साम्प्रदायिकता ,धर्मनिरपेक्षता से होते हुए असहिष्णुता तक के शब्दों का सफ़र
– डॉ. रत्नदीप निगम
साम्राज्यवाद से प्रारम्भ होकर समाजवाद , साम्प्रदायिकता ,धर्मनिरपेक्षता से होते हुए असहिष्णुता तक के शब्दों का सफ़र भारत ने कर लिया है । मै इन महान् शब्दों को केवल शब्द कहकर उनका अवमूल्यन नहीं कर रहा क्योंकि इन शब्दों को भारतीय समाज में स्थापित करने का प्रयास करने वाले विचारकों ने ही इनका अवमूल्यन कर दिया है ।मै तो यह बताने की कोशिश कर रहा हूँ कि भारत की स्वतंत्रता के पश्चात् किस तरह भारत की जनता पर यह शब्द विचार ,सिद्धांत और वाद बनाकर थोपे गए परंतु भारतीय जनमानस में समरस होने में ये सारे वाद , विचार और सिद्धांत विफल रहे । इनकी विफलता का मुख्य कारण यह रहा कि इनको क्रियान्वित करने वाले नेतृत्व ने यह अपेक्षा चाही कि जनता तो इन शब्दों की हमारे द्वारा तय की गयी व्याख्या स्वीकार करे परंतु हम स्वयम् इन व्याख्याओं के अनुसार चलने को बाध्य नहीं है । हमारी आजादी की लड़ाई लोकमान्य तिलक , महात्मा गाँधी और सुभाष चंद्र बोस के नेतृत्व में जब लड़ी गई तब इनका लक्ष्य एक ही था विदेशी शासन से मुक्ति । इन महान् स्वतंत्रता सेनानियो ने कभी नहीं कहा कि हमें ब्रिटिश साम्राज्यवाद से मुक्ति चाहिए बल्कि उनका संघर्ष था ब्रिटिश शासन से स्वतंत्रता । यदि उनका संघर्ष साम्राज्यवाद से होता तो गाँधी द्वितीय विश्व युद्ध में अंग्रेजो का साथ क्यों देते ?, नेहरू यह क्यों कहते कि जापान ने भारत पर आक्रमण किया तो अंग्रेजो की ओर लड़ने वाला मै पहला भारतीय रहूँगा ,नेताजी सुभाष चंद्र बोस भारत की स्वतंत्रता के लिए हिटलर और जापान से सहायता क्यों माँगते । लेकिन भारत में आजादी के पश्चात् स्कूली पाठ्यक्रमों से लेकर अकादमिक साहित्यिक संस्थानों में साम्राज्यवाद को इस तरह स्थापित किया जैसे अमेरिकी साम्राज्यवाद ही साम्राज्यवाद शब्द का पर्यायवाची हो । जब चीन ने तिब्बत को और रूस ने हंगरी पर आक्रमण कर कब्ज़ा कर लिया तो भारत के तमाम साम्राज्यवाद विरोधी विचारको ने चीन और रूस को साम्राज्यवादी मानने से इंकार कर दिया ।इस तरह स्वतंत्रता पश्चात् देश की जनता इस पाखण्ड की पहली साक्षी बनी ।जब चीन ने भारत पर आक्रमण कर अपने साम्राज्यवादी मंसूबो का प्रदर्शन किया तो अमेरिकी साम्राज्यवाद को पानी पी पी कर कोसने वाले साहित्यकार , विचारक और बुद्धिजीवियों ने तो चीनी आक्रमण के लिए भारत को ही दोषी करार दिया ।ठीक इसी तरह लोकतंत्र की रक्षा और समाजवाद की स्थापना के लिए संघर्ष करने वाले पत्रकार,लेखक और अकादमिक विचारको ने भारतीय लोकतंत्र को समाजवादियो द्वारा परिवार और जातियों का बंधक बनाने पर मौन धारण कर लिया । इतना ही नहीं इसी विशिष्ट वर्ग ने धर्म निरपेक्षता का जड़ विहीन शब्द गढ़ कर समस्त समाजवादी परिवारो और जातिवादी अराजक तत्वों को देश लूटने का प्रमाण पत्र प्रदान कर दिया ।सबसे महत्वपूर्ण विचारणीय बिंदु यह है कि इन सभी साम्राज्यवाद विरोधी ,साम्प्रदायिकता विरोधी , धर्मनिरपेक्ष ,समाजवादियो ने अपने शत्रु और व्याख्या स्वयं तय की ।यदि कोई इनसे भिन्न विचार रखे अथवा असहमति व्यक्त करे तो पहले तो वह जीवित ही नहीं रहेगा , यदि बच गया तो वह बुद्धिजीवी तो हो ही नहीं सकता । देश ने इन लेखको , साहित्यकारों , पत्रकारो , फिल्मकारों , रंगकर्मियों के वामपंथी समूहों का अधिनायकवादी साम्राज्यवाद पिछले 50 वर्षों में देखा है , लेकिन जब इस साम्राज्य को आज के युग के युवाओ ने नव संचार माध्यमो से चुनौती दी और इस गिरोह को ध्वस्त कर दिया तो इन्होंने अपने साम्राज्य को बचाने के लिए फिर एक शब्द असहिष्णुता का दामन थामने का प्रयास किया ।
