चमक खोता जा रहा है मोहर्रम का पर्व
कट्टरपंथी वहाबी विचारधारा के फैलाव का असर
रतलाम,4 अक्टूबर (इ खबरटुडे)। नवरात्रि और विजयादशमी के तुरंत बाद मोहर्रम का पर्व मनाया जाना है,लेकिन मातम के इस त्यौहार मोहर्रम को मनाने की पंरपरा अब कमजोर होती नजर आ रही है। पहले जहां मुस्लिम समाज की प्रत्येक बिरादरी द्वारा भव्य व आकर्षक ताजिये बनाए जाते थे,वहीं अब इनकी तादाद में कमी आती जा रही है। अनेक बिरादरी के लोगों ने ताजिये बनाना बंद कर दिया है। सांप्रदायिक सौहार्द्र के प्रतीक बन चुके इस पर्व की कमजोर होती चमक मुस्लिम समाज में कट्टरवादी वहाबी विचारधारा के फैलाव और सूफीवाद के कमजोर होने को भी दर्शाती है और यह भविष्य में देश के सांप्रदायिक सद्भाव को बुरी तरह नुकसान पंहुचा सकती है।
मोहर्रम सिर्फ भारत में
उल्लेखनीय है कि पूरे विश्व में केवल भारतीय उपमहाद्वीप ही ऐसी जगह है,जहां मोहर्रम के मौके पर ताजियों का जुलूस निकाल कर उन्हे ठण्डा किए जाने की परंपरा है। मोहर्रम की यह परंपरा,इस्लाम के सूफीवाद के चलते प्रारंभ हुई थी। ताजियों का जुलूस रातभर सड़कों पर रहता है। सभी समुदायों के लोग इन जुलूसों में शामिल अखाडों के करतब और ताजियों की खुबसूरत कारीगरी को निहारने के साथ साथ ताजियों के नीचे से निकलकर सवाब भी हासिल करते है। लोग बडी श्रध्दा के साथ ताजियों के नीचे से निकलते है और इनमें बडी संख्या में गैरमुस्लिम लोग भी होते है। जिन लोगों की मन्नतें पूरी होती है,वे ताजियों के नीचे से निकल कर तबर्रुक (प्रसाद) भी बांटते है। यही नहीं अनेक हिन्दू परिवार भी ताजियों का निर्माण करते है। मोहर्रम पर अनेक संस्थाओं द्वारा छबीलें लगाकर शर्बत आदि का वितरण किया जाता है। वास्तव में मोहर्रम का पर्व ही सांप्रदायिक सद्भाव और साझी संस्कृति का प्रतीक है। इस पर्व के आयोजन पर भारतीय संस्कृति की छाप स्पष्ट नजर आती है।
कम हो रहे है ताजिये
लेकिन अब ताजियों की संख्या और इसमें शामिल होने वाले लोगों की तादाद में कमी आती जा रही है। जानकारों के मुताबिक कुछ मुस्लिम बिरादरियों ने ताजिया बनाना बंद कर दिया है। इसी तरह ताजियों के जुलूस में शामिल होने वालों की संख्या भी घटती जा रही है। इसके पीछे सौहार्र्द्र वाली सूफी विचारधारा का कमजोर होना और कट्टरपंथी वहाबी विचारधारा का अधिक प्रचार होना एक प्रमुख कारण है।
भारतीय सूफीवादी इस्लाम में उर्स, और मोहर्रम जैसी पंरपराएं,संगीत का उपयोग आदि किया जाता है। लेकिन वहाबी विचारधारा इन सब बातों को गैर इस्लामी करार देती है। सूफी विचारधारा में सांप्रदायिक सद्भाव और ईश्वरीय प्रेम का सार निहित है। सूफीवाद में संगीत के माध्यम से कव्वाली आदि गा कर भी खुदा की इबादत को मान्यता दी गई है,वहीं वहाबी विचारधारा इसे हराम मानती है। भारतीय इस्लाम पर अब तक सूफीवाद का ही प्रभाव था,लेकिन बदलते वैश्विक रुख के चलते अब कट्टरपंथी वहाबी विचारधारा भी जगह बनाने लगी है। दरगाहों पर जाने वाले श्रध्दालुओं में जितनी संख्या मुस्लिमों की होती थी,उतनी ही हिन्दूओं की भी होती थी। कई सूफी संतों की दरगाहों पर होने वाले उर्स के आयोजक हिन्दू है।
