December 23, 2024

विश्व नेतृत्व के द्वार पर हिन्दुस्तान

shakti

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मा. सरकार्यवाह  सुरेश जोशी `भैयाजी’ से साक्षात्कार

– शक्तिसिंह परमार

देश की सत्ता में आया ऐतिहासिक परिवर्तन हो या फिर पहली बार में मंंगलयान का सफल परचम, शोध-विज्ञान एवं तकनीक के जरिए क्षेत्र में भारतीय प्रतिभाओं का मुरीद होते विश्व हो… खेल के क्षेत्रों में लोहा मनवाते खिलाड़ी, विदेशी शासकों के साथ बराबरी के मंच पर आंख मिलाकर संवाद करते भारतीय प्रधान हो अथवा संस्कार एवं राष्ट्र निर्माण की पाठशालारूपी संघ शाखाओं को वैश्विक विस्तार हो.., आज विश्व का मार्गदर्शन करने की दहलीज पर खड़े हिन्दुस्तान को किन-किन क्षेत्रों में प्रभावी पहल व परिवर्तन करने होंगे? शिक्षा, इतिहास, कृषि, विज्ञान, राजनीति, विदेश नीति, खेल, व्यापार, उद्योग, सुरक्षा एवं समाज परिवर्तन में संघ की भूमिका जैसे ज्वलंत एवं समसामयिक विषयों पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मा. सरकार्यवाह सुरेश जोशी `भैयाजी’ ने स्वदेश का प्रेरक मार्गदर्शन किया है, जो कि स्वदेश के सुधी पाठकों के साथ ही जन-जन के लिए प्रेरणा एवं दिशा देने का आधार बनेगा… माननीय भैयाजी जोशी ने स्वदेश के स्थानीय संपादक शक्तिसिंह परमार के करीब 20 प्रश्नों पर 64  मिनट 38 सेकेण्ड तक अपना सारगर्भित जिज्ञासा समाधान प्रदान किया है… प्रस्तुत है साक्षात्कार के संपादित अंश-

स्वदेश – हिन्दुस्तान एक राष्ट्र के रूप में पुन: विश्व का नेतृत्व करने का गौरव प्राप्त करेगा। इस स्थापित सत्य को लेकर वर्ष, दशक और सदी के मान से दावे-प्रतिदावे किए जाते रहे हैं। क्या मंगल अभियान का पहली बार में ही सफलता का परचम लहराना `विश्व गुरु भारत’ यात्रा की शुरुआत है..?
भैयाजी : आज भारत विश्व के मंच पर एक शक्ति के रूप में उभर कर आ रहा है। राष्ट्र के रूप में तो इसका कभी अस्तित्व समाप्त नहीं हुआ। हां किन्ही कारणों से कुछ दुर्बलता जरूर आ गई हैं, लेकिन मैं मानता हूं कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद एक परिवर्तन की प्रक्रिया प्रारंभ हुई और अगर हम 1948 से 2014 तक देश के विभिन्न क्षेत्रों का विकास ठााफ देखते है तो शिक्षा, सुरक्षा, उद्योग जगत, आजकल के संगणक क्षेत्र, सूचना प्रौद्योगिकी आदि क्षेत्रों में भारत के युवाओं ने बहुत अच्छी छलांग लगाई है। आज हम विश्व के साथ खड़े हैं। इतना बड़ा देश और कई प्रकार जटिलताओं के बावजूद भी यहां की जो व्यवस्था है वह दिनोदिन अच्छी होती जा रही है। दुनिया में शायद ही कोई देश होगा, जिसका 60,000 कि.