवादी सरकार है। अब तो देश के लोग उम्मीद रख सकते है कि सच्चाई सामने आएगी। सत्ता के निहित स्वार्थो के चलते जवाहरलाल नेहरु जैसे जिन नेताओं की संदिग्ध भूमिका थी,उनका चरित्र सामने आना भी अब जरुरी है। 2006 में तत्कालीन यूपीए सरकार ने मुकर्जी आयोग की रिपोर्ट को खारिज करते वक्त यह भी तर्क दिया था कि इससे कुछ मित्र राष्ट्रों से भारत के सम्बन्धों पर अनुचित असर पड सकता है। लेकिन क्या भाजपा की सरकार को इस खोखले तर्क को मानना चाहिए। देश की जनता का यह अधिकार है कि वह जाने कि कौन वास्तविक देशभक्त था और कौन अंग्रेजों की मानसिक गुलामी में ग्रस्त था। किसने स्वतंत्रता के लिए वास्तविक संघर्ष किया और किसने वास्तविक देशभक्तों को रोकने के लिए अंग्रेजों के साथ मिलकर गद्दारी की? अपने पुराने नेताओं को देश का निर्माता बताने वाले कांग्रेस के लोगों को भी अब सच से सामना करने को तैयार रहना चाहिए। यही सही वक्त है,जब सारे सच सामने लाए जाने चाहिए।