November 22, 2024

Big Blunder : प्रधानमंत्री मोदी की बडी गलती साबित होगी कृषि कानूनों की वापसी

तुषार कोठारी

गुरु नानक देव जी की जयन्ती यानी गुरु परब का दिन सुबह सवेरे लोग हैरान थे कि प्रधानमंत्री मोदी राष्ट्र के नाम सम्बोधन क्यों कर रहे है? अभी ऐसा क्या हुआ है,जिसके लिए मोदी जी राष्ट्र को सम्बोधित करने वाले है। कुछ ही देर बाद सबकुछ साफ हो गया। मोदी जी टीवी स्क्रीन पर आए। कृषि कानूनों को किसानों के फायदे वाला कानून बताते हुए उन्होने कानूनों को वापस लेने की घोषणा कर डाली।

अब हैरानी और बढ चुकी थी। कृषि कानूनों को रद्द करने की मांग को लेकर चालू किया गया आन्दोलनजीवियों का किसान आन्दोलन अपनी मौत मरने की तरफ तेजी से बढ रहा है। ऐसी स्थिति में मोदी जी को किसान कानून आन्दोलन वापस लेने की क्या सूझी? राजनीतिक विश्लेषक अपना अपना विश्लेषण करने लगे। वहीं तमाम नेताओं की प्रतिक्रियाएं सामने आने लगी। लगभग पूरे विपक्ष ने इसे किसानों की जीत और मोदी सरकार के अहंकार की हार बताया। दूसरी तरफ भाजपा के नेता इसे किसानों के हित में स्वागतयोग्य कदम बताने में जुट गए।

लेकिन अब बडा सवाल यही है कि क्या यह निर्णय सही है,या फिर यह मोदी जी की कोई बडी गलती है? प्रत्यक्षत: तो इसे राज्यों के विधानसभा चुनाव से जोड कर देखा जा रहा है। पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव नजदीक है और इनमें से पंजाब सबसे महत्वपूर्ण है। क्योकि किसान आन्दोलन में मुख्यत: पंजाबी जाट ही सर्वाधिक सक्रिय है। हांलाकि आन्दोलन का थोडा असर पश्चिमी उत्तर प्रदेश और उत्तराखण्ड में भी देखा जा रहा है। चुनाव वाले इन तीन राज्यों के अलावा इस आन्दोलन का थोडा असर हरियाणा में भी बताया जा रहा है।

पंजाब की राजनीतिक स्थितियां इस समय बेहद उलझी हुई है। पंजााब के पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिन्दर सिंह कांग्र्रेस छोड कर स्वयं की पार्टी बना चुके है। किसान आन्दोलन को शुरुआती हवा देने वाले अमरिन्दर सिंह ही थे। वे स्वयं बडे जाट नेता है और कांग्र्रेस छोडने के बाद स्वयं ही घोषणा कर चुके है कि यदि कृषि कानूनों की उलझन दूर हो जाती है तो वे भाजपा से गठबन्धन कर लेंगे। भाजपा के लिए अकाली दल के दूर हो जाने के बाद अमरिन्दर से गठबन्धन सुनहरा मौका साबित हो सकता है। ऐसे में कृषि कानूनों की वापसी के साथ ही भाजपा और अमरिन्दर के एक साथ आने का रास्ता पूरी तरह साफ हो गया है। जबकि कांग्र्रेस अपनी अंदरुनी कलह के चलते कमजोर हो रही है। वहीं अकाली दल की हालत इस फैसले के बाद काटो तो खून नहीं जैसी होती दिख रही है। इसी तरह पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भी भाजपा को इस फैसले से कुछ लाभ होने का अनुमान लगाया जा रहा होगा। और यही स्थिति उत्तराखण्ड की भी देखी जा रही है।

चुनावी फायदे के अलावा प्रत्यक्षत: तो कृषि कानूनों को वापस लेने का कोई और कारण नजर नहीं आता। लेकिन अब बात करें इस निर्णय से होने वाले नुकसान की। अचानक से कृषि कानूनों की वापसी की घोषणा होने से मोदी जी को क्या क्या नुकसान हो सकते है?

