मूर्खताएं कैसी कैसी…?
(तुषार कोठारी)
मई जून की तपती दोपहर में यदि कोई व्यक्ति स्वेटर पहने हुए दिखाई दे तो उसे आप क्या कहेंगे? जिस तपती गर्मी में शरीर पर पहने हुए सामान्य कपडे भी बोझ जैसे लगते हैं उस मौसम में यदि गर्म कपडे पहने जाए तो इसे निस्संदेह मूर्खता ही कहा जा सकता है। लेकिन हम भारतीय बरसों से ऐसी अनेक मूर्खताओं को ढो रहे हैं। न सिर्फ ढो रहे हैं बल्कि इन पर गर्व भी करते हैं। मजेदार बात यह है कि इनमें से अधिकांश मूर्खताएं उपनिवेशवाद की देन है,जिसे आजादी के बाद भी हम यथावत ढोते जा रहे हैं। किसी ने भी अब तक इस तरह की मूर्खताओं को ढोए चले जाने का कारण तक जानने की कोशिश नहीं की।
केन्द्रीय मंत्री जयराम रमेश ने जब एक विश्वविद्यालय के दीक्षान्त समारोह में जोकरों की तरह पहनी जाने वाली चौकोर टोपी और काले लबादे को पहनने से इंकार किया, तब पहली बार इस मुद्दे पर बहस शुरु हुई कि दीक्षान्त समारोहों में ऐसा परिधान क्यों पहना जाता है? इसका कारण क्या है? सिर्फ यहीं नहीं भारत में इस तरह की दर्जनों बेमतलब और अतार्किक परिपाटियों को निभाया जा रहा है।
हम भारतीयों की स्थिति बेहद दयनीय है। जब हम चाहते है कि हम आधुनिक बनें तो हममें से अधिकांश सिर्फ नकल को ही आधुनिकता मान कर चलते है। मामला शिक्षा का हो या परिधानों का। समारोहों का हो या आयोजनों का। हमारे देश में शायद नकल को ही आधुनिकता का पर्याय मान लिया गया है। नकल के चक्कर में कई तरह की समस्याएं भी उत्पन्न हो जाती है। असल में आम भारतीय एक बडी उलझन में फंसा रहता है। उसे आधुनिक भी होना है और अपनी परंपराओं को पूरी तरह छोडना भी नहीं है। इसके चलते वह जीवन भर विचित्र प्रकार की दुविधाओं में फंसा रहता है।
उदाहरण के लिए विवाह संस्कार को ही देखे। भारत में विवाह वैदिक रीति से होता है। महानगरों के अत्यन्त उच्चवर्ग से लगाकर दूरदराज के गांवों तक विवाह में फेरे,हवन मंत्रोच्चार सब कुछ समान होता है। देश के दूरदराज तक के किसी छोटे से गांव में भी जब किसी गरीब किसान के बेटे का विवाह हो रहा हो,तो वह विवाह के मौके पर बाकायदा थ्री पीस सूट ही पहना हुआ दिखाई देगा। विवाह चाहे मई-जून की तपती गर्मी में हो रहा हो। दूल्हा उस तपती गर्मी में टाई जैकेट और कोट पहन कर गर्मी में तपता हुआ स्वयं को धन्य समझता है कि उसने आधुनिकता को अपना लिया। न सिर्फ दूल्हा बल्कि उसके करीब के कई रिश्तेदार भी तपती दोपहर में थ्री पीस सूट पहने हुए दिखाई दे जाएंगे। उन्हे देखकर कई बार तो ऐसा लगता है कि जैसे विवाह के मौके पर थ्री पीस सूट पहनने का निर्देश वेदों में ही दिया गया हो।
हांलाकि इसके पीछे व्यक्ति की बडा आदमी बनने की दबी हुई चाहत भी होती है। जो व्यक्ति सामान्य जीवन में साहबों की वेशभूषा कोट पेन्ट नहीं पहन सकता,विवाह के मौके पर उसे पहन कर खुश हो लेता है। लेकिन यही समस्या शहरों के मध्यमवर्गीय लोगों के सामने भी है। भरी दोपहर में निकलती किसी बारात में आपको दर्जनों ऐसे लोग दिखाई दे जाएंगे जो सूट पहन कर नाच भी रहे होंगे। ये अलग बात है कि भीतर से उनकी हालत गर्मी की वजह से खराब हो चुकी होती है। ये तो भला हो फैशन डिजाईनरों का,जिन्होने भारतीय पारंपरिक परिधानों को रैम्प पर प्रस्तुत कर दिया,जिसकी वजह से महानगरों के एलीट क्लास में खास मौकों पर भारतीय परिधान भी दिखाई देने लगे। चूंकि वहां भारतीय परिधान दिखाई देने लगे तो अब ये फैशन मध्यम श्रेणी के शहरों और उससे भी नीचे तक नजर आने लगा है। बहरहाल इस पूरे किस्से में अतार्किक बातों को ढोते जाने की समस्या ही अन्तर्निहित है।
