Ayodhya Mosque:अयोध्या की मस्जिद: मौलवी अहमदुल्लाह फैजाबादी और वीर सावरकर का अनूठा संबंध..!
विष्णु शर्मा
आमतौर पर जब भी कभी आप किसी पढ़े-लिखे युवा से पूछेंगे कि इस देश के दो मुस्लिम क्रांतिकारियों के नाम बताओ तो अमूमन सभी की सुई अशफाक उल्ला खान पर अटक जाएगी। ऐसे में जब 5 जून को एलान हुआ कि बाबरी मस्जिद राम मंदिर विवाद में जो जमीन मुस्लिमों को मस्जिद के लिए मिली है, उसका नाम बाबर के नाम पर नहीं बल्कि मौलवी अहमदुल्लाह शाह फैजाबादी के नाम पर रखा जाएगा, तो लोगों का चौंकना स्वाभाविक था।
क्या अशफाक उल्ला के अलावा भी कोई और भी क्रांति की इस जंग में उतरा था, जिसे वो नहीं जानते? अंग्रेजों के खिलाफ क्रांति की मशाल जलाने वाले, उनको देश से भगाने के लिए हथियार उठाने वाले स्वतंत्रता सेनानी मौलवी अहमदुल्लाह शाह फैजाबादी का तो बहुतों ने नाम तक नहीं सुना! लेकिन ऐसे लोग तब और चौंक जाएंगे जब वो ये जानेंगे कि जिसके नाम पर बाबरी मस्जिद के विकल्प के तौर पर ये मस्जिद बनेगी, उसकी अदम्य वीरता की ये कहानी सामने ही नहीं आ पाती, शायद उनको स्वतन्त्रता सेनानी का ये दर्जा मिला ही नहीं होता अगर वीर सावरकर नहीं होते! अगर सावरकर लंदन की उस लाइब्रेरी में जाकर ब्रिटिश सरकार के वो सीक्रेट डॉक्यूमेंट्स बाहर नहीं निकालते, जो भारत के अलग-अलग इलाकों में मौजूद ब्रिटिश अधिकारियों ने लंदन भेजे थे तो फिर मौलवी अहमदुल्लाह शाह फैजाबादी गुमनाम ही रहते।
सारवरकर ने किया था जिक्र
जो लोग एक अशफाक के नाम पर अटक जाते हैं, उन्हें ये जानकर हैरत होगी कि 1857 की क्रांति से ऐसे 25 मुस्लिम क्रांतिकारियों की कहानी खुद सावरकर ने सबसे पहले अपनी किताब ‘1857 का स्वातंत्र्य समर’ या ‘इंडियन वॉर ऑफ इंडिपेंडेंस’ में लिखी। बिना किसी पक्षपात के सावरकर ने अलग-अलग शहरों, कस्बों के उन वीर बांकुरों की कहानियां लिखीं, जिन्होंने 1857 की क्रांति की ज्वाला को अपनी आहुति देने तक जलाए रखा, चाहे वो हिंदू हो या मुस्लिम।
सावरकर को ‘हिंदुत्व’ शब्द और सिद्धांत के जनक और मुस्लिमों के लिए सबसे बड़े खलनायक के तौर पर चित्रित किया गया है, लेकिन सावरकर की ये किताब उनका दूसरा चेहरा बताती है। यही वो किताब थी, जिसके चलते अंग्रेजों ने जिस लड़ाई को सिपाही विद्रोह करार दिया था, आज हम और आप उसे 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के तौर पर जानते हैं।
जब अंग्रेजों ने 1857 की क्रांति की वर्षगांठ पर मनाया ‘विक्ट्री डे’
सावरकर ने मौलवी अहमदुल्लाह फैजाबादी औऱ बाकी मुस्लिम स्वतंत्रता सेनानियों के बारे में क्या लिखा, उसे जानने से पहले सबसे पहले ये जान लेते हैं कि सावरकर के लिए इस किताब को लिखना इतना मुश्किल क्यों था?
1907 की बात है, ब्रिटेन से छपने वाले सभी अखबारों में ‘विक्ट्री’ डे के सरकारी विज्ञापन छपे, सभी में 1857 के विद्रोह को दबाने के लिए अंग्रेजी सेना को धन्यवाद दिया गया था। पूरे पचास साल जो हो गए थे उस घटना को!
