May 13, 2024

बाजीराव के वंशज आज भी एक सामान्य से घर में रहते हैं

पुणे,18 दिसम्बर(इ खबरटुडे)।पुणे के कोथरूड इलाक़े में एक सामान्य से घर में रहते हैं महेंद्र पेशवा. भारत की राजनीति में अंग्रेज़ों के आगमन से पूर्व 125 सालों तक प्रभुत्व जमाने वाले और दिल्ली की गद्दी को नियंत्रित करनेवाले पेशवाओं के वंशज अब सामान्य ज़िंदगी जी रहे हैं.पेशवा के वंशज पुणे में रहते हैं, यह जानकारी इतिहास में रुचि रखने वाले गिन-चुने लोगों को ही है. आमतौर पर कोई इन्हें नहीं पहचानता.

 
पेशवा घराने के दो परिवार पुणे में है
महेंद्र पेशवा कहते हैं, “ट्रैफ़िक हवलदार भी अगर पेशवा का लाइसेंस देखता है और उस पर पेशवा नाम देखता है तब भी उसे कोई अचरज नहीं होता. क्योंकि पेशवा का वंशज हमारे सामने है यह अहसास ही उसे नहीं होता.”पेशवा घराने के दो परिवार पुणे में है. एक है डॉक्टर विनायक राव पेशवा, उनकी पत्नी जयमंगलाराजे, बहू आरती और उनकी बेटियां. यह पेशवा घराने की 10वीं पीढ़ी है. 74 वर्षीय विनायकराव भूगर्भ विशेषज्ञ हैं और इसी विषय के प्राध्यापक के रूप में उन्होंने पुणे विश्वविद्यालय में 33 वर्ष नौकरी की.
ख़ानदानी जायदाद या संपत्ति नहीं है
 
दूसरा परिवार विनायकराव के बड़े भाई कृष्णराव का है जो हाल ही में गुजर गए. महेंद्र उन्हीं के बेटे हैं. कृष्णराव की पत्नी उषा राजे, बेटा महेंद्र, बहू सुचेता और उनकी बेटी यहां रहते हैं. महेंद्र का अपना फैब्रिकेशन का व्यवसाय है.ये सारे सदस्य पेशवा ख़ानदान के अमृतराव पेशवा के वंशज हैं. पुणे में जो पेशवा रहते हैं, उनके पास ख़ानदानी जायदाद या संपत्ति नहीं है.
अंग्रेज़ों ने पेशवाओं की कई संपत्तियां अपने क़ब्ज़े में ले लीं थीं. अमृतराव सन् 1800 के आसपास वाराणसी चले गए थे. कई पीढ़ियों तक ये लोग वहीं रहे. लेकिन तीन पीढ़ी पहले पेशवा पुणे में आ गए.
आज उनके पास अपना कहने के लिए केवल दो बाते हैं.
एक तो पेशवा उपनाम और दूसरा मंदिर. ये मंदिर भी पुणे में नहीं हैं. वाराणसी के गणेश घाट पर स्थित गणपति का मंदिर तथा वहीं के राजाघाट पर अन्नछत्र पेशवाओं को विरासत के रूप में मिले थे.इनमें से अन्नछत्र अब नहीं है. गणपति घाट के मंदिर का सारा इंतजाम आज भी पेशवा ख़ानदान के पास है. दोनों पेशवा परिवारों ने मिलकर इसके लिए ट्रस्ट की स्थापना की है.
पेशवा द्वारा स्थापित पर्वती, मृत्युंजयेश्वर मंदिर जैसे कुछ मंदिर आज भी पुणे में
इसके माध्यम से मंदिर का प्रबंध किया जाता है. चूंकि इस मंदिर का प्रबंधन ट्रस्ट करता है, इससे उन्हें कोई लाभ नहीं मिलता.
विरासत के तौर कहने के लिए पेशवाओं के लिए यह एकमात्र वस्तु है. इस मंदिर में पेशवाओं की तरफ़ से हर वर्ष पारंपरिक रूप से गणेशोत्सव मनाया जाता है.यह उत्सव उत्तर भारतीय परंपरा के अनुसार होता है. पेशवा द्वारा स्थापित पर्वती, मृत्युंजयेश्वर मंदिर जैसे कुछ मंदिर आज भी पुणे में खड़े हैं, जिनका प्रबंधन देवदेवेश्वर संस्थान करता है.
विनायकराव पेशवा इस संस्थान के विश्वस्त मंडल में हैं, लेकिन उसकी अध्यक्षता पुणे के विभागीय आयुक्त करते हैं. इस तरह इन मंदिरों में उनकी उपस्थिति नाममात्र है. ध्यान देने की बात है कि पेशवा बाजीराव के पुत्र पेशवा नानासाहब की मृत्यु पार्वती मंदिर में स्थित एक इमारत में हुई थी.
उत्तर प्रदेश में पेशवाओं के लिए सम्मान की भावना दिखती है-महेंद्र 
महेंद्र पेशवा का अपना व्यवसाय है. वे कहते हैं, “जब भी किसी नए व्यक्ति से पहचान होती है, तो लोग पूछते है, आप तो पेशवा हैं, आपको उद्यम-व्यवसाय की क्या ज़रूरत है?”महाराष्ट्र के बाहर मध्य प्रदेश में पेशवा के लिए बहुत आदर और अपनापन होने का उनका अनुभव है.महेंद्र के पिता केंद्र सरकार की नौकरी में थे. इसलिए उनकी पढ़ाई बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश में हुई थी.महेंद्र कहते हैं, “पुणे में पेशवाओं की जितनी जानकारी लोगों को है, उससे अधिक जानकारी या आदर उत्तर प्रदेश में है. पेशवाओं के लिए सम्मान की भावना वहां दिखती है.”
पेशवा बाजीराव जयंति, पुण्यतिथि पर  कार्यक्रमों का आयोजन किया है.
“पानीपत युद्ध की स्मृति समारोह जैसे कार्यक्रमों में उन्हें बुलाया जाता है. वहां जो आदर मिलता है उसे भुलाया नहीं जा सकता.”
हालांकि अन्य राजघरानों की तरह पेशवाओं को अपनी जायदाद संभालने की तकलीफ नहीं उठानी पड़ती. अपने पूर्वजों के बारे में पूछने पर वे कहते हैं, “शनिवारवाडा हो या फिर पेशवाओं के पराक्रम का गवाह कोई और स्थान, वहां जाते ही सीना गर्व से तन जाता है.” इसी गर्व के कारण उन्होंने पेशवा बाजीराव जयंति, पुण्यतिथि जैसे कार्यक्रमों का आयोजन किया है.
दस वर्षों पूर्व ‘मराठी राज्य स्मृति प्रतिष्ठान’ नामक संस्था की स्थापना की गई. यह संस्था पुणे में कई कार्यक्रमों का आयोजन करती है. उनके प्रयासों के चलते पेशवा बाजीराव पर डाक विभाग ने एक टिकट जारी किया था.अंग्रेज़ों ने जब सत्ता हथियाई थी, उस समय पेशवा दूसरे बाजीराव की सारी संपत्ति और हथियार ज़ब्त करते हुए उन्हें उत्तर प्रदेश के बिठूर में भेज दिया था. वहां उन्हें सालाना 80 हजार पाउंड की पेंशन दी जाती थी.उनकी मृत्यु के बाद अंग्रेज़ों ने इसे बंद कर दिया जिसके कारण बाजीराव के बेटे नानासाहब ने 1857 में विद्रोह कर दिया.

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