बात वही है कि मई जून की तपन में स्वेटर कैसे पहना जा सकता है? लेकिन लोग स्वेटर नहीं बल्कि कोट पहन रहे है। देखने वाले भी उनकी तारीफ कर रहे है और पहनने वाले इसे पहन कर गर्व का अनुभव कर रहे है।
हांलाकि विवाह या किसी खास मौके पर कोई खास परिधान धारण करना किसी व्यक्ति का व्यक्तिगत विषय है लेकिन हमारे देश में ऐसी समस्याएं और भी कई है। न्यायिक व्यवस्था को देखिए। ब्रिटीश न्यायिक प्रणाली की तर्ज पर बनाए गए न्यायालयों के कारण न्यायालय की वेशभूषा भी उतनी ही विचित्र है जितनी दीक्षान्त समारोहो की होती है। फर्क सिर्फ यह है कि दीक्षान्त समारोह में एक चौकोर टोपी भी पहनाई जाती है जबकि कोर्ट में टोपी नहीं पहनना पडती। जिला न्यायालयों और उससे नीचे के न्यायालयों में अभिभाषक के लिए काला कोट पहनना अनिवार्य है। उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय में तो कोट के उपर एक काला लबादा (एप्रिन)और पहनना होता है। न्यायाधीश भी इसी तरह का लबादा औढ कर बैठते हैं। भारत के किसी अभिभाषक ने आज तक यह प्रश्न नहीं उठाया कि काला कोट ही क्यो पहना जाए। काले कोट और एप्रिन पहनने का औचित्य क्या है किस तर्क के आधार पर ऐसी विचित्र वेशभूषा तय की गई है? न्यायालयों के ड्रेस कोड की ही तर्ज पर रेलवे का भी ड्रेस कोड है। रेलवे के टीटी के लिए भी हर मौसम और हर प्रदेश में काला कोट और टाई अनिवार्य है। हांलाकि कुछ पदों पर सफेद कोट भी पहना जाता है। यही बात स्कूली बच्चों की यूनिफार्म में शामिल टाई कोट पर भी लागू होती है।
ठण्डे मौसम वाले देशों में शरीर को पूरी तरह ढंके रहना जरुरी है। ठण्ड के मौसम में पेन्ट शर्ट के साथ टाई,जैकेट और कोट पहनना तो समझ में आता है लेकिन गर्मी के मौसम में टाई से गले को बान्धना और उपर से कोट पहनने का औचित्य कैसे समझ में आएगा। लेकिन बच्चे हर मौसम में टाई बान्धने को मजबूर है। किसी व्यवसाय के लिए निर्धारित वेशभूषा बनाई जाना चाहिए लेकिन वह औचित्यपूर्ण होना चाहिए। लेकिन भारत में अधिकांश पंरपराओं का औचित्य यही है कि वे अंग्रेजों द्वारा लागू की गई है,भले ही तार्किक रुप से उनकी कोई उपयोगिता न हो। सेना और उच्च प्रशासनिक सेवाओं के प्रशिक्षणों में प्रशिक्षणार्थियों को छूरी कांटे से भोजन करना जरुरी होता है। आमतौर पर कुछ खाद्य पदार्थ छूरी कांटे से खाए जा सकते है,लेकिन जब भोजन भारतीय पध्दति का हो तब? सब्जी रोटी को छूरी कांटे से खाना कितना असुविधाजनक होता है,लेकिन फौज के अफसरों के लिए यह जरुरी है। नियम बनाने वालों ने इस बारे में कोई विचार नहीं किया कि युरोप में रोटी सब्जी नहीं खाई जाती,बल्कि ब्रेड खाई जाती है,जबकि रोटी सब्जी भारतीय भोजन है और भारत में भोजन हाथों से किया जाता है। लेकिन फौज के पुराने अपसरों को तो अंग्रेजों की नकल करना थी,इसलिए मेस में भोजन अनिवार्यत: छूरी कांटे से करने का नियम बना दिया गया,जो आज तक जस का तस है।
ऐसी और भी तमाम बातें है। जैसे शिक्षासत्र जुलाई से क्यो शुरु होता है? वित्तीय वर्ष अप्रैल से क्यो शुरु किया जाता है। क्या १ जनवरी वास्तव में वर्ष की शुरुआत का दिन है? जन्मदिन पर मोमबत्तियां बुझा कर केक क्यो काटा जाता है? अधिकांश भारतीय नहीं जानते कि इस तरह की परम्पराएं क्यों चल रही है। लेकिन पिछले कई सालों से ये सब चल रहा है। इसलिए चल रहा है कि १९४७ से पहले हमारे शासक अंग्रेज ऐसा किया करते थे। आजादी के ६५ साल गुजर जाने के बाद भी ये सब चालू है। पता नहीं हम भारत के लोग कब तक ये सब करते रहेंगे?