6 मई को लंदन के अखबार ‘डेली टेलीग्राफ’ ने बड़ी हैडिंग लगाई, ’50 साल पहले इसी हफ्ते शौर्य से हमारा साम्राज्य बचा था’। इतना ही नहीं इस मौके पर लंदन के एक थिएटर में एक प्ले भी रखा गया, जिसमें रानी लक्ष्मीबाई और नाना साहेब पेशवा जैसे क्रांति के प्रमुख चेहरों को हत्यारे और उपद्रवी की तरह प्रस्तुत किया गया।
विनायक दामोदर सावरकर एक साल पहले ही लंदन पहुंचे थे पढ़ने के लिए, श्यामजी कृष्ण वर्मा की फेलोशिप पर, उन्हें वर्मा ने इंडिया हाउस में रहने की जगह दी थी। सावरकर, लंदन केवल पढ़ने नहीं गए थे और श्याम जी कृष्ण वर्मा भी अपने घर इंडिया हाउस में रहने की जगह इन युवाओं को महज पढ़ने के लिए ही नहीं देते थे।
वो तो दुनिया भर में भारतीय क्रांतिकारियों के सबसे बड़े मेंटर, अभिभावक के रूप में उभरे थे, सारी सम्पत्ति इंडिया हाउस खरीदने और क्रांतिकारियों की पढ़ाई और हथियारों का ख्रर्च देने के लिए दान कर दी थी उन्होंने। तय किया गया कि ब्रिटिश सरकार के इस झूठे दावे का उन्हीं की नाक के नीचे लंदन में विरोध किया जाएगा। इस विरोध की कमान वीर सावरकर के हाथों में दे दी गई।
10 मई का दिन तय किया गया, वो दिन जब क्रांति की पहली चिंगारी 1857 में उठी थी, वो दिन जिस दिन पूरे भारत में क्रांति का दिन तय किया गया था। लंदन में पढ़ रहे सभी भारतीय युवाओं ने 1857 की क्रांति की 50वीं वर्षगांठ के बड़े बड़े बिल्ले अपनी अपनी छाती पर लगाए, सामूहिक उपवास रखा, कई सारी सभाएं भी पूरे दिन रखी गईं और प्रतिज्ञा ली गई कि जब तक सांस चलेगी, भारत की आजादी के लिए लड़ते रहेंगे।
अंग्रेज उनकी इस हरकत से तिलमिला उठे, लेकिन लोकतंत्र और कानून की दुहाई देने वाला इंग्लैंड, भारत में जैसा तानाशाही शासन करता था, वैसा लंदन में नहीं कर पाता था, उसकी अपनी जनता ही उसका विरोध करती थी। फिर भी उन्होंने भारतीयों के इन कार्यक्रमों में तमाम अड़ंगे लगाए, कई जगह भारतीय युवाओं की पुलिस से झड़प हुई। यहां तक कि दो युवाओं को बिल्ले ना हटाने के चलते उनके कॉलेज से निकाल दिया गया, लेकिन उन्होंने बिल्ले उतारने से साफ मना कर दिया, सावरकर से प्रभावित ये दोनों युवा थे हरनाम सिंह और आर एम खान।
अंग्रेजों को जवाब कुछ यूं दिया सावरकर ने
उस साल 10 मई तो गुजर गया, लेकिन भारतीय युवा कहीं ना कहीं अपमानित महसूस कर रहे थे कि कैसे हमारे देश पर राज करके, उनकी आजादी की लड़ाई को दबा के ये लोग जश्न मना रहे हैं और तमाम भारतीय भी इस जश्न में उनके साथ हैं क्योंकि उन्होंने भी कहीं ना कहीं मान लिया था कि 1857 की लड़ाई केवल सैनिक विद्रोह था, या फिर कुछ राजाओं की अपनी गद्दी बचाने के लिए की गई अंग्रेजी राज से बगावत थी।
सारे विद्रोही अपने स्वार्थ के लिए लड़ रहे थे, इस आरोप को सावरकर और बाकी साथी क्रांतिकारी कैसे हजम कर सकते थे। तय किया गया कि देश ही नहीं दुनिया के सामने 1857 का सच लाया जाएगा, वो भी ऐसे पुख्ता सुबूतों के साथ जिन्हें अंग्रेज सरकार भी काट ना सके।
लेकिन सावरकर के सामने बड़ी मुश्किल थी, केवल सुनी सुनाईं बातें थी, जो वीरता की कहानियां बुजुर्गों से सुनी थीं बस वही। जो किताबें कोर्स में पढ़ाई गई थीं, उन्हें अंग्रेजों ने तैयार किया था। ऐसे में कैसे 1857 का सच सामने लाया जाय? ये बड़ा सवाल था, और जो पिस्तौल से नहीं लाया जा सकता था। सावरकर की ये समझ आ गया था कि पिस्तौल किनारे ऱखकर कलम उठानी प़ड़ेगी, तभी दुनिया को, खासतौर पर भारतीयों और आम अंग्रेजों को सच से रूबरू करवाया जा सकता है।
लेकिन सवाल ये भी बड़ा था कि कोई टाइम मशीन तो थी नहीं कि उसमें बैठकर 50 साल पहले जाकर देख लिया जाए कि सच क्या है, इधर जो भी राजा, या क्रांतिकारी उसके लिए लड़े थे, वो भी जिंदा नहीं बचे थे और उस वक्त का कोई भी डॉक्यूमेंट्री प्रूफ कम से कम भारत में तो अंग्रेजों ने रहने नहीं दिया था। फिर भी एक उ्म्मीद तो थी। भारत में ही तो दस्तावेज नहीं थे, अंग्रेजों के पास तो थे!
