बुजुर्ग नेता बनाम राजनीति
(डॉ.डी.एन.पचौरी)
भारत एक सम्पूर्ण संप्रभुता संपन्न लोकतांत्रिक देश है और विश्व का सबसे बडा प्रजातांत्रिक देश होने पर हमे गर्व है,किन्तु इसके साथ एक कटुसत्य भी है कि स्वतंत्रताप्राप्ति के बाद से अब तक देश की बागडोर बुजुर्ग नेताओं के हाथ में रही है। अधिकांश नेता साठ वर्ष से अधिक आयु के रहेहैं। जब हमे आजादी मिली तब गांधी जी 78 वर्ष,सरदार पटेल 72 वर्ष और नेहरु जी 58 वर्ष के थे। प्रधानमंत्री पद पर आरुढ होते समयशश्री मोरार जी देसाई 81 वर्षशश्री नरसिंहा राव 71 वर्ष और श्री अटल बिहारी वाजपेयी 75 वर्ष के थे। श्री लालबहादुर शाी 62 वर्ष के थे तथा अल्पकालीन इन्द्रकुमार गुजरात तथा चन्द्रशेखर,वीपी सिंह,सभी बुजुर्ग थे। वर्तमान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह 80 वर्ष के है। एक लोकोक्ति प्रचलित है कि साठ साल के बाद आदमी सठिया जाता है अर्थात उसकी बुध्दि उचित प्रकार से कार्य करने में सक्षम नहीं रहती है और उसे धीरे धीरे भूलने की आदत लगने लगती है इसीलिए साठ वर्ष के बाद नौकरी से भी पदमुक्त कर दिया जाता है। फिर देश चलाने जैसे महान कार्य के लिए ये नेता लोग सक्षम क्यो मान लिए जाते हैं।
मानव जीवन की औसत आयु 100 वर्ष मानकर प्रथम पच्चीस वर्ष विद्यार्थी जीवन,पचास वर्ष तक गृहस्थ,75 वर्ष तक वानप्रस्थ और 75 वर्ष के बाद सन्यासी जीवन का प्रावधान है। आज औसत आयु 80 वर्ष से भी कम है तो बीस वर्ष के हिसाबसे साठ वर्ष बाद की आयु सन्यास जीवन जीने की है। जबकि नेता इस उम्र में बडे बडे मंत्री पद से लेकर राष्ट्रपति एवं उपराष्ट्रपति बनते है। शरीर के विकास क्रम में ये स्पष्ट है कि चालीस वर्ष की आयु के बाद उपापचय(मैटाबोलिज्म) की क्रिया धीमी पडने लगती है अर्थात शरीर का विकास पूर्णतया रुककर क्षय या ह्रास होना प्रारंभ हो जाता है। पचास साठ की आयु के बाद हड्डियों का लचीलापन समाप्त होकर इनकी कमजोर होने,टूटने पर कैल्शियम देर से जमने ,भोजन के रस से रक्त मांस मज्जा आदि बनने की क्रियाएं मन्द हो जाती है। मस्तिक्ष के न्यूरोन्स कमजोर और नष्ट होने लगते है। इससे एक बीमारी अलजीमर्स अर्थात याददाश्त कमजोर होने की स्थिति में भूलने और ठीक से याद न रखने की प्रवृत्ति उत्पन्न होने लगती है। क्या नेताओं का शरीर अलग प्रकार का होता है। उम्र अपना असर सबपर दिखाती है।
यदि हम योरोप और दूसरे देश के नेताओं की ओर देखें तो ब्रिटेन,फ्रान्स,आस्ट्रेलिया,
अमेरिका के शासक 45 से पचास वर्ष आयु के है। बुजुर्ग मनुष्य के जीवनभर के अनुभव का लाभ कुछ क्षेत्रों में शायद मिलता हो किन्तु हानि ये है कि उसके सोचसमझ कर निर्णय लेने की क्षमता बढ जाती है और निर्णय लेने में प्रत्युत्पन्नमति(प्रेजेंस आफ माइण्ड) कम हो जाती है। जिसमें तुरंत सही और कठोर निर्णय लेने में हिचकिचाहट उसे हमेशा होती। बुजुर्ग मनुष्य वृध्दावस्था में शान्ति चाहता है किन्तु आज के युग में हर कदम पर शान्ति से देश को चलाया नहीं जा सकता। आप ऐसा सोचते हैं तो ये भ्रान्ति है। आज के युग में आतंकवाद नक्सलवाद के युग में शान्ति की नहीं क्रान्ति की आवश्यकता है। एक बार कठोर निर्णय लेने पर शेष समय में अपने आप शान्ति स्थापित हो जाती है और विकास की गति भी बढ जाती है। गुजरात प्रदेश का उदाहरण सामने है। मुद्दा ये नहीं है कि क्या सही है और क्या गलत। मुद्दा ये है कि आज देश की जो दुर्दशा है उसमें भ्रष्टाचार,महंगाई,हिंसा,लूट,बलात्कार