मध्यप्रदेश में संकटापन्न और दुर्लभ वृक्ष प्रजाति संरक्षण
भोपाल,05 नवंबर(इ खबर टुडे )। देश में सर्वाधिक वन क्षेत्र मध्यप्रदेश में है। प्राचीनकाल से ही मध्यप्रदेश में जड़ी-बूटियों की बहुतायत रही है। विगत कई वर्षों में हुए शोध और अध्ययन में प्रदेश के वन क्षेत्रों में लगभग 216 वृक्ष प्रजातियाँ पाई गई हैं। इनमें से 32 प्रजातियाँ संकटापन्न और दुर्लभ स्थिति में हैं।
वन विभाग ने 14 संकटापन्न और 18 विलुप्ति की कगार पर पहुँची वृक्ष प्रजातियों को बचाने के हर संभव प्रयास शुरू कर दिये हैं। इन प्रजातियों का औषधीय और वन्य-प्राणियों के लिये चारे का महत्व होने के साथ वनवासियों की परम्पराओं, रीति-रिवाजों और विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति से भी गहरा संबंध है। जैव-विविधता की दृष्टि से इनका स्थानीय पारिस्थितिक तंत्र में भी महत्वपूर्ण स्थान है।
अध्ययन में संकटापन्न वृक्ष प्रजातियों को 4 वर्गों-अत्यधिक खतरे में, संवेदनशील और दुर्लभ/खतरे के नजदीक वर्ग में विभाजित किया गया है। प्रदेश में 3 प्रजातियाँ दहिमन, शल्यकर्णी और मेंदा को अत्यधिक खतरे वाली प्रजाति में रखा गया है। शल्यकर्णी वृक्ष की पत्तियाँ महाभारत के युद्ध में सैनिकों के घाव को भरने के लिये ऐतिहासिक रूप से प्रसिद्ध भी हैं।
इसकी छाल और पत्ती शारीरिक दर्द, मधुमेह, बवासीर, गंजापन, कैंसर में भी उपयोग करते हैं। मुख्यमंत्री श्री कमल नाथ ने 27 सितम्बर को भोपाल में वृक्ष महोत्सव के दौरान अन्य दुर्लभ प्रजातियों के साथ इस पौधे को भी रोपा है। दहिमन का प्रयोग स्त्री रोग, रक्त विकार, ह्रदय विकार, रक्तदाब, चर्मरोग और विष विकार में किया जाता है। मेंदा छाल और पत्ती का प्रयोग कैंसर, ह्रदय रोग, बवासीर, हड्डी टूटना और पशु रोग में होता है।
खतरे के नजदीक वृक्ष श्रेणी में धावड़ा, सलई, भिलवा, गधा पलाश, धामन, निर्मली, अंजन, मोखा, तिंसा, खरहर, भेड़ार, अचार, कुसुम, भुडकुट, खटाम्बा, पीपरी बड़ प्रजाति और बड़ प्रजाति शामिल है जबकि हल्दू खतरे में (एन्डेंजर्ड) प्रजाति में शामिल है। हल्दू की छाल और पत्ती का प्रयोग पुरुष रोग और चर्म रोग औषधि तथा लकड़ी फर्नीचर बनाने में काम आती है।
धावड़ा या धवा की छाल श्वांस रोग औषधि में प्रयोग की जाती है। धवा की लकड़ी बहुत मजबूत होने के कारण इसका उपयोग कृषि उपकरण बनाने में होता है। इसकी लकड़ी बहुत देर तक जलने के कारण भी मशहूर है। सलई वृक्ष की छाल, बीज और गोंद का प्रयोग टी.बी., घायलावस्था और वात रोग की दवाइयाँ बनाने के साथ खाद्य पदार्थ और सौंदर्य प्रसाधन में भी किया जाता है। भिलवा या भिलमा वृक्ष की छाल और बीज का प्रयोग बाल एवं चर्म रोग के साथ स्याही बनाने में भी होता है।