शाहीन बाग प्रदर्शन-ना खुदा ही मिला,ना विसाले सनम
-तुषार कोठारी
दिल्ली विधानसभा के चुनाव निपट चुके है और शाहीन बाग पर रास्ता रोक कर बैठे प्रदर्शनकारियों को पैंसठ से ज्यादा दिन हो चुके हैं। उच्चतम न्यायालय ने दो बार मामले की सुनवाई करने के बाद फिर से मामले को आगे टाल दिया है। अब प्रदर्शनकारियों की परेशानी यह है कि वे इससे बाहर कैसे निकले? पैंसठ दिनों के प्रदर्शन के बाद भी उनके हाथ कुछ नहीं लग पाया है। इतना ही नहीं, इन्हे उकसाने वाली शक्तियों के लिए भी यह फायदे की बजाय नुकसान देने वाला ही साबित हुआ है। वही स्थिति बन गई है कि ना तो खुदा ही मिला, ना विसाले सनम।
दिसम्बर से शुरु हुए पूरे घटनाक्रम का सिंहावलोकन करें तो पता चलता है कि सीएए की खिलाफत के बहाने केन्द्र सरकार को घेरने की कोशिश करने वाले राजनैतिक दलों के लिए यह आखिरकार नुकसानदायक ही साबित हुआ है।
सीएए पारित होने के तुरंत बाद पहले दौर में देश के कई स्थानों पर हिंसक प्रदर्शन किए गए। इन हिंसक प्रदर्शनों से मुख्यरुप से उत्तर प्रदेश की योगी सरकार बेहद सख्ती से निपटी और सार्वजनिक सम्पत्तियों को नुकसान पंहुचाने वालों से वसूली की कार्यवाही शुरु कर दी गई। सीएए की खिलाफत करने वाले राजनैतिक दलों को जल्दी ही ध्यान में आ गया है हिंसक प्रदर्शनों के चलते उनका जनाधार खिसक सकता है। उन्होने तुरंत अपनी रणनीति बदली और आन्दोलन में महिलाओं और बच्चों को आगे कर दिया गया।
इसकी शुरुआत शाहीन बाग से हुई। शाहीन बाद प्रदर्शन को हवा देने में वामपंथी और कांग्रेस जैसे दल सबसे आगे थे। एआईएमआईएम के असदुद्दीन औवेसी ने भी शाहीन बाग के सहारे स्वयं को देशभर में स्थापित करने का प्रयास किया। याद कीजिए,शाहीन बाग के शुरुआती दिनों को,जब कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और वामपंथी विचारधारा के लोग वहां जा-जाकर उग्र भाषण देकर अपना समर्थन प्रदर्शित कर रहे थे। यही नहीं देश के अनेक शहरों में इसी तरह के महिलाओं के प्रदर्शन भी शुरु करवा दिए गए।
उधर दूसरी ओर भाजपा के रणनीतिकारों को इस आन्दोलन में अपना लाभ दिखाई दे रहा था। इसी का नतीजा था कि दिल्ली की पुलिस केन्द्र के अधीन होने के बावजूद सरकार ने प्रदर्शनकारियों को हटाने के लिए कोई कडे कदम नहीं उठाए गए। शाहीन बाग को भाजपा ने अपने आक्रामक प्रचार का मुद्दा बना लिया और आम आदमी पार्टी को इसमें घसीटने की जमकर कोशिश की गई। इसके विपरित आम आदमी पार्टी ने शाहीन बाग के प्रति अपना नैतिक समर्थन तो घोषित किया,लेकिन बेहद चतुराई दिखाते हुए शाहीन बाग पर जाने से पूरा परहेज किया गया।
मामला चुनाव पर आकर टिक गया था। भाजपा उत्साहित थी। भाजपा के रणनीतिकारों को पूरी उम्मीद थी कि उनके पक्ष में अच्छे नतीजे आएंगे। टीवी चैनलों में रोजाना गर्मागर्म बहसें हो रही थी और भाजपा पर ध्रुवीकरण के आरोप लगाए जा रहे थे। भाजपा के रणनीतिकारों ने शाहीन बाग के असर का जो आकलन किया था,उसमें आधा आकलन तो बिलकुल सटीक था,लेकिन आधा आकलन चुनावी नतीजों से गलत साबित हो गया।
