September 29, 2024

राग रतलामी/रतलामी बाशिन्दों के लिए डरावने हो गए है दिन रात,वर्दी वालों से डर नहीं लगता बदमाशों को

-तुषार कोठारी

रतलाम। आजकल शहर के खबरचियों के लिए अच्छे दिन चल रहे हैं। उन्हे खबरें ढूंढने के लिए ज्यादा मशक्कत नहीं करना पड रही हैं। रोजाना दो चार चोरी की वारदातें हो ही जाती है और खबरचियों का काम निकल जाता है। लेकिन शहर के बाशिन्दों के दिन और रातें डरावनी हो गई हैं। रिश्तेदारी में शादी ब्याह हो या और किसी मजबूरी में शहर से बाहर जाने की जरुरत हो। घर को सूना छोडकर जाने में आजकल हर किसी को डर लगने लगा है।
घर को सूना छोडकर गए नहीं कि चोर उचक्के बरसों की मेहनत की कमाई को मिनटों में साफ कर देते हैं। वर्दी वालों की जिम्मेदारी अब इतनी रह गई है कि वारदात होने के बाद वो खबर मिलने पर मौके पर पंहुचते हैं। पहले तो कोशिश करते है कि घटना को पूरी तरह छुपा दिया जाए। ये कोशिश कामयाब नहीं होती तो मजबूरी में रिपोर्ट दर्ज की जाती है,लेकिन तब भी कोशिश यही होती है कि वारदात को छोटा करके बताया जाए।
जिसकी मेहनत का माल लुटा होता है,उसके पल्ले केवल दुख आता है। वर्दी वाले सांत्वना तो देते नहीं,बल्कि खरी खोटी सुनाते है और जैसे तैसे मामला दर्ज कर लेते है। अब जिस पर गुजरी होती है वो एक कमजोर सी उम्मीद लगाए रहता है कि शायद कभी कोई वर्दी वालों के हत्थे चढ गया,और शायद उसके कब्जे से उसका माल भी मिल जाए। अव्वल तो ऐसा होने की उम्मीद बेहद कम होती है और अगर किस्मत से ऐसा हो भी गया तो अपना माल वापस लेने के लिए उसे लम्बा अदालती रास्ता भी पार करना पडता है।
रतलामी बाशिन्दे समझ नहीं पा रहे है कि जब सिंघम फिल्म के लोगों को सिंघम के रहते कोई समस्या नहीं थी,तो रतलाम के लोगों के सामने इतने डर और समस्याएं क्यों है? वो बेचारे नहीं जानते कि फिल्म और असल जिन्दगी में बहुत फर्क होता है। असल में सिंघम कोई व्यक्ति नहीं होता बल्कि टीम होती है। लेकिन यहां तो टीम ही बेहद लचर है। किसी जमाने में अंधेरी रातों में सुनसान राहों पर वर्दी वाले विचरा करते थे और उसे गश्त कहा जाता था। जब गश्त नामक कार्रवाई चला करती थी,तो रात के वक्त सड़कों पर चोर उचक्कों की बजाय वर्दी वाले होते थे और चोर उचक्के नदारद रहते थे। लेकिन आजकल वर्दी वालों के एक दो तीन सितारों वालों को शिकायती जांचों में कमाई करने से फुर्सत नहीं मिलती। नतीजा यह है कि रात का वक्त वर्दी वालों की बजाय चोरों को हासिल हो गया है। उन्हे अब कोई डर भी नहीं लगता। उन्हे भी पता है कि फिल्म और असल जिन्दगी में बहुत फर्क है।
कुल मिलाकर रतलामी बाशिन्दों को यह समझ लेना चाहिए कि खुद की मेहनत की कमाई बचाना है,तो घर को सूना छोडकर जाना छोड दें। हांलाकि कुछेक मामलों में तो उचक्कों ने घर में लोगों के रहते हुए भी अपने कारनामें दिखा दिए है। अगर ऐसा हो जाए,तो उसके लिए भी तैयारी करना जरुरी है। क्योंकि वर्दी वालों का काम केवल रिपोर्ट लिखना है,इसके अलावा कुछ नहीं। बदमाशों को अब वर्दी वालों से डर भी नहीं लगता।

कोशिशों पर पानी….
जब से नगर सरकार नेता विहीन हुई है,बडी मैडम जी ने इसकी हालत सुधारने की कई कोशिशें की है। मैडम जी की तमाम कोशिशों के बावजूद सरकार की हालत सुधर ही नहीं पा रही है। इसकी वजह ढूंढने वालों ने जब पता किया तो मालूम चला कि मैडम जी की कोशिशों पर वहां के साहब ही पानी फेर देते है। नगर सरकार वाले साहब का यह दूसरा कार्यकाल है। पहले जब वो आए थे,तब तो कामकाज किया करते थे,लेकिन दूसरे कार्यकाल में उन्होने नो वर्क,नो कन्फ्यूजन की नीति अपना रखी है। शहर की सडकें खुदी हुई है। मैडम जी बैचारी घूम घूम कर सड़कों की मरम्मत के निर्देश जारी करती है,लेकिन बाद में साहब उस पर पानी फेर देते है। मैडम जी को दिखाने के लिए थोडा सा काम होता है और बाद में फिर वही ढर्रा चालू हो जाता है। साहब की नौकरी में अब ज्यादा वक्त भी नहीं बचा है,इसलिए उनका ध्यान काम की बजाय दाम पर ज्यादा रहता है। जानकारों का कहना है कि अगर मैडम जी को सचमुच में रिजल्ट चाहिए,तो सबसे पहले साहब की नकेल कसना जरुरी है।

अग्निपथ का डायलाग
शहर में इन दिनों अमिताभ की फिल्म अग्रिपथ का डायलाग चर्चाओं में है। उस फिल्म में अमिताभ का नाम विजय दीनानाथ चौहान था और अमिताभ बडे अनोखे लहजे से अपना नाम बताते थे। शहर की कन्याओं के कालेज में पंजा पार्टी के नेताजी के घटनाक्रम के बाद इस डायलाग को काफी याद किया जा रहा है। पंजा पार्टी के नेताजी को उम्मीद थी कि उनका डायलाग उन्हे माइलेज दिलवाएगा,लेकिन हुआ इसका ठीक उल्टा।

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