मृत्यु नहीं परकाया प्रवेश है यह
प्रकाश भटनागर
मौत की कोई सूरत नहीं होती। जिस्म नहीं होता। फिर भी उसका वजूद होता है। जो अंतत: जीवन के अस्तित्व को अपने अदृश्य आंचल तले ढंककर साथ ले जाता है। मृत्यु का यही क्रूर कारोबार है। पूरे हक से वह जीवन छीन लेने का, जिसे प्रदान करने में उसका रत्ती भर भी योगदान नहीं होता। लेकिन आज एक पल को तो मृत्यु भी कांपी होगी।अस्पताल में अटल बिहारी वाजपेयी के बेजान होते जिस्म को पूर्णत: निर्जीव करते समय उसे भी अपनी हार का अहसास हुआ होगा। हार इस बात की कि उसने वाजपेयी के प्राण हरे, लेकिन उन्हें मृत घोषित नहीं करवा पाई। वाजपेयी हमेशा जीवित रहेंगे। सच्चे इंसान के तौर पर मिसालों में। अच्छे राजनीतिज्ञों के जिक्र में सर्वकालिक उदाहरण बन कर। उम्दा कवि के तौर पर अनंत रिसालों और अनगिनत दिलो-दिमाग में। उन्होंने कभी लिखा था, ‘मौत जिंदगी से बड़ी कैसे हो सकती है?’ आज स्वयं मृत्यु ने उनका वरण करने के बाद सहमति में सिर हिलाते हुए कहा होगा, ‘नहीं, इस एक व्यक्ति के मामले में तो मैं जिंदगी से छोटी ही रहूंगी।’
ऐसे लोग बिरले होते हैं, जिनके विरोधी भी उनका सम्मान करें। अजातशत्रु वाजपेयी अन्य कई बातों के साथ-साथ इस मायने में भी बिरले ही रहे। कदाचार से भरी राजनीति में वे नवाचार के संवाहक बने। संयुक्त राष्ट्र संघ में हिंदी को पहली बार उनके कंठ ने ही स्वर प्रदान किया। सियासी जगत में कूटनीति से परे वे रणनीति के संवाहक रहे। ऐसी रणनीति, जिसने किसी के अहित का मार्ग प्रशस्त नहीं होने दिया। ‘हार नहीं मानूंगा…’ उनकी कविता की पंक्ति मात्र नहीं, अपितु उनके कर्म क्षेत्र का मूल वाक्य भी रहा। न तो ग्वालियर संसदीय क्षेत्र में मिली हार उनके जीवन की विजयी उपलब्धियों का पूर्ण विराम बन सकी और न ही केंद्र में महज तेरह दिन की सरकार रूपी विफलता ज्यादा समय तक टिक सकी। वह पुन: सांसद बने। उन्होंने फिर से प्रधानमंत्री पद संभाला।
पहले यह मात्र जिज्ञासा थी, अब उसमें पीड़ा का समावेश भी हो गया है। नासूर-सी पीड़ा। वह यह कि बीते लम्बे समय से यादददाश्त छिन जाने के बाद उस चिरंतन उर्वरक मस्तिष्क का क्या हुआ होगा? मन यह चीत्कार भी करता है कि उनकी ऐसी दशा हुई क्यों होगी? क्या ऐसा इसलिए कि परमेश्वर भी उन्हें उन तमाम तत्वों से अछूत रखना चाहता हो, जो वाजपेयी जैसे किसी व्यक्तित्व के लिए हमेशा त्याज्य रहे? सिद्धांतों से पूरी तरह भटकती भाजपा, राजनीति के और रसातल में जाने का सिलसिला, राजनीतिज्ञों के पतन के नित-नए रचे जाते अध्याय, इन सबके बीच शायद परमेश्वर की यही इच्छा रही कि वाजपेयी अपने जीवन की संध्या में यह सब देखकर भी समझ नहीं सकें। उन्हें इसकी और पीड़ा न हो।
मिर्जा गालिब ने लिखा था, ‘यादे-माजी अजाब है या रब, छीन ले मुझसे हाफिजा मेरा।’ राजनीति में पतन की हवा ने तो वाजपेयी के पूर्णत: स्वस्थ रहते ही तूफान का रूप ले लिया था। तो क्या संभव है कि खुद उन्होंने भी परमेश्वर से यही प्रार्थना की होगी कि मांजी यानी अतीत की बजाय वर्तमान को न समझने के लिहाज से उनका हाफिजा अर्थात याददाश्त छीन ली जाए!
यह निर्दयी विचार है, लेकिन है हमारी विवशता। विचार है कि क्यों वाजपेयी किस्तों में नहीं सिधारे? क्योंकि यह समझ नहीं आ रहा कि शोक किस-किस का किया जाए? आदर्श राजनीतिज्ञ का? सिद्धांतों के प्रति प्रबल आग्रही व्यक्ति का? अतुलनीय कवि का? अनुकरणीय इंसान का? महज शोक या आंसूओं के एक-दिवसीय प्रवाह से तो अनगिनत स्तर के नुकसानों का सियापा तो नहीं ही हो सकता। इसलिए क्रूर लगने के बावजूद कामना यही कि अटल की मृत्यु का अटल सत्य किस्तों में सामने आना चाहिए था।
अल्बर्ट आइंस्टीन ने मोहन दास करमचंद गांधी के लिए लिखा था, ‘आने वाली पीढ़ियों के लिए इस बात पर यकीन करना आसान नहीं होगा कि हांड़-मांस का कोई ऐसा जीवित शख्स इस धरती पर आया था।’ अटल जी के व्यक्तित्व और कृतित्व के स्मरण के बाद आइंस्टीन की यही पंक्तियां उनके लिए भी कहने का मन कर रहा है। आज का तमाम घटनाक्रम वाजपेयी का देहावसान नहीं कहा जा सकता। यह परकाया प्रवेश है। उन्होंने अटल बिहारी वाजपेयी नामक काया का त्याग किया और अब वह अनंत हृदय और मस्तिष्कों में हमेशा के लिए जीवित रूप में समाविष्ट हो गए हैं। यह मृत्यु नहीं है। जीवन को अनगिनत रूपों में विस्तारित कर देने का वह करिश्मा है, जो सदियों में एकाध बार ही देखने मिलता है। यह शोक का नही, शोध का समय है कि अटल बिहारी वाजपेयी जैसे शख्स बिरले ही क्यों देखने मिलते हैं। विनम्र श्रद्धांजलि।