जिस तरह से आज विकीलीक्स अमेरिकी सरकार की केबल्स लीक करता रहता है, उसी तरह की केबल्स तब भी जाती थीं। यानी जो अधिकारी इंडिया में तैनात थे, वो अंग्रेजी सरकार को तार, विस्त़ृत रिपोर्ट आदि भेजते रहते थे। अंग्रेजी संसद भी हर मामले में तब जांच कमीशन बनाती थी, उनकी रिपोर्ट्स भी सुरक्षित रखी जाती थीं, तो क्या उनके जरिए सच लाया जा सकता है।
सावरकर ने पहले ये पता किया कि ये रिपोर्ट्स कहां रखी जाती हैं और फिर ये जाना कि इन्हें कैसे पढ़ा जा सकता है। पढ़ने के लिए कहीं ना कहीं जाना ही पड़ता, क्योंकि ना इंटरनेट था और ना ही आसानी से फोटो कॉपियर मिलते थे। इस मिशन में उनकी मदद की इंडिया हाउस के मैनेजर मिस्टर मुखर्जी और उनकी अंग्रेजी पत्नी ने।
सावरकर को पता लग चुका था कि ब्रिटेन सरकार ने एक अलग से इंडिया हाउस लाइब्रेरी बना रखी है, जहां दशकों पुराने भारत से जुड़े डॉक्यूमेंट्स और रिपोर्ट्स रखी जाती हैं ताकि आईसीएस के लिए तैयारी कर रहे छात्र या शोध छात्र उसे पढ़कर अंग्रेजी राज और भारत के बारे में जान सकें। तब उन्होंने सोचा भी नहीं होगा कि इन पुराने डॉक्यूमेंट्स से भी कोई उनके खिलाफ इतनी बड़ी क्रांति खड़ी कर सकता है।
मुखर्जी ने उन्हें एक छात्र के तौर पर उस लाइब्रेरी का सदस्य बनवा दिया। 18 महीने तक सावरकर ने बाकी सारे क्रांति के काम एक तरह से उठाकर रख दिए, एक ही मिशन था 1857 का सच ढूंढना, उसको दुनियां के सामने लाना।
वो ये मानने को तैयार नहीं थे कि जिस भारत भूमि में वो जन्मे थे, उस धरती से केवल स्वार्थी जन्मे थे, वीर नहीं। उनकी मेहनत धीरे-धीरे रंग ला रही थी। दिक्कत ये थी कि ये महासमुद्र था उन डॉक्यूमेंट्स और रिपोर्ट्स का जो हर आईसीएस ऑफिसर, सेना की टुकड़ियों के कप्तान और बड़े अधिकारी वहां भेजते थे।
अगले साल फिर मनी लंदन में 1857 की क्रांति की शानदार वर्षगांठ
10 मई 1908 को ही लंदन के इंडिया हाउस में क्रांति की वर्षगांठ का शानदार जश्न मनाया गया, यूरोप और इंगलैंड के सैकड़ों भारतीय देशी वेशभूषा में माथे पर चंदन लगाकर इस समारोह में जुटे।
1857 पर किताब लिखने से पहले सावरकर ने उन्हें संक्षिप्त में वो सब बताया जो उन्हें अब तक पता चल चुका था। तभी 1857 क्रांति की प्रतीक चपाती यानी रोटी को भी सबको वहां बांटा गया। देशभक्ति गीत गाए गए और भारत माता को स्वतंत्र करवाने का संकल्प लिया गया।
अगले दिन इस समारोह की खबरें सभी ब्रिटिश अखबारों में थी, वो पैम्फेलेट जो अंदर बांटा गया था, वो भी छपा तो अंग्रेजी सरकार भौचक रह गई। इंडिया हाउस उनकी निगाहों में आ गया। सबको पता चल गया कि सावरकर 1857 पर कोई किताब लिख रहे हैं।
अंग्रेजी गुप्तचर विभाग हरकत में आया और उस किताब के बारे में जानकारी करने में लग गए सारे गुप्तचर। महीनों तक सावरकर चुपचाप अपनी किताब को मराठी में पूरा करते रहे, जब पूरी हो गई तो पांडुलिपि उन्होंने सीक्रेट तरीके से भारत में अपने भाई बाबाराव सावरकर तक पहुंचवा दी।