इसे समझने के लिए हमें थोडा पीछे जाना होगा। सीएए कानून की वापसी के लिए वर्ग विशेष द्वारा चलाए गए आन्दोलन के समय भी लम्बे समय तक रास्ते रोके गए थे और सरकार ने विरोध के अधिकार के नाम पर रास्ते रोकने वालों के खिलाफ कोई कठोर कदम नहीं उठाए। सरकार की तरफ से बार बार कहा जाता रहा कि सीएए कानून से भारत के किसी नागरिक पर कोई असर नहीं पडने वाला। इस मुद्दे पर बहस होती रही। आन्दोलनकारियों से जब भी पूछा जाता कि सीएए कानून में आपको होने वाले नुकसान वाला प्रावधान बताईए। तब आन्दोलनकारी हठधर्मिता अपनाते हुए कानूनोंं को वापस लेने की मांग दोहराने लगते। कई महीनों चले आन्दोलन के बावजूद कभी ये नहीं बताया जा सका कि सीएए कानून में भारतीय नागरिकों पर कौन सा असर पडेगा। इस आन्दोलन की आखरी परिणति दंगों के रुप में हुई,जिसमें ना जाने कितने निर्दोष लोगों को अपनी जान गंवानी पडी।

बस यही वक्त था,जब आन्दोलनजीवियों को यह भरोसा हो गया कि मोदी सरकार घरेलु मोर्चे पर होने वाले विवादों को निपटने में वैसी सख्ती नहीं दिखाती,जैसी कि वह देश की सीमाओं पर दिखाती है। आन्दोलजीवी समझ चुके थे कि सरकार को झुकाने के लिए लम्बे वक्त का आन्दोलन करना जरुरी है।

दूसरा मौका उन्हे किसान कानूनों के रुप में हाथ लगा। जैसे ही किसान कानून पारित हुए,इनका विरोध शुरु हो गया। आन्दोलन की शुरुआत लैफ्ट नेताओं की अगुवाई में हुई। वामपंथी किसान संगठनों द्वारा शुरु किए गए आन्दोलन में फैरन ही तमाम विपक्षी पार्टियां भी जुड गई। आन्दोलन का नेतृत्व वामपंथी आन्दोलनजीवियों के हाथ में ही रहा और जनाधार खो चुकी विपक्षी पार्टियों को इसमें अपने लिए अपार संभावनाएं नजर आने लगी। पंजाब से निकल कर यह आन्दोलन राजधानी की सीमाओं पर आया और जल्दी ही राजधानी के लोगों के लिए नारकीय यातनाएं देने का कारण बन गया। तमाम सीमाएं ब्लाक कर दी गई।

आन्दोलनजीवियों का अंदाजा एकदम सही था कि मोदी सरकार कठोर कार्यवाही करने से हिचकती रहेगी और ऐसा ही हुआ। आन्दोलन की उग्र्रता दिनो दिन बढने लगी और आखिरकार 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस के मौके पर आन्दोलनकारियों ने न सिर्फ दिल्ली को बन्धक बना लिया बल्कि पांच सौ ज्यादा पुलिसवाले घायल हुए और लालकिले पर तिरंगे का अपमान भी किया गया। इस घटना के बाद लोगों को पक्का यकीन हो गया था कि अब इस आन्दोलन को कुचल देने का सही समय आ गया है। सरकार ने तैयारी भी कर ली थी,लेकिन एक राकेश टिकैत के आंसुओं ने सारा खेल बदल दिया और सरकार ने अपने कदम पीछे खींच लिए।

किसान आन्दोलन के बीते चौदह महीनों में ठीक सीएए आन्दोलन की तर्ज पर कोई आन्दोलनकारी किसान नेता यह नहीं बता पाया कि कृषि कानूनों में किसानों के खिलाफ क्या है? सरकार से ग्यारह दौर की बातचीत में भी बार बार यही तथ्य सामने आता रहा कि आन्दोलनकारियों के पास विरोध करने का कोई ठोस आधार नहीं है। इसी लिए स्वयं प्रधानमंत्री मोदी ने उन्हे आन्दोलनजीवी कहा था। यह तथ्य भी हर कोई जानता था कि आन्दोलन के चेहरे वही थे जो सीएए आन्दोलन के समय थे। यह कांच की तरह स्पष्ट था कि इस तरह के आन्दोलन वामपंथी विचारों की उपज है और शेष विपक्ष इसे पीछे से हवा देता है। जबकि इसके विपरित देश के बहुसंख्य किसान और किसान संगठन इन कानूनों के समर्थन में न सिर्फ डटे हुए थे,बल्कि लगातार इन कानूनों के फायदे भी बता रहे थे।