कट्टरपंथी वहाबी विचारधारा का फैलाव
वहाबी विचारधारा के फैलाव के पीछे अरब देशों द्वारा इसके प्रचार में लगाया जा रहा धन भी एक प्रमुख कारण है। कट्टरपंथी इस्लामिक संस्थाओं के नियंत्रण में चलने वाले मदरसों और मस्जिदों को अरब देशों से भारी आर्थिक सहायता मिलती है और वे इसी सोच वाले कट्टरपंथी उलेमाओं को बढावा देते है। वहाबी विचारधारा के फैलाव के चलते ही दरगाहों पर जाने वाले मुस्लिमों की संख्या में भी गिरावट आती जा रही है। दूसरी ओर धर्मनिरपेक्ष मूल्यों को मान्यता देने वाली सूफी विचारधारा कमजोर होती नजर आ रही है।
इन्ही कारणों का सम्मिलित प्रभाव मोहर्रम के पर्व पर भी पड रहा है। वहाबी विचारधारा के उलेमा और प्रचारक,सामान्य मुस्लिम धर्मावलम्बियों को निरन्तर अपने प्रभाव में लेकर उन्हे इस्लाम के कट्टरपंथी रुप पर चलने के लिए प्रेरित कर रहे है। दूसरी ओर प्रशासनिक अधिकारी कम जानकारी के चलते वहाबी विचारधारा से जुडे मौलवियों और उलेमाओं को अधिक महत्व देने लगे है। वे यह नहीं जानते कि वहाबी विचारधारा का फैलाव अन्तत: विद्वेष बढाने का ही काम करता है। विश्व में पनपे आईएस आईएस और तालिबान जैसे खूंखार आतंकी संगठनों का वैचारिक आधार भी यही वहाबी विचारधारा है। सच्चे इस्लाम के प्रचार के नाम पर यही वहाबी सोच आखिरकार मुस्लिम युवकों को आतंकवाद की ओर प्रेरित करती है।
जानकारियों के अभाव में गलत निर्णय
प्रशासनिक अधिकारियों में जानकारियों के अभाव की वजह से वे कई गलत निर्णय ले लेते है। रतलाम शहर में ही विगत कुछ वर्षों से इस्लामी नववर्ष पर एक जुलूस निकाला जाता था। इस जुलूस पर वहाबी विचारधारा से जुडे लोगों को आपत्ति थी। इसी वर्ग की आपत्ति के चलते प्रशासन ने इस जुलूस को अनुमति देने से ही इंकार कर दिया और यह परंपरा समाप्त हो गई।
रतलाम शहर में कुछ समय पहले इस तरह के और भी प्रमाण सामने आए थे। कुछ समय पहले अल सूफा नामक एक ग्रुप अस्तित्व में आया था। सूफा ग्रुप से जुडे युवकों ने विवाह के दौरान पताशे बांटने जैसी पुरानी पंरपरा पर आपत्ति लेकर विवाद किए थे। हांलाकि बाद में समाज के ही लोगों की पहल पर इन युवकों के विरुध्द कडी कार्यवाही की गई और यह ग्रुप समाप्त हुआ था। यही नहीं रतलाम में सिमी आतंकियों को पनाह देने से लगाकर कुछ युवकों द्वारा आईएसआईएस में शामिल होने की कोशिशें करने के मामले भी सामने आ चुके है।
बहरहाल,इस्लाम के सूफीवाद को मानने वाले बहुसंख्यक लोगों के सामने भी अब बडी चुनौती है कि वे सूफीवाद का ताकत से प्रचार करें और वहाबी विचारधारा को फैलने से रोके। मोहर्रम जैसे पर्व की चमक को कमजोर न होने दें,वरना यदि सूफीवाद कमजोर हो गया,तो आतंकी संगठनों को नई भर्तियां करने में बडी आसानी हो जाएगी।