मी. का रेलवे ट्रेक हो, 6000 रेलवे स्टेशन हो, लाखों यात्री आवागमन करते हैं, आज जिस गति से सभी प्रकार के आवागमन, संचार के माध्यम विकसित हो रहे हैं तो मैं कह सकता हूं कि भारत की युवा शक्ति द्वारा प्रकट किया गया यह पुरुषार्थ हैं और इसलिए हमें पूरा विश्वास है कि हम बहुत थोड़े दिनों में विश्व के बराबर ही नहीं विश्व के आगे भी जा सकते हैं और इसके कारण मैं बताऊंगा कि आने वाले दिनों में एक बात बड़ी स्पष्ट होने वाली है कि विश्व के देशों में सबसे ज्यादा प्रतिशत भारतीय युवाओं का रहने वाला हैं। एक बड़ी कार्यरत शक्ति अपने साथ खड़ी रहेगी। यह शक्ति चुनौती को स्वीकार करने वाली रहेगी, नए-नए प्रकार के अभिनव प्रयोग करने वाली रहेगी। शोध कार्य के क्षेत्र में और भी आगे जा सकती है। ऐसा आज तक के जो अनुभव प्राप्त हुए उसके आधार पर कहा जा सकता है।
इसी प्रक्रिया में मंगल अभियान को भी देखा जाना चाहिए। हमने आज तक जो भी उपठाह/विमान आकाश में भेजे है वे सफल सिद्ध हुए हैं। और ऐसे प्रयोग करने की दृष्टि एक भारतीय दृष्टि होने के कारण विश्व का मार्गदर्शन देने वाला देश भारत बनेगा। इसके पीछे बहुत बड़ी भूमिका मानव शिक्षा की होती है। हम सुपर पॉवर बनने के बजाए सबके सामने एक आदर्श रूप में प्रस्तुत होना चाहते हैं, इसलिए भारतीय चिंतन में कभी भी पॉवर सत्ता के महत्व के लिए कम रहा है, लेकिन शक्ति का महत्व रहा है और यही सोच भारत को विश्व गुरु बनाएगी। यह किसी प्रकार का दबाव विकसित करने के लिए नहीं, बल्कि सारा विश्व मानवता की दिशा में चल पड़े। इस नाते हमारी भूमिका रहेगी और यही हमारी भूमिका होने वाली है।
वैज्ञानिक अपने-अपने क्षेत्र में कार्य कर रहे हैं और आज हम जो भी वैज्ञानिक शोध कर रहे हैं वे सफल हुए हैं, क्योंकि इसके मूल में मानवीयता की दृष्टि रही है। जैसा हम जानते हैं कि भारत ने एक उपठाह छोड़ा उसका नाम एजुसैट हैं। इस एजुसैट का मतलब होता है शिक्षा प्रदान करने के लिए ज्ञान के प्रचार-प्रसार के लिए एजुसैट छोड़ा है। दुनिया के देश सामान्यत: जासूसी करने के लिए उपठाह छोड़ते हैं। भारत का जो भी प्राचीनकाल से चला आ रहा है ध्येय विश्व को कुछ देना है, इस नाते सर्वशक्ति का उपयोग भी एजुसैट के रूप में किया गया है। इसलिए अभी शुरू हुई इस मंगल यात्रा को नई मान्यता दी जा रही हैं। हां बीच में हमारी थोड़ी गति कम हुई थी, अब लगता है कि आने वाले दिनों में यहां का युवा वर्ग, वैज्ञानिक, सामरिक दृष्टि से सोचने वाला समाज और पूरा सिस्टम विश्व के सामने एक आदर्श व्यवस्था प्रस्तुत करने में सफल होगा। ऐसा हमें विश्वास है।
स्वदेश – विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की साढ़े छह दशक पुरानी सम्पूर्ण व्यवस्था में बदलाव की आहट सुनाई दे रही है। करीब तीन दशक के बाद किसी एक दल को स्पष्ट बहुमत मिलना क्षेत्रवाद, जातिवाद, भाषावाद को नकारने जैसा नहीं है..? क्या यह देश का पौरुष जगाने जैसा नहीं है और क्या यह चिरस्थायी बना रहेगा..?
