खतरों में घिरता जा रहा है रतलाम का स्वर्णव्यवसाय
बाहरी कारीगरों के आने से पैदा हो रही है समस्याएं
रतलाम,25 अक्टूबर (इ खबरटुडे)। पूरे देश भर में सोने की शुध्दता के लिए रतलाम की अलग पहचान बनाने वाला स्वर्णकार समाज इन दिनों अस्तित्व के संकट से जूझ रहा है। सुदूर बंगाल से आए सस्ते लेकिन अविश्वसनीय कारीगरों के चलते जहां स्थानीय स्वर्णकारों के सामने समस्याएं खडी हो रही हैं,वहीं रतलाम की पहचान भी खतरे में पडती दिखाई दे रही है।
पूरे देश भर में रतलाम को सोने की शुध्दता के लिए जाना जाता है। रतलाम के सर्राफा बाजार से खरीदे हुए स्वर्णाभूषणों में ९२ प्रतिशत शुध्दता की गारंटी होती है। यहां से खरीदे गए किसी भी स्वर्णाभूषण को पुन: बेचने पर ९२ प्रतिशत सोने के दाम मिलते है,जबकि देश के अन्य स्थानों से खरीदे गए स्वर्णाभूषणों में मात्र ७२ से ८० प्रतिशत तक सोने की वापसी होती है। कई स्थानों पर तो मात्र पचास या साठ प्रतिशत शुध्दता वाले सोने का उपयोग किया जाता है।
सोने की शुध्दता को लेकर रतलाम की यह पहचान दो सौ सालों से अधिक समय से बनी हुई है। कई पीढीयों से स्वर्ण व्यवसाय से जुडे राजेन्द्र कुमार कडेल के मुताबक रतलाम शहर के संस्थापक महाराजा रतनसिंह के साथ ही राजस्थान से आए
मारवाडी स्वर्णकारों ने शुरुआत से ही सोने की शुध्दता पर विशेष ध्यान दिया था और तभी से रतलाम में बनने वाले गहनों पर स्वर्णकार और विक्रेता की सील लगाए जाने की परंपरा स्थापित है। लेकिन पिछले कुछ सालों से यह परंपरा अब खतरे में पडती जा रही है।
रतलाम के स्वर्णव्यवसाय में आए नए खतरें सुदूर बंगाल से आए सस्ते लेकिन अविश्वसनीय कारीगरों की वजह से आए हैं। करीब दो दशक पहले रतलाम के कुछ स्वर्णव्यवसायी सुदूर बंगाल के गरीब कारीगरों को यहां लेकर आए। इन कारीगरों में बेहद कम दरों पर गहने बनाना शुरु किए। देखते ही देखते इनकी तादाद बढने लगी। आज शहर में 3 हजार से ज्यादा बंगाली लोग मौजूद है।
स्वणकार समाज से जुडे आशीष सोनी ने बताया कि बंगाली कारीगरों के आने के बाद रतलाम के स्वर्णव्यवसाय का परिदृश्य ही बदल गया है। स्थानीय कारीगर चाहे आभूषण बनाने की कीमत अधिक लेते है,लेकिन वे शुध्दता से कोई समझौता नहीं करते,लेकिन बंगाली कारीगरों को इस प्रतिष्ठा से कोई लेना देना नहीं है। वे विक्रेता के कहने पर कमजोर क्वालिटी का गहना बनाने में भी कोई परहेज नहीं करते। स्थानीय कारीगर द्वारा बनाए जाने वाले गहने भारी होते है,लेकिन बंगाली कारीगर बेहद कम वजह के गहने भी बनाने को तैयार रहते है। कम वजन के ये गहने बेहद कमजोर तो होते ही है,इनकी शुध्दता की गारंटी भी नहीं होती।
स्वर्ण व्यवसाय का इतिहास