चौदह महीनों के लम्बे अंतराल में किसान आन्दोलन में न सिर्फ खालिस्तानी तत्व सक्रिय दिखे,बल्कि देश विरोधी कई गतिविधियां भी देखने को मिली। आन्दोलन के मंच से अरबन नक्सलियों को छुडाने की मांग भी की जाती रही। यहां तक आन्दोलन स्थल पर बलात्कार और हत्याएं तक हुई। जिसकी अंतिम परिणती एक युवक की तालिबानी अंदाज में हुई हत्या और शव को बैरिकैड्स पर लटकाने की घटना भी सामने आई। लेकिन सरकार ने कुछ नहीं किया।

और आखिरकार मोदी जी ने कृषि कानूनों को सही बताते हुए भी इन कानूनों को वापस लेने की घोषणा कर डाली। देश के देश विरोधी आन्दोलनजीवियों के सामने अब पूरी तरह स्पष्ट हो गया है कि सख्त छबि वाले मोदी वैसे नहीं है,जैसे माने जाते है। घरेलु आन्दोलन से निपटने में वे बेहद कमजोर साबित होते है। तो अब सबसे बडा नुकसान इस घोषणा का यही है कि अब सरकार के लिए ऐसा कोई कदम उठाना कठिन होगा,जो देश के हित में है। क्योंकि जब भी ऐसा कोई कदम उठाया जाएगा,देश विरोधी वामपंथी आन्दोलनजीवी उसके खिलाफ सक्रिय हो जाएंगे। वे समझ चुके है कि आखिरकार मोदी सरकार घुटनों के बल आ जाएगी। घुटनो के बल बैठते समय उन्हे इस बात का भी ख्याल नहीं रहेगा कि उनके इस कदम का समर्थन करने वाले विरोध करने वालों की तुलना में कई गुना अधिक है। लेकिन वे विरोध करने वालों के सामने बेबस नजर आएंगे। उनकी कठोर फैसले लेने वाले नेता की छबि अब टूट चुकी है। इस छबि को पहला धक्का सीएए आन्दोलन ने लगाया था,और दूसरा धक्का 26 जनवरी की घटना ने,लेकिन कृषि कानूनों की वापसी ने उनकी सख्त फैसलों वली छबि को पूरी तरह चकनाचूर कर दिया है।

इसके संकेत भी मिलने लगे है। सुबह नौ बजे मोदी जी ने कृषि कानूनों की वापसी की घोषणा की। लोगों को लगा कि अब किसान आन्दोलन समाप्त हो जाएगा। लेकिन तुरंत ही किसान नेताओं के बयान सामने आ गए कि आन्दोलन तब तक जारी रहेगा,जब तक कि कानून पूरी तरह वापस नहीं हो जाते। इतना ही नहीं आन्दोलनजीवियों ने तुरंत नई मांगे भी सामने रख दी। इसमे एमएसपी के लिए कानून बनाने जैसे कई मुद्दे गिनाए गए। उधर विपक्षी दलों ने भी आन्दोलनजीवियों के सुर में सुर मिलाना शुरु कर दिया। कुल मिलाकर प्रधानमंत्री द्वारा देश से माफी मांग कर कृषि कानून वापस लिए जाने की घोषणा को उनकी सह्रïदयता बताने की बजाय उनकी और सरकार की पराजय के रुप में दिखाया जाने लगा। विपक्षी नेता अब कह रहे है कि आन्दोलन के दौरान जिन किसानों की मौत हुई है,उनके लिए भी मोदी जी को माफी मांगनी चाहिए।

पंजाब विधानसभा चुनावों में कृषि कानूनों की वापसी का कोई फायदा भाजपा को मिल भी जाता है,तो कुल मिलाकर मोदी जी की छबि टूटना इसकी तुलना में बडा नुकसान साबित होगा। क्योकि इसके परिणाम दूरगामी और देशहित के विरुद्ध होंगे।

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