बिहार-जातिवाद की जीत,विकास और सुशासन की हार
-तुषार कोठारी
बिहार के नतीजे आने के साथ ही विश्लेषणों का सिलसिला भी चालू हो चुका है। पिछले दिनों में चुनाव नतीजों के जितने भी विश्लेषण सामने आए है,उनमें से अधिकांश में ऐसा लगता है,जैसे सच को छुपाने की कोशिशें की जा रही है। लोकसभा चुनाव में भाजपा की जीत से बौखलाए हुए लोगों को अब जाकर अपनी भडास निकालने का मौका हाथ लगा है। यह तय है कि चुनाव में मोदी की हार हुई है,लेकिन जीत किसकी और क्यों हुई इस बात के विश्लेषण में विश्लेषकों ने तथ्यों को परे रखते हुए अपने मन की जमकर भडास निकाली है।
आप पार्टी से निकाले गए एक विश्लेषक ने इसे लोकतांत्रिक मूल्यों की जीत तक बता डाला। जैसे लोकसभा चुनाव में देशभर के मतदाताओं ने भाजपा को पूर्ण बहुमत देकर लोकतांत्रिक मूल्यों को मिट्टी में मिला दिया था। विश्लेषणों में महागठबन्धन की जीत को नितीश कुमार की ऐतिहासिक जीत बताया जा रहा है। जबकि तथ्य इसके ठीक विपरित है। यह ऐतिहासिक जीत तो है,लेकिन नितीश की नहीं बल्कि यह लालू की ऐतिहासिक जीत है। बिहार के चुनाव में भ्रष्टाचार के मामलों में दोषसिध्द हो चुके और अपील में जमानत पाए एक ऐसे नेता को जीत मिली है,जिसे पूरे देश की जनता कुशासन और जंगलराज का प्रतीक मानती रही है। अधिकांश विश्लेषकों के विश्लेषण वस्तुपरक कम और पूर्वाग्रह से ग्रस्त अधिक नजर आते है। इन विश्लेषणों की एक और खासियत है। जब भी ये विश्लेषक लालू और नितीश की जीत के कारणों पर चर्चा करते है,तो बेहिचक बताते हैं कि लालू नितीश की जोडी ने मुस्लिम मतों के विभाजन को रोक लिया और यादव व अन्य पिछडी जातियों के वोट भी अपने पक्ष से दूर नहीं जाने दिए। इस तथ्य को लालू नितीश की योग्यता के रुप में प्रदर्शित किया जाता है। इसके ठीक विपरित भाजपा दरा हिन्दू वोटों के धु्रवीकरण के प्रयासों को साांप्रदायिकता का नाम दिया जाता है। यह दोहरा मापदण्ड सिर्फ भारत में ही चल सकता है कि छोटे समूहो जैसे अल्पसंख्यक और किसी जाति विशेष का ध्रुवीकरण करना अच्छी और सम्मानजनक योग्यता है,लेकिन इसके विपरित बडे समूह अर्थात हिन्दुओं का ध्रवीकरण सांप्रदायिकता है। ये विश्लेषक एक ही सांस में जीत के लिए जातिगत समीकरण को भी श्रेय देते है और साथ ही नितीश के सुशासन को भी। नितीश के सुशासन का गुणगान करते हुए वे यह भूल जाते है कि चुनाव नतीजे वास्तव में नितीश के खिलाफ है।
पिछले विधानसभा चुनाव में जब भाजपा और नितीश,लालू और कांग्रेस के खिलाफ लड रहे थे,तब नितीश को 115 सीटें मिली थी। इस चुनाव में जब नितीश लालू के साथ मिलकर भाजपा के खिलाफ लडे हैं उनकी सीटें घटकर 71 हो गई है। उन्हे पिछले चुनाव के मुकाबले 44 सीटों का नुकसान हुआ है। भाजपा की सीटों में गिरावट 38 की है। इन दोनों पार्टियों ने कुल 82सीटें खोई हैं। इसके ठीक विपरित लालू को पिछले विधानसभा चुनाव के मुकाबले में 58 सीटों का और कांग्रेस को 23 सीटों को फायदा हुआ है। यानी इन दोनों पार्टियों को कुल मिलाकर 81 सीटों का फायदा हुआ है। यानी कि जितनी सीटें भाजपा और जेडीयू ने खोई,उतनी ही लालू और कांग्रेस को बढत मिली। केवल एक सीट अन्य के खाते में गई।