विगत कई पीढियों से स्वर्णाभूषणों की कारीगरी कर रहे राजेन्द्र कुमार कडेल ने बताया कि रतलाम के संस्थापक महाराजा रतनसिंह के साथ सोनी समाज के तीस चालीस परिवार मारवाड से रतलाम आए थे। इनमें कडेल,मिण्डिया और चौैधरी परिवार प्रमुख थे। श्री कडेल का परिवार भी इन्ही परिवारों में से है। श्री कडेल के परिवार को रियासत काल में सरकारी सुनार का दर्जा हासिल था। राज परिवार के सारे गहने और रियासत के सिक्के इत्यादि इन्ही के पूर्वजों द्वारा बनाए जाते थे। आज भी उनके घर में रतलाम रियासत की प्रेसिंग मशीन रखी है,जो भारत की स्वतंत्रता के बाद उन्हे उपहार स्वरुप प्राप्त हुई थी।
श्री कडेल के मुताबिक महाराजा रतनसिंह के साथ आए सोनियों (स्वर्णकारों) ने सोने की शुध्दता के मापदण्ड स्थापित किए थे। वे अपने द्वारा निर्मित समस्त आभूषणों पर अपने नाम की सील लगाते थे,ताकि किसी भी समय सोने की शुध्दता की जांच हो सके। स्वर्ण व्यवसाय से शुरु से आज तक जुडे ये स्वर्णकार समाज के लोग आज भी शुध्दता की परंपरा को बनाए हुए है।
शुध्दता की गांरटी
स्वर्णाभूषण निर्माता आनन्दीलाल जांगलवा का कहना है कि पीढियों से स्वर्णाभूषण बनाने वाले सोनी समाज के लोगों के लिए आज भी शुध्दता को कायम रखना पहली प्राथमिकता है। इसी का परिणाम है कि स्थानीय कारीगरों द्वारा बनाए जा रहे हर गहने पर उनकी सील लगी होती है। खुद आनन्दीलाल जांगलवा अपने गहनों पर ४एए४ की सील लगाते है। स्वर्णाभूषण बेचने वाले प्रतिष्ठित व्यापारी भी गहने पर अपनी सील लगाते है। इस तरह प्रत्येक गहने पर दो सीलें लगी होती है। एक बनाने वाले की और दूसरी बेचने वाले की। यह सील ही ग्राहक के लिए सबसे बडी गारंटी होती है।
स्तर गिराते बंगाली कारीगर
एक अन्य सुनार राजेन्द्र कुमार भरतलाल कडेल ने बताया कि सोने की शुध्दता के मामले में जो थोडी बहुत गिरावट आ रही है,उसके पीछे विक्रेताओं का हाथ है। स्वर्णाभूषण विक्रय करने वाले अनेक व्यवसायी कम मजदूरी में गहने बनाने के लिए सुदूर बंगाल से कारीगर लेकर आए। कम कीमत पर घटिया काम करने वाले इन कारीगरों ने धीरे धीरे बाजार पर कब्जा जमाना शुरु कर दिया। आज स्थिति यह है कि शहर में जहां परंपरा से सुनारी का काम करने वाले सोनी समाज के मात्र दो हजार लोग सुनारी का काम कर रहे हैं,वहीं बंगाली कारीगरों की संख्या तीन हजार के करीब है। स्वर्णकार समाज के कई लोग सुनारी का काम छोडकर अन्य धन्धों में लग चुके है।
श्री कडेल ने बताया कि परंपरा से सुनारी का काम करने वाला सुनार सोने का कोई भी गहना बनाने के लिए मूल्य की चार प्रतिशत राशि मजदूरी के रुप में लेता है। यदि गहना दस हजार रु. का है,तो सुनार इसकी बनवाई चार सौ रु. लेगा। इसके विपरित बंगाली कारीगर बहुत कम मासिक वेतन पर काम करते है। इस वजह से विक्रेता का लाभ बढ जाता है। यही वजह है कि कई सर्राफा व्यवसायी आजकल बंगाली कारीगरों को प्राथमिकता देने लगे है। केवल स्थापित और प्रतिष्ठित व्यवसायी ही स्थानीय सुनारों से काम करवाते है।
काम की क्वालिटी में भी फर्क
