September 20, 2024

धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार का मतलब धर्म परिवर्तन कराने की आजादी नहीं, इलाहाबाद हाई कोर्ट ने सुनाया बड़ा फैसला

प्रयागराज, 14 अगस्त (इ खबर टुडे)। उत्तर प्रदेश में धर्मांतरण मामले में इलाहाबाद हाई कोर्ट का ने बड़ा फैसला सुनाया है। हाई कोर्ट ने धार्मिक स्वतंत्रता और धर्मांतरण में लाइन को साफ किया है। हाई कोर्ट ने कहा कि एक लड़की को इस्लाम में परिवर्तित करने सहित विभिन्न आरोपों का सामना कर रहे एक व्यक्ति की जमानत याचिका को खारिज कर दिया। इलाहाबाद हाई कोर्ट ने हाल ही में कहा कि उत्तर प्रदेश धर्म के गैरकानूनी धर्मांतरण निषेध अधिनियम 2021 के लागू होने का मूल उद्देश्य और कारण सभी व्यक्तियों को धार्मिक स्वतंत्रता की गारंटी देना था। भारत की सामाजिक सद्भाव और भावना को दर्शाता है। इस अधिनियम का उद्देश्य भारत में धर्मनिरपेक्षता की भावना को बनाए रखना था।

इलाहाबाद हाई कोर्ट की जस्टिस रोहित रंजन अग्रवाल की पीठ ने मामले की सुनवाई करते हुए कहा कि संविधान प्रत्येक व्यक्ति को अपने धर्म को मानने, उसका पालन करने और उसका प्रचार करने का मौलिक अधिकार प्रदान करता है। हालांकि, अंतरात्मा और धर्म की स्वतंत्रता के व्यक्तिगत अधिकार को धर्मांतरण के सामूहिक अधिकार के रूप में नहीं बढ़ाया जा सकता है। धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार धर्मांतरण करने वाले व्यक्ति और धर्मांतरित होने वाले व्यक्ति दोनों का समान रूप से है।

जस्टिस अग्रवाल की पीठ ने अपने आदेश में यह भी साफ किया कि संविधान के अनुसार राज्य का कोई धर्म नहीं है। राज्य के समक्ष सभी धर्म समान हैं। किसी भी धर्म को दूसरे धर्म पर वरीयता नहीं दी जाएगी। सभी व्यक्ति अपनी पसंद के किसी भी धर्म का प्रचार, अभ्यास और प्रचार करने के लिए स्वतंत्र हैं। याचिकाकर्ता अजीम आईपीसी की धारा 323, 504, 506 और उत्तर प्रदेश विधि विरुद्ध धर्म संपरिवर्तन प्रतिषेध अधिनियम 2021 की धारा 3/5(1) के तहत दर्ज मामले में आरोपी है।

बदायूं जिले के थाना कोतवाली में मुकदमा संख्या 223/2024 दर्ज है। अभियोजन पक्ष की कहानी के अनुसार, आवेदक ने पीड़िता का वीडियो बनाया था और उसे ब्लैकमेल कर रहा था। हाई कोर्ट ने इस टिप्पणी के साथ आरेापी अजीम को जमानत देने से इनकार कर दिया।

याचिकाकर्ता अजीम पर एक लड़की को जबरन इस्लाम कबूल करवाने और उसके यौन शोषण का आरोप है। इसके चलते उसके खिलाफ आईपीसी की धारा 323, 504, 506 और उत्तर प्रदेश विधि विरुद्ध धर्म संपरिवर्तन प्रतिषेध अधिनियम, 2021 की धारा 3/5(1) के तहत केस दर्ज किया गया है। आवेदक आरोपी ने हाईकोर्ट में याचिका दायर कर दावा किया है कि उसे झूठा फंसाया गया है। उसने दावा किया कि उसके साथ रिलेशनशिप में रहने वाली लड़की स्वेच्छा से अपना घर छोड़कर चली गई थी।

आरोपी ने यह भी दावा किया कि लड़की ने संबंधित मामले में सीआरपीसी की धारा 161 और 164 के तहत दर्ज बयानों में पहले ही उनकी शादी की पुष्टि कर दी थी। दूसरी तरफ, सरकारी वकील ने सीआरपीसी की धारा 164 के तहत उसकी जमानत का विरोध किया। इसमें इस्लाम धर्म अपनाने के लिए दबाव डालने और बिना धर्म परिवर्तन के हुई शादी का जिक्र था।

हाई कोर्ट ने इस मामले में पाया कि सूचक ने सीआरपीसी की धारा 164 के तहत अपने बयान में स्पष्ट रूप से कहा था कि याचिकाकर्ता और उसके परिवार के सदस्य उसे इस्लाम स्वीकार करने के लिए मजबूर कर रहे थे। उसे बकरीद के दिन जानवरों की बलि देखने और मांसाहारी भोजन तैयार करने एवं खाने के लिए भी मजबूर किया गया था। कोर्ट ने आगे कहा कि आवेदक ने कथित तौर पर उसे बंदी बना लिया। उसके परिवार के सदस्यों ने उसे कुछ इस्लामी अनुष्ठान करने के लिए मजबूर किया, जिन्हें उसने स्वीकार नहीं किया। इसके अलावा कोर्ट ने पाया कि सीआरपीसी की धारा 164 के तहत दर्ज किए गए उसके बयान में उसने एफआईआर के संस्करण को बनाए रखा था।

महत्वपूर्ण रूप से कोर्ट ने यह भी नोट किया कि याचिकाकर्ता यह दिखाने के लिए रिकॉर्ड पर कोई भी भौतिक साक्ष्य प्रस्तुत करने में विफल रहा है कि विवाह/निकाह से पहले, उसके और सूचक के बीच कथित रूप से, 2021 अधिनियम की धारा 8 के तहत सूचक को इस्लाम में परिवर्तित करने के लिए एक आवेदन दायर किया गया था। तथ्यों और परिस्थितियों पर विचार करने के बाद कोर्ट ने याचिकाकर्ता की जमानत याचिका को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि 2021 अधिनियम की धारा 3 और 8 का प्रथम दृष्टया उल्लंघन हुआ है, जो उसी अधिनियम की धारा 5 के तहत दंडनीय है।

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