भैयाजी : अभी-अभी जो भारत के अंदर सत्ता में परिवर्तन आया है यह सही है कि काफी लंबे अरसे के बाद किसी एक विचारधारा के लोगों को जनता ने चयन करके देश की सत्ता चलाने की बागडोर सौंपी है। जनता अर्थात् सामान्यजन जिस प्रकार का यहां पर प्रशासन चल रहा था, उस प्रशासन के प्रति अनेक अव्यवस्थाओं को लेकर, कार्यशैली के प्रति और निर्णयोंं से प्रति अपने आपको बहुत ही उदात अनुभव कर रहा था। जिस प्रकार से भ्रष्टाचार बढ़ा, कानूनी पेचिदगियां पसरी, इनके कारण सामान्य व्यक्ति अपने आपको इससे मुक्त होने की आकांक्षा लेकर चल रहा था, मुझे लगता है कि २०१४ में हुए चुनाव में यही भाव प्रकट हुआ है। परिवर्तन करने से सभी प्रकार की अव्यवस्थाएं ठीक होगी इसी अपेक्षा के साथ नए लोगों को प्रशासन चलाने का अनुदेश जनता ने दिया है। ऐसा मैं मानता हूं।
ये निश्चित है कि इस चुनाव में क्षेत्रवाद, जातिवाद, भाषावाद ऐसी संकुचित बातों का कोई अर्थ नहीं रहा है। इससे ऊपर उठकर जनता ने अपनी इच्छा के अनुरूप सत्ता का चयन किया हैं, लेकिन यह काल भविष्य ही तय करेगा कि क्या वास्तविकता में ये संकुचिता पूरी तरह समाप्त हुई है? इसके लिए और कुछ समय इंतजार करना होगा। आज एकदम से कहना शायद जरा जल्दबाजी होगी। ये तो निश्चित है कि इस बार जो मतदान हुआ है सारी संकुचिता से ऊपर उठकर हुआ है। हम चाहते है कि यह समाज का स्थाई भाव बने। स्थाई भाव बनने में ही देश का हित हैं। समाजजनों का हित है और विश्व के सामने शक्ति के रूप में हमें जो भूमिका का निर्वाह करना है, उसके लिए संकुचिता से ऊपर उठना अत्यंत अनिवार्य है। परंतु इस बार का यह आया अनुभव समाज का स्थाई भाव बने, हमारी यही अपेक्षा है। मुझे लगता है कि इसके लिए हमें और आंकलन करना चाहिए और समय चाहिए। भविष्य में शायद यही मानसिकता और भूमिका रही तो मैं समझता हूं देश का भविष्य जैसा होना चाहिए वैसा निर्माण होने के लिए जो लोग प्रयत्नशील है वे सफल होंगे। उन्हें सफलता जरूर मिलेगी।
स्वदेश – एनसीईआरटी की पाठ्यपुस्तकोें में अब तक भावी भविष्य (बच्चों) को भारतीय संस्कृति की स्वाभाविक विविधता के पठन-पाठन से षड्यंत्र पूर्वक दूर रखा गया है..? क्या यह मकड़जाल पाठ्यक्रम से नहीं टूटना चाहिए..? उसकी रूपरेखा क्या होगी..?