मौलवी का परिवार यूपी के हरदोई से ताल्लुक रखता था, उनके पिता गुलाम हुसैन खान हैदर अली की सेना में अच्छे ओहदे पर रह चुके थे।
कौन थे मौलवी अहमदुल्लाह फैजाबादी
ये लम्बी कहानी है कि सावरकर की ये किताब कैसे छपी, लेकिन इस लेख में अहमदुल्लाह शाह की बात करेंगे कि सावरकर ने उनके बारे में क्या लिखा है? उससे पहले मौलवी के बारे में कुछ जरूरी बातें जान लीजिए।
मौलवी का परिवार यूपी के हरदोई से ताल्लुक रखता था, उनके पिता गुलाम हुसैन खान हैदर अली की सेना में अच्छे ओहदे पर रह चुके थे, अहमदुल्लाह की परवरिश भी ऐसे ही माहौल में हुई थी, ताल्लुकेदार थे जिसे अंग्रेजों ने छीन लिया था। मौलवी को जितना इस्लाम का ज्ञान था, उतना ही बखूबी अंग्रेजी आती थी। मौलवी अहमदुल्ला ने ब्रिटेन, मक्का, मदीना। रूस, ईरान, ईराक कई देशों की यात्रा की हुई थी।
जब 1857 की क्रांति की योजना बननी शुरू हुई तो कमल, चपाती के जरिए अलग-अलग क्षेत्रों के नायक आपस में संपर्क में आ रहे थे। मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर को इस लड़ाई का नायक और भारत का बादशाह एलान करने की योजना बनी थी। बड़ी तादाद में मुस्लिम सरदार भी सक्रिय हो चुके थे।
ऐसे में मौलवी अहमदुल्लाह ने भी अलग-अलग इलाकों के राजाओं, क्रांतिकारियों से संपर्क साधा। नाना साहेब और अजीमुल्लाह खान से भी मिले। नाना साहेब से उनकी अच्छी पटती थी। पटना में उनको गिरफ्तार भी कर लिया गया, जहां से विद्रोहियों ने उनको जेल से छुड़ाया और फिर वो अवध कूच कर गए।
कॉलिन कॉम्पवेल को दी दो-दो बार शिकस्त
अगले सवा साल तक कुंवर सिंह और तात्यां टोपे की ही तरह मौलवी अहमदुल्लाह ने भी अंग्रेजों को जमकर छकाया। छापामार पद्धति से युद्ध लड़ते हुए मौलवी ने कभी लखनऊ में मोर्चा संभाला तो कभी कानपुर में, तो कभी शाहजहांपुर में। इस दौरान मौलवी वो पहले व्यक्ति थे जिन्होंने दो-दो बार कॉलिन कैम्पवेल जैसे अंग्रेज जनरल को शिकस्त दी। इसके लिए तत्कालीन ब्रिटिश अफसर से इतिहासकार बने जॉर्ज ब्रुश मालेसन ने अपनी किताब ‘इंडियन म्यूटिनी’ में मौलवी की तारीफ की है, लिखा है- ‘सर कैंपवेल को दो बार रण में मुंह की खिलाने का साहस दूसरा कोई नहीं कर सकता’।
शाहजहांपुर में अंग्रेजी फौज को जबरदस्त टक्कर देते हुए जब मौलवी ने उसे अपने कब्जे में ले लिया तो पांच दिन बाद 20 मई को वहां कॉलिन कैम्पवेल बड़ी सेना औऱ तोपों के साथ पहुंचा, रात भर भयंकर युद्ध हुआ, मौलवी ने फिर छापामार तकनीक का सहारा लेते हुए वहां से सुरक्षित निकलना बेहतर समझा।
मौलवी को भरोसा नहीं था कि राजा जगन्नाथ सिंह ऐसा कर सकते हैं, वरना जो अंग्रेजों के हाथों में 13 महीने से नहीं आ पा रहे थे, वो ऐसी आसान मौत कैसे मर जाते? मौलवी का सर काटकर अंग्रेजों के हवाले कर दिया गया और फिर उसे कोतवाली पर लटका दिया गया।
