धर्म..,
रोज की तरह आज भी फल वाले ने आवाज़ लगाई। मैंने उसकी आवाज़ सुन उसे रुकने को कहा, वह रुक गया। मैं और मेरे पास वाली दीदी हम दोनों उससे फल खरीदने लगे। हम फल खरीद ही रहे थे कि फल वाले के पास एक एक्टिवा स्कूटर रुका,माथे पर लाल तिलक सफ़ेद कुरता पेंट, और गले में भगवा गमझा डाले हुए था। तिलक धारी श्रीमान ने मोटी आवाज़ में कहा – ‘क्यों तुम तिलक क्यों नहीं लगाते’फल वाला थोड़ा डरा फिर बोला अरे लगाया था, किन्तु पसीने के कारण छूट गया,
तिलकधारी बोला अरे! गले में भगवा गमझा ही डाल लेते, कम से कम अपने धर्म का कुछ तो करो, जिससे लगे की तुम धार्मिक हो,फल वाला मुस्कुराते हुए बोला- जी भैया! कल से जरूर करूँगा…!
तिलकधारी स्कूटर वाला तो चला गया। फल वाला- फल तोलते हुए बोला, मेडम पहले भी मुझे किसी ने ऐसी ही बात पर टोका था, तो मैंने तिलक और भगवा गमझा डाल लिया, दूसरे मोहल्ले कॉलोनी में गया तो कई लोग मुझसे बोले, क्या बात है? सब ठीक तो है, आज सब भगवा भगवा, तो कुछ लोगों ने फल खरीदना बंद कर दिया। फल तोलने के बाद बोला, मेडम अगर हम धर्म के आधार पर फल सब्जी बेचेंगे तो हमारा तो धंधा ही चौपट हो जाएगा। मेरे लिए तो ‘मेरा परिवार’ बच्चों का पेट पालना व बच्चों को अच्छी शिक्षा देना ही, ‘मैं अपना धर्म मानता हूँ’।
फल वाला तो चला गया किन्तु लाख टके की बात बता गया.., शायद बड़े बड़े पढ़े लिखें लोग भी अभी तक नहीं समझ सके। अगर सभी लोग अपने ”कर्म को ही धर्म” मान लें तो शायद जो आए दिन हो रहे, जाति विवाद ही समाप्त हो जाए।
नोट – यह लघुकथा पूर्णतः मौलिक एवं अप्रकाशित है।
वैदेही कोठारी स्वतंत्र पत्रकार एवं लेखिका
48 राजस्व कॉलोनी रतलाम(मध्य प्रदेश)