भैयाजी : किसी भी देश के अंदर शिक्षा का अपना एक महत्व रहता है। शिक्षा के द्वारा छात्र स्वाभिमानी बने, जागरूक बने, स्वावलंबी बने और उसका सही मायने में ज्ञानवर्धन होता जाए यही शिक्षा का मुख्य उद्देश्य है। इसके साथ-साथ एक बड़ी भूमिका है कि सभी के अंदर, हर व्यक्ति के अंदर संभावना होती है और इस संभावना को शिक्षा के द्वारा ही बाहर प्रकट रूप में लाया जा सकता है और ऐसी ही शिक्षा व्यवस्था होना चाहिए। लेकिन दुर्भाग्य से स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद कुछ समय तक तो ठीक चला,  लेकिन बाद में किसी न किसी भ्रांत धारणाओं के चलते शिक्षा नीतियों में आधुनिकता की होड़ में जाकर जो बदलाव किए गए, उसके चलते हमारे सामने गंभीर प्रश्न खड़े हो गए हैं कि क्या हम छात्रों को समाज, देश और उसके अंदर के देवीय गुणों को प्रकट करने की दिशा में सफल हो पा रहे हैं? ये निश्चित है कि आज विज्ञान के युग में सभी प्रकार की जानकारी एवं समझ का दायरा बढ़ता जाए, इसमें कोई दो राय नहीं हैं। लेकिन बाल्यवस्था में ही शैशव अवस्था में उसके जीवन की दिशा तय होती है। जबकि शिक्षा जीवन की दिशा तय करने वाली बननी चाहिए। अनावश्यक रूप से प्रोगामिता तक का चोला पहनकर यहां की श्रेष्ठ व्यवस्थाओं को ध्वस्त करने का जो षड्यंत्र चला है वह भिन्न-भिन्न प्रकार के बाहरी चिंतन के आधार पर विश्वास करने वाले लोगों के द्वारा किया जा रहा है।
मैं समझता हूं कि यह न देश और न ही समाज के हित में और न ही किसी प्रकार की भावी पीढ़ी के निर्माण की क्षमता रखता है। इसलिए आज शिक्षा के क्षेत्र में बहुत मूलभूत चिंतन की आवश्यकता है। मैं निश्चित रूप से कह सकता हूं कि भारत में ऐसे अनेक और बहुत बड़े प्रकल्प, प्रयोग जो समाज-परंपरा से हटकर और नए-नए प्रयोग शिक्षा के क्षेत्र में हो रहे है। इन पर प्रयोगों, शिक्षा नीति तय करने वालों को गंभीरता से अध्ययन करते हुए शिक्षा नीति तय करना चाहिए।
भारत का इतिहास या किसी भी समाज या देश का इतिहास ये व्यक्ति निर्माण के लिए उपयुक्त व्यक्तित्व बनाने की दिशा में बड़ी भूमिका निर्वाह करता है और इस प्रकार का पुरुषार्थ जागृत करने वाला, विचारों को दिशा देने वाला और अपने जीवन की एक दृष्टि विकसित होती जाए, ताकि मूल्यों के आधार पर व्यक्ति खड़ा हो। इस प्रकार की शिक्षा पाठ्यक्रम में होने आज की अतिआवश्यकता है।
दुर्भाग्य कहे कि अभी पिछले कुछ वर्षों में शिक्षा क्षेत्र में मैं कहूंगा कि जो एक तरह का खेल चल रहा है, इस खेल से समाज को मुक्त करना चाहिए। सत्ता में हुए परिवर्तन से हम अपेक्षा करते है कि भारत की मानसिकता, आवश्यकता के अनुरूप यहां की परंपराओं के साथ सुसंगत और काल सुसंगत भी हो इस प्रकार की शिक्षा नीति बनना ही चाहिए। हम अपेक्षा करते है कि वर्तमान प्रशासन इस दिशा में बहुत अच्छी पहल करेगा। नए प्रयोगों को अवसर देंगे और ऐसे अभावों को दूर करते हुए नए विचारों का स्वागत करते हुए नवीन शिक्षा पाठ्यक्रम की रचना करेंगे? ऐसी हम आशा, अपेक्षा और विश्वास करते है।
स्वदेश – ठीक ऐसा ही भारतीय शिक्षा पद्धति में इतिहास पर गर्व करने जैसी बातों का नितांत अभाव रखा गया है..? पाठ्यपुस्तकों में परोसे जा रहे विकृत इतिहास के शुद्धिकरण की पहल क्या नहीं होना चाहिए..? अगर होगी तो कब और वैâसे..?