स्थानीय सुनारों और बंगाली कारीगरों के काम की क्वालिटी में भी काफी फर्क होता है। स्थानीय सुनार द्वारा बनाए गए गहनें भारी होते हैं,इसीलिए इनमें शुध्दता के साथ मजबूती भी होती है,लेकिन बंगाली कारीगर मात्र २ और ४ ग्राम में अंगूठी या चेन बना देते है। कम वजन वाले इन हलके गहनों में न तो शुध्दता की गारंटी होती है और ना ही मजबूती। ये बेहद कमजोर होते है और जल्दी ही टूट भी जाते है।
चोरी की वारदातें लेकिन रिपोर्ट नहीं
बंगाली कारीगरों के आने से बाजार में कई अन्य समस्याएं भी पैदा हो रही है। बंगाल से आए इन कारीगरों के चरित्र का कोई वैरिफिकेशन नहीं होता। पिछले दिनों में कई व्यापारियों के यहां बंगाली कारीगरों द्वारा सोना चुरा कर भाग जाने की वारदातें हो चुकी है। कुछ समय काम करने के बाद थोडा विश्वास अर्जित कर लेने के बाद कारीगर ५० या सौ ग्राम सोना लेकर भाग जाते हैं। इनमें से अधिकांश वारदातों की रिपोर्ट तक नहीं कराई जाती। कुछेक वारदातों की पुलिस को रिपोर्ट कराई जाती है,लेकिन आज तक पुलिस कभी इन वारदातों को ट्रेस नहीं कर पाई है। स्थानीय सोनी समाज के लोग अनेक बार पुलिस और प्रशासन को इन बंगाली कारीगरों का वैरिफिकेशन कराने की मांग कर चुके है। इस सम्बन्ध में सोनी समाज द्वारा कई बार ज्ञापन भी दिए गए हैं,लेकिन आज तक वैरिफिकेशन नहीं करवाया गया है।
स्वर्णकार समाज के लोगों का कहना है कि बंगाल से आने वाले कारीगरों में अधिकांश अल्पसंख्यक समुदाय के लोग है। इनमें से कई के तो बांग्लादेशी घुसपैठिये होने की भी आशंका है। इसके बावजूद पुलिस प्रशासन द्वारा इस मुद्दे को गंभीरता से नहीं लिया जाता। बडी संख्या में शहर में आ चुके बंगाली कारीगर,शहर के पिछडे इलाकों में कमरे किराये पर लेकर रहते हैं। स्थानीय स्तर पर जोड तोड करके इनमें से कई तो राशन कार्ड तक बनवा चुके है और कुछ ने अपने नाम मतदाता सूचियों में भी दर्ज करवा लिए है। इनकी बढती तादाद किसी भी समय कानून व्यवस्था के लिए खतरा बन सकती है। वैसे भी रतलाम शहर को अत्यन्त संवेदनशील माना जाता रहा है। सिमी से लेकर कई अन्य आतंकवादी संगठनों से जुडे लोग भी यहां आते जाते रहते है। ऐसे में बांग्लादेशी घुसपैठियों के यहां तक पंहुच तक यहां स्थापित हो जाने का तथ्य अत्यन्त चिंताजनक है।
बडी संख्या में बाल श्रमिक
स्थानीय स्वर्णव्यवसाईयों के यहां करीगर के रुप में काम करने वाले बंगाली कारीगर अपने परिवार और रिश्तेदारी के अनेक छोटे बच्चों को भी यहां लाकर काम में लगा देते है। स्थानीय सर्राफा बाजार में चल रहे कारखानों में इन बंगाली बाल श्रमिकों की बडी संख्या है। स्वर्णाभूषण निर्माण में बडे पैमाने पर तेजाब(सल्फ्यूरिक एसिड) व अन्य घातक रसायनों का उपयोग किया जाता है। जो कि मानव जीवन के लिए अत्यन्त खतरनाक होता है। ऐसे में इस उद्योग में बाल श्रमिकों का उपयोग होना भी चिंताजनक है,लेकिन जिम्मेदार सरकारी विभाग इस ओर कतई ध्यान नहीं देते।