भाजपा के रणनीतिकारों को पहला आकलन यह था कि शाहीन बाग और देश के अनेक शहरों में महिलाओं द्वारा सीएए के खिलाफ दिए जा रहे धरनों का आम जनमानस पर कोई असर नहीं हो रहा है। यह पूरा आन्दोलन विशुध्द रुप से मुस्लिम समुदाय का आन्दोलन बन चुका है और बहुसंख्यक जनता इससे पूरी तरह अप्र्रभावित है। कोई भी आन्दोलन जब असरकारक होता है,जब उसमें आम जनमानस जुडता है। जैसे अन्ना आन्दोलन के समय देश का आम जनमानस अन्ना से जुड गया था। लेकिन सीएए के खिलाफ मुस्लिम महिलाओं के अलग अलग शहरों में हो रहे प्रदर्शनों से ऐसा बिलकुल नहीं हुआ।
भाजपा के रणनीतिकारों का दूसरा आकलन यह था कि दिल्ली के शाहीन बाग के कारण दिल्ली में उनके पक्ष में ध्रुवीकरण हो जाएगा और भाजपा सरकार बनाने के नजदीक पंहुच जाएगी। यह आकलन गलत तो साबित हुआ,लेकिन फिर भी भाजपा को इसका लाभ मिला। भाजपा के जनाधार और सीटों में पिछले चुनाव की तुलना में इजाफा हुआ। शाहीन बाग का सबसे बडा फायदा आम आदमी पार्टी को मिला। दिल्ली के तमाम अल्पसंख्यक वोट आप की झोली में जाकर गिरे और आम आदमी पार्टी ने दोबारा से प्रचण्ड जीत दर्ज कर ली।
सबसे ज्यादा नुकसान में कोई रहा,तो वह थी कांग्रेस। नुकसान में रहने वालों शाहीन बाग के प्रदर्शनकारी और उन्हे उकसाने वाले वामपंथी भी शामिल है। कांग्रेस को तो इतना बडा नुकसान हुआ कि कांग्रेस का पूरा जनाधार ही खिसक गया। इतना ही नहीं सीएए विरोध के बहाने केन्द्र सरकार को अस्थिर करने और घेरने का कांग्रेस का ख्वाब भी पूरा नहीं हो सका। इसी तरह इस आन्दोलन को हवा देने में सबसे आगे रहे वामपंथी नेता और कथित बुध्दिजीवियों के हाथ भी कुछ नहीं लगा। केन्द्र सरकार ने एक भी बार अपने रुख में कोई नरमी नहीं दिखाई,उलटे गृहमंत्री और प्रधानमंत्री ने कई मौकों पर सीएए से एक भी इंच पीछे नहीं हटने की खुली घोषणाएं की। वामपंथी नेता और विचारक इस आन्दोलन के जरिये न तो अपनी विचारधारा के प्रति समर्थन बढा पाए और ना ही कोई दूसरी उपलब्धि हासिल कर पाए।
राजनैतिक दलों से इतर सबसे ज्यादा नुकसान में कोई रहा तो वो है शाहीन बाग के प्रदर्शनकारी। पिछले पैंसठ दिनों से अपना घरबार छोडकर सड़क पर अड्डा जमाएं बैठी महिलाओं,बच्चों और पुरुषों के लिए यह पूरा आन्दोलन किसी काम का साबित नहीं हो पाया। सरकार ने उन्हे कतई गंभीरता से नहीं लिया। शाहीन बाग पर बैठी महिलाओं को नियंत्रित करने वाले लोग अब परेशान है कि इससे बाहर कैसे निकले? वे बार बार कह रहे है कि सरकार की तरफ से कोई बात कर लें तो वे आन्दोलन समाप्त कर देंगे। लेकिन ऐसी कोई ठोस पहल अब तक नहीं हुई है। खुद प्रधानमंत्री और गृहमंत्री कह चुके है कि सीएए वापस नहीं होगा,तो अब बातचीत का क्या मतलब रह जाता है? प्रदर्शनकारियों के रुप में सामने तो महिलाएं है,लेकिन उनके पीछे जो असल नेतृत्वकर्ता है,उनकी हिम्मत अब टूट चुकी है। उनकी समझ में यह तो आ ही चुका है कि इस आन्दोलन से उनके हाथ कुछ नहीं लगने वाला। जिन राजनीतिक दलों ने उन्हे उकसाया था,अब वे भी समर्थन की सिर्फ औपचारिकता निभा रहे हैं। ऐसी स्थिति में अब आन्दोलनकारी किसी तरह इस झंझट से निकलना चाहते है,लेकिन फिलहाल तो सुप्रीम कोर्ट ने भी कोई आदेश नहीं दिया है। आने वाले दिनों में यह देखना रोचक होगा कि शाहीन बाग का समापन कैसे होता है?