और आतंकवाद तथ नक्सलवाद से निपटने के लिए कठोर निर्णय की आवश्यकता है। भारत के स्वतंत्रता प्राप्त करने के बाद केवल इन्द्रा गांधी ने 49 वर्ष की आयु में प्रधानमंत्री का पद संभाला और एक से एक कठोर निर्णय लिए। इमर्जेंसी में विपक्ष पर हुए अत्याचारों को हटाकर देखें तो डेढ वर्ष तक भारत में सुशासन जैसी स्थिति आ गई थी। अपराधों पर पूर्णतया अंकुश लग गया था,महंगाई एकदम घट गई थी और सरकारी मशीनरी से लगाकर आम आदमी तक अनुशासन की लहर दौड गई थी। सुभाषचन्द्र बोस का कहना था कि देश ने काफी वर्षों तक गुलामी भुगती है अत: प्रथम दस वर्षों तक प्रजातंत्र लागू न किया जाए अपितु तानाशाही से शासन चलाया जाए क्योकि हम लोग प्रजातंत्र को संभाल नहीं पाएंगे। आज प्रजातंत्र की जो हालत है वह किसी से छिपी नहीं है।
अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने पचास वर्ष की आयु में जो निर्णय लेकर ओसामा बिन लादेन को पाकिस्तान में घुसकर मरवा दिया क्या ये निर्णय हमारे प्रधानमंत्री ले सकते थे। वो तो सोचते कि ओसामा दस वर्ष से भागा फिर रहा है,यही सजा क्या कम है और रही सही कसर सलाहकार पूरी कर देते। वो कहते कि सिंह साहब बेचारे ओसामा जी को पहले ही काफी सजा मिल चुकी है और हम और आप कौन होते है उन्हे सजा देने वाले। इनके कर्मों की सजा तो इन्हे उपरवाला ही देगा। हाफिज सईद साहब और ओसामा जी छोटी सोच के लोग है,क्षमा बडन को चाहिए छोटन को उत्पात। आप कब तक लकीर के फकीर बने रहेंगे। इनसे ध्यान हटाकर देश के विकास की ओर ध्यान दीजिए। स्पष्ट है कि अधिक आयु के लोग कठोर निर्णय नहीं ले सकते।
एक और उदाहरण देखिए। जब अफजलगुरु के निर्देशन में संसद पर हमला हुआ तो वाजपेयी जी 76 या 77 वर्ष के थे और बाद में उन्होने कहा था कि हमे तुरन्त पाकिस्तान पर आक्रमण कर देना चाहिए था। यदि यही हमला सन 1977 में हुआ होता जब वाजपेयी विदेश मंत्री थे। यदि मोरार जी देसाई की जगह उस समय वाजपेयी प्रधानमंत्री होते और उस समय संसद पर हमला हुआ होता तो वे तुरंत पाकिस्तान पर आक्रमण कर देते। साठ वर्ष की आयु के पूर्व मनुष्यों में जो थोडा बहुत उत्साह,उमंग,जोश,साहस, शौर्य आदि होता है वो सत्तर या पचहत्तर की आयु आते आते समाप्त हो जाता है। अब अस्सी वर्षीय बुजुर्ग प्रधानमंत्री क्या ऐसे निर्णय ले सकते है। भारत में तो इससे भी अधिक आयु के वयोवृध्द नेता प्रधानमंत्री पद की आस लगाए बैठे है। कुछ लोग सोच सकते है कि युध्द से जनहानि,अर्थहानि,और हर प्रकार से विनाश ही होता है तो युध्द से बचना ही श्रेयस्कर है,पर युध्द से कब तक बचा जा सकता है। सतयुग,त्रेता,द्वापर,कलयुग,रामायणकाल,महाभारत काल,समुद्रगुप्त,चन्द्रगुप्त का मौर्यकाल,अशोक की कलिंग विजय,मुगल काल,अंग्रेजों का शासन काल कौनसा काल ऐसा है जब युध्द नहीं हुए। मानवमन की हिंसक प्रवृत्ति कभी मनुष्य को शान्तिपूर्वक नहीं बैठने देती। दुनिया के हर युग में युध्द होते आए है और होते रहेंगे। आज भी हमे बुध्द की नहीं युध्द की आवश्यकता है। क्या बुध्द के काल में युध्द बन्द हो गए थे। नहीं। कलिंग का भीषण युध्द जिसमें लाखों लोग मरे उसी काल में हुआ था। आजादी के बाद भारत पहले पचास वर्ष में पांच युध्द लड चुका है। सन 1948 में कबायलियों से जम्मूकाश्मीर में,1962 में चीन से,1965,71 तथा 1999में पाकिस्तान से युध्द हुआ। सबसे बडी विजय 1971 में 54 वर्षीय इन्द्रा गांधी के काल में हुई थी,अन्यथा 62 में 73 वर्षीय नेहरु जी युध्द से भयभीत रहे और हमे पराजय का मुंह देखना पडा। यद्यपि बासठ