असहिष्णुता के शब्द को ढाल बनाकर वर्तमान के मतदाताओं द्वारा निर्वाचित सरकार और समाज में स्थापित एवम् स्वीकार्य हो चुकी विचारधारा को बदनाम करने का कुत्सित प्रयास यह अधिनायकवादी तंत्र कर रहा है । इस तंत्र के पाखण्ड की पराकाष्ठा तब हो गई जब इन लेखको , साहित्यकारों ,ने इनके द्वारा निर्मित साहित्य अकादमी और इनके द्वारा ही पुरस्कृत पुरस्कारों को देश में बढ़ती तथाकथित असहिष्णुता के कारण लौटाना प्रारम्भ कर दिया है । वर्तमान शासन को बढ़ती असहिष्णुता का कारण बताने वाले यह भूल गए कि साहित्य अकादमी ना ही शासन का अंग है औरन ही उसके द्वारा दिए जाने पुरस्कार शासकीय है ।इन लेखको ,साहित्यकारों से आज का युवा जो प्रश्न पूछ रहा है वह प्रश्न मिडिया को इनसे पूछने चाहिए , लेकिन मिडिया मौन है जो इसका स्पष्ट संकेत है कि आज के मिडिया संस्थान और पत्रकार समाज से कितने अनभिज्ञ है अथवा यह भी माना जा सकता है कि इन मीडिया संस्थानों में भी अधिनायकवादी तंत्र के ही लोग मौजूद है । समाज इन साहित्यकारों से यह जानने का अभिलाषी है कि जब दादरी के अख़लाक़ और कलबुरगी की तरह ही साहिबाबाद के चौराहे पर प्रसिद्ध रंगकर्मी सफ़दर हाशमी की हत्या कर दी गई तब यह पुरस्कार साहित्य अकादमी को क्यों नहीं लौटाए ? जब शंकर गुहा नियोगी जैसे प्रसिद्द मजदुर नेता को मार दिया गया तब मजदूरो के प्रबल समर्थक सर्वहारा लेखको की आवाज मुखर क्यों नहीं हुई ? जब बंगाल में तृणमूल कांग्रेस को वोट देने वाले मतदाताओ की उँगलियाँ काटी गई तब असहिष्णुता की परिभाषा क्या थी ? जब अपनी जमीन बचाने के लिए नंदीग्राम और सिंगुर में संघर्ष करने वाले 23 मुस्लिम महिलाओ के साथ बलात्कार कर विजय जुलुस निकालने वाले कामरेडों पर साहित्य के विशेषांक क्यों नहीं निकाले गए ?
असहमति के अधिकार की वकालत करने वाला समूह तब कहाँ था जब रात्रि 2 बजे बाबा रामदेव के सभा स्थल पर पुलिस ने हमला किया । यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि वामपंथी साहित्यकारों और विचारको ने आपातकाल का समर्थन किया था । असहिष्णुता पर उपदेश देने वालो को वह दृश्य याद होगा जब वरिष्ट पत्रकार कुलदीप नैयर ने सुप्रसिद्ध नृत्यांगना सोनल मानसिंह को मंच से उतार दिया था क्योंकि सोनल मानसिंह विश्व हिन्दू परिषद् के एक कार्यक्रम में नृत्य कर चुकी थी , इसलिए कुलदीप नैयर का यह कहना था कि जिस कार्यक्रम में मै मुख्य अतिथि हूँ उसमे सोनल मानसिंह नृत्य नहीं कर सकती ।यह असहमति और असहिष्णुता के उपदेशकों की परिभाषा रही है असहमतियों को कुचलने वाले रुसी और चीनी साम्राज्यवादियों के मुखर समर्थको का इतिहास ऐसी अनेक घटनाओ से भरा पड़ा है लेकिन आज वे उसकी अपेक्षा कर रहे है जो उन्होंने कभी दूसरी विचारधाराओ के साथ नहीं किया ।
किसी भी सभ्य समाज का निर्माण एक निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है और उसके लिए संस्कार के साधन की आवश्यकता होती है । जिस देश में चार्वाक के विचार से असहमत होते हुए भी ऋषि का दर्जा दिया हो , जहाँ रावण के शत्रु होते हुए भी उससे ज्ञान प्राप्ति की अभिलाषा हो । उस देश के सांस्कृतिक , समृद्धशाली प्रेरक संस्कारो से सभ्य समाज का निर्माण करने के प्रयास को भगवाकरण कहकर रोकना और दोहरे मापदंडो पर आधारित अधिनायकवादी विचारो को साहित्य , रंगकर्म , फ़िल्म , इतिहास के माध्यम से थोपना देश में विसंगतियों को ही जन्म देगा ।
इस विमर्श में राष्ट्रकवि दिनकर की ये पंक्तियाँ याद आती है
” न केवल पाप का भागी व्याघ
समय लिखेगा उनका भी इतिहास
जो तटस्थ है , समर अभी शेष है ”
प्रेषक
डॉ. रत्नदीप निगम
रतलाम ( म.प्र . )