December 24, 2024

आयुर्वेद के माध्यम से स्वाईन फ्लू से बचें

– वैद्य डॉ.रत्नदीप निगम

एक शब्द जिससे पूरी दुनिया अथवा कह सकते है कि चिकित्सा जगत भयभीत है,वह है फ्लू। आज के आधुनिक संचार माध्यमों से विश्व के किसी भी क्षेत्र में होने वाली बीमारी के बारे में हमे तुरन्त पता चल जाता है। इसका सकारात्मक पक्ष यह है कि हम इससे सावधान हो जाते है और नकारात्मक पक्ष यह है कि हम भयभीत हो जाते है। वर्तमान में हम सब भयभीत है स्वाईन फ्लू नामक बीमारी से। यदि हम पिछले कुछ वर्षों का इतिहास देखें तो ध्यान में आएगा कि प्रतिवर्ष कोई ना कोई फ्लू,चाहे वह बर्ड फ्लू हो या स्वाईन फ्लू हमें परेशान कर रहा है। इस तरह की बिमारियों से लडने के लिए शासन के स्तर पर बडी तैयारी की जाती है। उसमें कभी सफल होते है,तो कभी असफल।
स्वाईन फ्लू, एक विषाणु जिसे हम अंग्रेजी में वाइरस कहते है,से होने वाली बीमारी है। आयुर्वेद इस तरकह के विषाणुजनित रोगों पर समुचित प्रकाश डालता है। आयुर्वेद में ऋ षियों ने विषाणुओं की उत्पत्ति काल,संक्रमण काल,उसके प्रभाव औव उसकी चिकित्सा सहित रोकथाम का विद्वत्तापूर्ण उल्लेख किया है। आयुर्वेद में इसे वातश्लेष्मज विकार कहा गया है अर्थात त्रिदोष सिध्दान्त के अनुसार,वात और कफ के दूषित होने पर यह रोग हमारे शरीर को संक्रमित करता है। वात अर्थात शरीर की जीवनीय शक्ति जिसे हम रोग प्रतिरोधक क्षमता के रुप में जानते है और कफ जो किसी इन्फेक्शन के प्रति संघर्ष में वृध्दि करता है। जब भी कोई विषाणु (वाइरस) वातावरण से हमारे शरीर में प्रवेश करता है तो सर्वप्रथम शरीर की रोग प्रतिरोधक शक्ति उससे संघर्ष करती है और उसे समाप्त कर देती है। लेकिन जब यह इम्यूनिटी दुर्बल हो जाती है तो शरीर में कफ की उत्पत्ति बढ जाती है। फिर इस बढे हुए कफ को नियंत्रित करने के लिए शरीर की चयापचय गतिविधि (मेटाबोलिज्म) अर्थात पित्त की वृध्दि होती है। जिसके फलस्वरुप ज्व अर्थात बुखार हो जाता है।
स्वाइन फ्लू में भी यही प्रक्रिया होती है। जब स्वाइन फ्लू का वाइरस शरीर पर आक्रमण करता है,तो कफ वृध्दि के फलस्वरुप प्राण वायु में अवरोध उत्पन्न होता है,जिसे हम सांस लेने में तकलीफ होना कहते है। वाइरस से संघर्ष में उत्पन्न कफ के कारण होने वाले बुखार से शरीर में जकडन होने लगती है। आज के आधुनिक विज्ञान ने भी इसे प्रामाणिकता प्रदान की है।
आयुर्वेद सहित वर्तमान का आधुनिक विज्ञान भी इस बात पर एकमत है कि किसी भी वाइरस से लडने का सर्वश्रेष्ठ तरीका रोग प्रतिरोधक शक्ति का बेहतर होना और उससे बचाव के उपाय करना है। लेकिन आज के हमारे आहार विहार और एंटी बायोटिक्स के धडल्ले से प्रयोगों ने हमारे शरीर की इम्यूनिटी का क्या हश्र किया है,हम सभी उससे भलीभांति परिचित है।
स्वाइन फ्लू से भयभीत होकर अन्य बडे शहरों की ओर पलायन करने की अपेक्षा हमे अपनी रोग प्रतिरोधक शक्ति को बढाने का प्रयास करना चाहिए।  इसके लिए हमे गुडुची और त्रिकटु एवं तुलसी का सेवन संपूर्ण बसंत ऋ तु में करना चाहिए। आयुर्वेद में ऋ षियों ने लिखा है कि सभी वाइरस(विषाणु) बसंत ऋ तु अर्थात ठण्ड और ग्रीष्म के संधिकाल में ही सर्वाधिक वृध्दि करते है। इस ऋ तु में शरीर में ऋ तुदोष  के फलस्वरुप कफ में वृध्दि बनी रहती है,जिससे शरीर की देहाग्रि( इम्यूनिटी पावर) कमजोर हो जाती है।इससे शरीर आसानी से विषाणु का शिकार हो जाता है। अत: कफ की वृध्दि करने वाले खाद्य पदार्थ दही,छाछ,शीतल पदार्थ और मीठी चीजों से बचें,दिन में बिलकुल ना सोएं। सबसे महत्वपूर्ण है वातावरण को विषाणु मुक्त बनाने के लिए शांतिकुंज हरिद्वार(गायत्री परिवार) की हवन सामग्री का धुंआ प्रतिदिन घर एवं मोहल्ले में करे,क्योंकि यह हवन सामग्री जडी-बूटी से निर्मित है,जबकि बाजार में मिलने वाली हवन सामग्री विषाणुओं को समाप्त करने में समर्थ नहीं है। यह वैज्ञानिकों द्वारा सिध्द किया जा चुका है।
वर्तमान में एक विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है कि भय के वातावरण में कुछ लोग मलेरिया की औषधियों का काढा पीना शुरु कर देते है,परंतु मलेरिया और फ्लू अलग अलग है,इसलिए आयुर्वेद के नाम पर कुछ भी अनुचित ना करें और आयुर्वेद चिकित्सकों से उचित मार्गदर्शन प्राप्त करें। यह निश्चित है कि विज्ञान सम्मत आयुर्वेद हम सभी को प्राचीनकाल से आज तक विभिन्न भयानक विषाणुओं से हमारी रक्षा करता आ रहा है।

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