यदि नितीश को अपने सुशासन पर ही भरोसा होता तो वे लालू से हाथ मिलाने की बजाय खुद के बलबूते पर चुनाव लड लेते। नितीश की सीटों में आई कमी को कोई भी विश्लेषक यह क्यों नहीं मानता कि मतदाताओं ने लालू के साथ उनके गठजोड को कम पसन्द किया। साथ ही यह भी कि जब मतदाताओं ने देखा कि नितीश को भी लालू की ही शरण में जाना पडा,तो वे भी लालू के पक्ष में लामबन्द हो गए और लालू को ऐतिहासिक जीत मिल गई। आज लालू की राजद बिहार की सबसे बडी पार्टी है।
सुशासन के आधार पर जीत का वास्तविक उदाहरण या तो गुजरात है या फिर मध्यप्रदेश। इन दोनो ही राज्यों के मतदाताओं ने लगातार तीन चुनावों में भाजपा के मुख्यमंत्रियों के पक्ष में मतदान किया। न तो शिवराज को और ना ही नरेन्द्र मोदी को कभी किसी अन्य पार्टी से गठजोड करने की जरुरत पडी। यह भी वास्तविक तथ्य है कि गुजरात और मध्यप्रदेश में जातिगत आधार पर मतदान नहीं होता। चूंकि मतदाता जातिगत आधार पर बन्धे हुए नहीं है,इसलिए इन राज्यों में चुनाव सचमुच विकास के मुद्दें पर लडा जाता है। बिहार में कहने के लिए कोई भी मुद्दा सामने रखा जाए,आखिरकार लोग विवाह और मतदान जाति देखकर ही करते है। ऐसे में यह कहना कि मतदाताओं ने सुशासन के लिए नितीश को वोट दिया कितना सही माना जा सकता है। एक विश्लेषक ने लिखा कि बिहार को लोग विकास तो चाहते है,लेकिन मैट्रो ट्रेन और डिजीटल इण्डिया वाला नहीं,बल्कि सड़क बिजली पानी जैसी आधारभूत सुविधाओं वाला विकास चाहते हैं। वे खुद ही मान लेते है कि आजादी के65 सालों बाद भी बिहार में सड़क बिजली पानी जैसी मूलभूत सुविधाएं नहीं है। इसीलिए लोगों को मूलभूत सुविधाएं चाहिए। वैसे भी मूलभूत सुविधाएं होने के बाद ही विकास के अगले चरण में जाया जा सकता है।
कुल मिलाकर चुनाव के नतीजे निश्चित तौर पर भाजपा के लिए आत्मावलोकन और आत्मविश्लेषण का अवसर दे रहे हैं। लेकिन यह भी तय है कि महागठबन्धन को मिली जीत ना तो सुशासन की जीत है और ना विकास के मुद्दे की। यह सीधी सीधी जातिवाद की जीत है। और जातिवाद की जीत हिन्दुत्व को पीछे धकेलती है। भाजपा को आत्ममन्थन करना होगा कि उसके प्रचार अभियान में हिन्दुत्व पीछे क्यों और कैसे छूटने लगा है। बिहार जैसे पिछडे हुए राज्य के लिए आज भी विकास से पहले जातिवाद है,और जब तक जातिवाद कायम है विकास का मुद्दा बेमतलब है। विश्लेषणों में यह तथ्य भी छूट गया है कि फिलहाल तो लालू ने नितीश को ही मुख्यमंत्री बनाने की बात कही है। लेकिन नितीश से अधिक सीटें जीते हुए लालू कितने समय तक और किस हद तक नितीश के नेतृत्व को स्वीकार करेंगे? जिस सरकार को लोकतांत्रिक मूल्यों की और असहिष्णुता पर सहिष्णुता की जीत वाली सरकार बताया जा रहा है उसका प्रशासन किस माडल का होगा? लालू के बिहार माडल का या भाजपा के साथ रहे नितीश वाले बिहार माडल का? या दोनो माडल साथ चलेंगे और एक दूसरे की राह का रोडा बनेंगे?