वर्षीय लालबहादुर शाी ने सन 65 में पाकिस्तान को करारा जवाब दिया पर ताशकन्द समझौते में जान गंवा दी। भारत युध्द के मैदान में विजय प्राप्त करता है परन्तु टेबल पर हार जाता है। ताशकन्द और शिमला समझौते के उदाहरण सामने है।
देश की वर्तमान हालत तो खराब है ही,भविष्य में युध्द का अनिवार्य रुप से सामना करना पडेगा। पाकिस्तान तो युध्द के लिए बहाने ढंूढ ही रहा है,तो उपर से चीन ने अपना रक्षा बजट डेढ गुना बढाया है और अरबों रुपए सैन्य सामग्री पर खर्च कर रहा है। इससे देश को भविष्य के खतरे के प्रति सचेत हो जाना चाहिए। भारत देश के बाहरी देशों से खतरा जितना अधिक है उससे ज्यादा हमारी आंतरिक सुरक्षा में लापरवाही है। एक पुराने गाने की लाइने आज देश की हालत पर सटीक बैठती है-
कहनी है एक बात हमे इस देश के पहरेदारों से।
संभल के रहना अपने घर में छुपे हुए गद्दारों से।
यदि ये देश हिन्दू,मुस्लिम,सिख,इसाई सबका है तो फिर इस वतन के प्रति वफादारी भी सबकी होनी चाहिए। फिर एसा क्यो है कि एक वर्ग विशेष के अधिकांश लोग खाते यहां है और बजाते वहां की है,वाली कहावत को चरितार्थ कर रहे है। ऐसा नहीं होता तो क्या अकबरुद्दीन औबेसी हैदराबाद में पाकिस्तान जिन्दाबाद के नारे लगाता हुआ,वहां का झण्डा लेकर घूमता और अय हिन्दूस्तान,हम तेरे वतन को सबक सिखा देंगे,जैसी तकरीर फरमाता है।
आखिर कब तक हम वोट बैंक के लिए तुष्टिकरण की नीति अपनाते रहेंगे। यह बात भी सही है कि सब लोग ऐसे नहीं है और कुछ तो हिन्दूओं से भी अधिक वफादार है,पर कुछ क्यो। सभी को इस देश की आन बान शान के लिए कुर्बान होने के लिए तैयार रहना चाहिए। इस मादरे वतन के आबोदाने से बने तुह्मारे बदन की शहादत इस देश की हिफाजत के लिए होनी चाहिए। यदि कोई गद्दारी की हिमाकत करता है तो ताजेरात हिन्द की दफा १२१ के मातैद सजाएमौत का ऐलान उसके लिए कानूनन जरुरी है। यदि चार छ: ऐसे गद्दार बंदों को लटका दिया जाए तो फिर किसी औबेसी की हिम्मत नहीं होगी जो कि देश को खुली चुनौती दे सके। कितने शर्म की बात है कि अकबरुद्दीन औबेसी यहां की पुलिस को खुले आम गाली देता है और पुलिस को निकम्मी और नपुंसक बताता है। इसका इलाज है कि दलगत,वोटगत राजनीति से उपर उठकर कोई कुशाग्र बुध्दि किन्तु कठोर निर्णय लेने वाला शासक चाहे वो देश का प्रधानमंत्री हो या किसी स्टेट का मुख्यमंत्री,ऐसी दयनीय स्थिति को सुधार सकता है। स्पष्ट है कि कोई ५० वर्ष से कम आयु का युवा ही साहसपूर्ण निर्णय ले सकता है,अन्यथा इन वयोवृध्द नेताओं की आत्मा में गीतासार प्रवेश कर जाता है। जो हुआ,अच्छा हुआ,जो हो रहा है,अच्छा हो रहा है,जो होगा वह भी अच्छा होगा। तुम क्या लाए थे और इस दुनिया से क्या ले जाओगे। जो लिया यहीं से लिया,जो दिया यहीं से दिया। जो आज तुह्मारा है कल किसी और का था और कल किसी और का होगा।फिर दु:ख क्यो मनाते हो। भ्रष्टाचार,महंगाई,भुखमरी जैसी निरर्थक बातों से उपर उठकर जो कुछ तेरा है वो इन नेताओं को अर्पण करता चल,इसी में तेरी भलाई है। अर नहीं तो तेरी हालत ये लोग बाबा रामदेव,अन्ना हजारे,केजरीवाल से बदतर कर देंगे।
सारांश ये है कि बुजुर्ग नेताओं से भविष्य में देश को सुरक्षित रखना असंभव है। घूसखोरी,घपलों घोटालों में मसरूफ मंदगति मनमोहनी मंत्रीमण्डल से देश कब तक महफूज रहेगा,सोचने का बात है।