भैयाजी : जो समाज आत्मविश्वास के साथ आगे चलता है वह अपने इतिहास के आधार पर चलता है। जिस तरह इतिहास की भूलें मार्ग पर सोचने को प्रेरित करती है वैसा ही इतिहास में किया हुआ पुरुषार्थ व्यक्ति में आत्मसम्मान की भावना जगाता है। इसलिए देश की पीढ़ियों के लिए देश का वास्तविक इतिहास सिखाने की आवश्यकता होती है, लेकिन दुर्भाग्य से जब यहां का इतिहास का पाठ्यक्रम देखते है तो विदेशी शासकों का प्रशस्ती-गान करने वाला ही इतिहास सिखाया जाता है। क्या यह सोचने की आवश्यकता नहीं है कि यह आत्म ग्लानी निर्मित करेगा? या आत्मसम्मान का भाव जागृत करेगा?
हमारे देश के अंदर बहुत अच्छा प्रशासन चलाने वाली परंपराएं रही  है। पुरुषार्थ किया हुआ है, देश के लिए बलिदान हुए है, अपना सर्वस्व अर्पण करते हुए देश के कई राजा-महाराजाओं ने अपनी बलि चढ़ाकर देश की रक्षा की है। मैं समझता हूं कि ऐसा इतिहास ही समाज निर्माण में अपनी भूमिका का निर्वाह कर सकता है। इसलिए अनावश्यक राजनीति का विषय न बनाते हुए वीर शहीदों को सामने रखकर इतिहास जैसे विषय का पाठ्यक्रम बनना चाहिए।
इतिहास एक अपूर्व जीवन में यह व्यक्ति को अपने समाज की कई विशेषताओं का अध्ययन करने का अवसर देता है। अपनी कमियों को समझने का अवसर देता है और भविष्य में उन कमियों को ध्यान में रखकर जो समाज आगे बढ़ना चाहता है, यह उस समाज का भाव जागृत करने का विषय है और इसलिए इतिहास में राजनीति से ऊपर उठकर देशहित को सामने रखकर इस तरह का पाठ्यक्रम बनाने की आवश्यकता है कि हर किसी में गौरव का भाव जागृत हो, लेकिन मैं समझता हूं कि सामान्य व्यक्ति के अंदर इस संदर्भ में बहुत कुछ परिवर्तन की आवश्यकता है कि देश के वास्तविक इतिहास प्रस्तुत करने वाले ऐसे सारे अच्छे लोगों का सहयोग प्राप्त करके देश के अनुवूâल परंपरा की रचना करना चाहिए। वर्तमान इतिहास इस भूमिका का निर्वाह कर रहा है ऐसा आभास नहीं देता।
स्वदेश  – १७वें एशियाई खेलों में भारतीय खिलाड़ियों ने स्वाभिमान बढ़ाने वाला प्रदर्शन किया है… फिर चाहे बात हॉकी में १६ वर्ष बाद स्वर्ण जीतने की हो अथवा कबड्डी में (पुरुष-महिला) भारतीय टीम ने अपना दबदबा कायम रखा हो..? फिर इन सभी खेलों को क्रिकेट जैसी सुविधा, प्रशंसा मिलने की सरकारी स्तर पर क्या नई पहल शुरू नहीं होना चाहिए..?