मौलवी के सर पर अंग्रेजों ने पचास हजार चांदी के रुपयों का इनाम भी रखा था, जो राजा को मिल गया। अब पढ़िए हिंदुत्व के पुरोधा वीर सावरकर ने उस राजा जगन्नाथ सिंह के लिए अपनी उस किताब में क्या लिखा है- ‘’पुवायां के राजा! पुवायां के चांडाल! तेरे देशद्रोह से यदि सचमुच में तन-बदन में आग लगती हो तो इस प्राणी की प्रतिमा हर घर में नरक कूप के दरवाजे टांगी जाए’’।
जहां मैल्सन ने मौलवी की हिम्मत की तारीफ की है, वहीं सावरकर ने मौलवी की कुशाग्र बुद्धि के बारे में लिखा है कि कैसे ऐसी योजनाएं बनाते थे जिनको भेद पाना अंग्रेजों के लिए मुश्किल था, मौलवी के जासूस अंग्रेजी छावनियों में घुसकर भेद ले आते थे, लेकिन पता नहीं चलता था।
सावरकर ने लिखा है कि , ‘’अपने जन्मसिद्ध देश की अन्याय से छीनी हुई स्वतंत्रता वापस लेने जो पुरुष विद्रोही संगठन खड़ा करके युद्ध करता है, वह यदि देशभक्त कहलाता है तो मौलवी अहमद शाह वास्तव में देशभक्त थे। खून से उनकी तलवार गंदी नहीं हुई, खून के लिए वो सहमत नहीं थे पर जिसने उसका स्वदेश छीना था, उस विदेशी से वह लड़े, वीरोचित कार्य किया, रणनीति से लड़े, दृढ़ता से लड़े और इसलिए उस लोकोत्तर मौलवी की स्मृति सारे राष्ट्र के रणवीरों और सत्यप्रियों के आदर की सत्पात्र हो गई थी’’।
हालांकि मैल्सन ने उनके बारे में पहले लिखा, लेकिन मैल्सन की किताब ब्रिटेन को ध्यान में रखकर लिखी गई थी, सालों तक वो भारत में उपलब्ध भी नहीं थी। उसमें मौलवी जैसे कुछ लोगों की तारीफ जरूर थी, लेकिन वो उसकी नजर में एक विद्रोह था, बगावत थी, जिसे अंग्रेज सेनानायकों ने कामयाबी से दबा दिया।
जबकि वो सावरकर थे जिन्होंने ना केवल इस लड़ाई को प्रथम स्वतंत्रता संग्राम कहा, उसमें भाग लेने वालों को क्रांतिकारी और स्वतंत्रता सेनानी कहा, बल्कि मराठी और हिंदी समेत कई भारतीय भाषाओं में उनकी वीरता की कहानियों को भारत के जन-जन तक पहुंचाया।
सावरकर ने मौलवी अहमदुल्लाह शाह के लिए अपनी किताब ‘1857 स्वातंत्र्य समर’ में पूरा एक अध्याय रखा है, और वो अध्याय रानी लक्ष्मीबाई के अध्याय से पहले लिखा है। ये किताब उस समय की घटनाओं का सजीव चित्रण करती है।
इस पुस्तक में केवल मौलवी अहमदुल्लाह ही नहीं अजीमुल्लाह खान, खान बहादुर खान जैसे 25 मुस्लिम रणबांकुरों की भी अपनी मातृभूमि के लिए जान देने के लिए जमकर तारीफ की गई है। ऐसे में इंडो इस्लामिक कल्चरल फाउंडेशन ने बाबरी मस्जिद के विकल्प के तौर पर अयोध्या में बन रही इस मस्जिद को अहमदुल्लाह फैजाबादी के नाम से बनाने का ऐलान करके अनजाने में वीर सावरकर का भी कनेक्शन इससे जोड़ दिया है।
लेखक विष्णु शर्मा का यह आलेख दैनिक अमर उजाला की वेबसाइट से लिया गया है।