असहिष्णुता: परिभाषाओ की विकृति का दौर
– डॉ.रत्नदीप निगम
आज प्रातः समाचार पत्र में सुबह से एक खबर ढूँढ रहा था ,जो बांग्लादेश से थी लेकिन सारे प्रयास व्यर्थ थे । कहीं किसी भी समाचार पत्र में उसका कोई उल्लेख नहीं था । वास्तव में वह खबर केवल बांग्लादेश के कुछ समाचार पत्रों में प्रमुखता से प्रकाशित हुई थी । इस खबर का घटनाक्रम यह था कि दीवाली के महापर्व पर बांग्लादेश की एक छोटी बस्ती में एक हिन्दू परिवार मध्य रात्रि को महालक्ष्मी पूजन कर रहा था तभी वहाँ के मुस्लिम लोगो ने उस परिवार पर हमला कर उस परिवार की हत्या कर दी , और नृशंसता की पराकाष्ठा तब हो गयी तब तुलसी देवी जो कि गर्भवती थी , उसे इतना मारा कि गर्भपात हो गया और उस बच्चे को गर्भ से खींच लिया गया । उस मृत बच्चे के ह्रदय विदारक फोटो बांग्लादेश के समाचार पत्रों में प्रकाशित हुए । जो इंटरनेट के माध्यम से देखे जा सकते है। यही खबर सुबह से विचलित किये जा रही थी । यूनान के तट पर एक बालक की तस्वीर पूरी दुनिया खासकर भारतके लिए मानवता की प्रतीक बन जाती है , मिडिया चैनलो के प्राइम टाइम की चर्चा का केंद्र बन जाती है , समाचार पत्रो के मुख्य पृष्ठ का प्रमुख शीर्षक हो जाती है लेकिन तुलसी देवी के मृत गर्भपातीक पुत्र को कोई स्थान प्राप्त नहीं होना हमारे सारे लोकतान्त्रिक विमर्श पर अथवा कहे तो विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के दम्भ पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करता है ।
इस घटना ने एक विचार के बीज बो दिए कि यूनान के तट और तुलसी देवी के पुत्र में अंतर क्या था ? यदि मानवता की परिभाषा में इसे चिन्हित करे तो कोई अंतर नहीं लेकिन भारत में तो सेकुलरिज्म , असहिष्णुता की तरह मानवता की परिभाषा भी तो अलग अलग है । फिर किस वाद में इस अंतर को रखा जाये । भारत के दृष्टिकोण से यदि इस अंतर की व्याख्या की जाये तो इसे धर्म निरपेक्ष आचरण कहा जाना चाहिए क्योंकि हमारे यहाँ धर्म निरपेक्षता में धर्म का विशेष महत्व है । धर्म निरपेक्षता वादियो की दृष्टि में यूनान के तट पर मृत नन्हा बालक मुस्लिम था और बांग्लादेश में मृत नवजात हिन्दू था अतः जिस तरह इस देश के संसाधनों पर पहला अधिकार मुस्लिमो का है उसी तरह चर्चा एवम् चिंता का केंद्र बिंदु बनने का प्रथम अधिकार मुस्लिम बालक का है । इस देश में प्रगतिशील और वैज्ञानिक सोच का भी महत्व है क्योंकि यही वर्ग देश की बुद्धिजीविता को प्रमाण पत्र प्रदान करता है । इनके दृष्टिकोण से देखा जाये तो हिन्दू नवजात बालक को प्रमुखता देना मुस्लिम बालक के साथ अन्याय होगा क्योंकि मुस्लिम बालक आयु में बड़ा और जीवित था जबकि बांग्लादेशी बालक तो जन्मा ही नहीं अर्थात उसकी मृत्यु तो हुई ही नहीं । मिडिया के वरिष्ठ विश्लेषकों और एंकरों का भी समाज को दिशा देने में एक भूमिका होती है इसलिए उनके विचारो की कसौटी पर भी इस अंतर को रखा जाना चाहिए । उनके विचार से यूनान में मृत मुस्लिम बालक आतंकवाद से पीड़ित था जबकि बांग्लादेश में मृत नवजात जातीय हिंसा का शिकार हो गया , चूँकि आतंकवाद एक अंतर्राष्ट्रीय समस्या है जबकि जातीय हिंसा एक आंतरिक मामला , इसलिए अंतर्राष्ट्रीय फोकस यूनान के तट का बालक होना चाहिए न कि बांग्लादेश का हिन्दू बालक ।
इस सम्पूर्ण विमर्श में महाविद्यालयीन जीवन के वह दिन याद आ गए जब झाबुआ के नवा पाड़ा ग्राम में नन के साथ हुए बलात्कार की चर्चा पूरे विश्व में थी और तभी खरगोन जिले की सेंधवा तहसील के ग्राम जामली में गायत्री परिवार की एक सेविका के साथ भी ऐसी ही घटना घटी थी । तब दोनों घटनाओं की तुलना करते हुए एक कविता लिखी थी और उसका पाठन जनवादी लेखक संघ की एक काव्य गोष्ठी में किया था , वहाँ उपस्थित सभी प्रगतिशील कवियों ने उस रचना को साम्प्रदायिक रचना करार दिया था क्योंकि नवा पाड़ा और जामली की घटना पर हुए भेदभाव युक्त पाखंड को कविता के माध्यम से रेखांकित किया गया था । आज फिर इंटरनेट की इस दुनिया में वही पाखंडी विमर्श हमारे सामने उपस्थित है । जिस तरह उस कविता का सारांश यह था कि दुष्कर्म से पीड़ित महिला सिर्फ महिला होती है न कि हिन्दू महिला अथवा ईसाई महिला , उसी तरह हिंसा का शिकार मृत बालक न हिन्दू होता है न मुस्लिम , फिर क्यों यह वर्ग प्रगतिशीलता , धर्मनिरपेक्षता , वैज्ञानिक सोच का चोला ओढ़कर मानव मानव में भेद करते है । इस सम्पूर्ण विमर्श से एक निष्कर्ष तो स्पष्ट हो जाता है कि वर्तमान में जो असहिष्णुता का दौर बताया जा रहा है वह वास्तव में परिभाषाओ की विकृति का दौर है । जिसमे परिभाषाएं वे लोग तय कर रहे है जिन्होंने कभी भी विपरीत विचारधारा की परिभाषाओं को स्वीकार ही नहीं किया और यहाँ तक कि स्वयम् के द्वारा निर्धारित परिभाषाओं का भी कभी पालन नहीं किया । इसी अन्याय के प्रति जब आज का युवा आक्रोशित होकर नव संचार माध्यम पर तीखे प्रश्न करता है तब युवा पीढ़ी के चुभते प्रश्नो को असहिष्णुता कहा जाता है क्योंकि उनके पास इन प्रश्नो के उत्तर नहीं होते है । जो समाज को तय करना है वह जब सत्ताओ के माध्यम से तय होता है तब अन्याय होना तय है जैसा मृत बालको के मामले में किया गया ।