भैयाजी : एशियाई खेलों में भारतीय खिलाड़ियों ने बहुत अच्छा प्रदर्शन किया है वे सभी अभिनंदन के पात्र हैं। कई वर्षों के बाद हम किसी एक, दो खेलों में विश्व के मंच पर आगे थे, जिसमें हॉकी भी था। लेकिन १६ वर्षों के एक लंबे अरसे के बाद एक बार फिर भारत हॉकी में आगे आया है। यह हमारे लिए बहुत स्वाभिमान एवं आनंद की बात है। भारतीय खेलों को बढ़ावा देने के बारे में भी अब सोचना चाहिए। हमारे यहां के खेलों की रचना, यहां की जलवायु, यहां की सामाजिक रचना के अनुरूप ही हुई है। खेल ही व्यक्ति को संस्कार प्रदान करने का जरिया है। खेल केवल मनोरंजन भर नहीं। खेल विचारों को दिशा देते है, मन के अंदर के भाव, भावनाओं को भी आगे बढ़ाता है। विचार करने की दिशा में प्रेरित करता है। इसलिए खेल को सिर्पâ मनोरंजन का साधन न मानते हुए सारी समठाता से विचार करना चाहिए। दुर्भाग्य से अंठोजों के द्वारा खेला गया खेल आज अनावश्यक रूप से जो अंठोजों के गुलाम देश थे, उन्होंने इसे अपने सिर पर ले रखा है। केवल अंठोज शासन के अधीनस्थ रहे देश ही आज क्रिकेट खेलते हैं। अमेरिकन, जापान, जर्मन, चीन ये सारे लोग (देश) क्रिकेट से आज भी दूर है। आवश्यकता है कि अपने देश के खेलों को भी हम प्रतिभाओं के साथ विश्व के सामने प्रस्तुत करें। एक अच्छी पहल हुई है कि कुछ दिनों से कबड्डी को विश्व स्तर पर मान्यता मिलती दिख रही है। जो वास्तव में यहां के समाज की भावना को प्रकट करने वाला खेल है। खो-खो जैसे खेल, बिना संसाधनों के चलने वाले गांव-गांव में खेले जाने वाले ऐसे सभी खेलों को विशिष्टता प्राप्त हो इस पर विचार करने की आवश्यकता है। मैं समझता हूं कि क्रिकेट खेलने की मानसिक गुलामी से हमको देश को बाहर लाना होगा।
वास्तव में क्रिकेट को लेकर कई लोगों ने कई प्रकार की बातें कही है कि क्रिकेट खेलने वाले सिर्पâ दो रहते है और उसके गवाह बनते हजारों लोग। ये कोई गौरव की बात नहीं, लेकिन लोग देखते रहते है। मैं समझता हूं कि लोगों के अंदर एक पुरुषार्थ जागृत होगा। एक संघर्ष करने की मानसिकता जागृत होगी। इस प्रकार के संस्कार उनको मिलेंगे, परस्पर सहयोग की भावना बनाने वाली बात होगी। ऐसे ही खेलों को आगे बढ़ाने की आवश्यकता है और इस कार्य में विश्व को भी एक नई दिशा हम दे सकते हैं। इस प्रकार का खेल के क्षेत्रों में यहां के जानकार लोगों को बहुत गंभीरता से विचार करना चाहिए।
स्वदेश – फिर क्या गत माह मप्र के उज्जैन में जो राष्ट्रीय स्तर का मल्लखंभ का आयोजन हुआ था, जिसमें २४ प्रांतों के सैकड़ों विद्यार्थियों ने भाग लिया। क्या इसको राष्ट्रीय स्तर पर खेल रूप में मूर्त रूप देने की  योजना है..? या संगठन स्तर पर सरकार को इसके लिए सुझाव या निर्देशित किया जाएगा..?
भैयाजी : मल्लखंभ अपने यहां की प्राचीन व्यवस्था है, पहले गांव-गांव में मल्लखंभ हुआ करते थे परंतु आजकल साधनों के द्वारा खेले जाने वाले खेलों की होड़ लगी है। इसलिए मल्लखंभ, कुश्ती जैसे खेल एवं विषय जरा पिछड़े हुए लगते हैं। अभी-अभी जो प्रयास किया गया है उज्जैन के लोकमान्य तिलक विद्यालय (लोटि) में मल्लखंभ के प्रशिक्षण, अभ्यास की बहुत उचित व्यवस्था की गई थी। वैसे तो आज भी महाराष्ट्र जैसे कुछ स्थानों पर यह खेल खेला जाता है। क्योंकि मूलत: मल्लखंभ महाराष्ट्र का ही खेल माना जाता है। इसलिए देश के अन्य क्षेत्रों में यह गायब सा है, परंतु सब प्रकार की शारीरिक क्षमता वृद्धि करने वाला, शारीरिक चपलता  को प्रकट करने वाला यह व्यायाम का रूप है। यह कोई दर्शनीय खेल नहीं है। मनुष्य के शरीर को सब प्रकार से पुष्ट करने वाला व्यायाम है और इसकी कई वर्षों की परंपरा रही है। अभी लंबे अरसे से यह खेल सिर्पâ महाराष्ट्र में ही चल रहा है।
मैं समझता हूं कि मल्लखंभ एक सशक्त शरीर निर्माण की प्रक्रिया है।  यह खेलों के लिए जरूरी है, हमने यही सोचकर इसके प्रशिक्षण की योजना दी थी। मैं समझता हूं कि इसको और आगे बढ़ाया जा सकता है। हम अपेक्षा कर रहे है कि क्रीड़ा भारती नामक जो संगठन है इस दिशा में पहल करेगा। उज्जैन में यह एक प्रयोग था, इसलिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रयत्न से हमने यह पहला प्रशिक्षण आयोजित किया था। हम चाहते है कि क्रीड़ा भारती के माध्यम से यह विधा देशभर में पहुंचे। क्रीड़ा भारती इस कार्य में और अधिक योजनापूर्ण तरीके से लगे यही अपेक्षा है।
स्वदेश  – कृषि -कृषकों की बात जब निकलती है तो तीन बिन्दु  उभरते हैं (१) सरकार वैâसे भी कृषि उत्पादन बढ़ाने पर जोर देती है (२) संगठन स्तर पर जैविक खेती का आग्रह, लेकिन जेनेटिक मोडिफाइड (जीएम) फसलों का खुला विरोध (३) ठेका कृषि (कान्ट्रेक्ट खेती) भी अनेक समस्याओं की जड़ है। ऐसे में भारतीय कृषि-कृषकों की स्थिति वैâसे सुधरेगी और विविधता वैâसे बचेगी..?
भैयाजी : आज कृषि यानी बहुत विचारणीय विषय हमारे सामने है। हम बहुत पहले से कहते आए है कि भारत एक कृषि प्रधान देश है, पर मैं समझता हूं कि जब से औद्योगिक क्षेत्र में हमने पहल की, क्रमश: तब से खेती की अनदेखी होती गई। वह एक समय था जब निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि भारत की आवश्यकता अपने उस दौर के कृषि तंत्र से प्राप्त करवाना कठिन लग रहा था। अत: उस समय के शासनकर्ताओं ने एक नई कृषि नीति को स्वीकार किया। जो कृषि नीति पूरी दुनिया में चल पड़ी थी उसी को हमने भी अपनाने की बात कही। हरित क्रांति का नारा दिया गया, उसका एक स्वाभाविक परिणाम था कि देश में फसल का उत्पादन बढ़ा। हम निश्चित रूप से कह सकते है कि आज अगर भारत अन्न, धान के क्षेत्र में स्वावलंबी बन खड़ा है तो इसका कुछ श्रेय तो हरित क्रांति के बाद जो योजनाएं लागू की गई उसे देना चाहिए। लेकिन दुर्भाग्य यह भी रहा कि इस तंत्र को स्वीकारते समय उसके सभी पहलुओं पर शायद हमने विचार करने की आवश्यकता नहीं समझी, लेकिन आज हम ऐसा अनुभव कर रहे है कि उस कृषि नीति पर पुनः विचार किया जाना चाहिए। पिछले ५०-६० वर्षों में हमने अपने कृषि तंत्र को भुला दिया और नए तंत्र को स्वीकारने के कारण कुछ लाभ हुआ, परंतु आज बहुत बड़ी कीमत चुकानी की स्थिति में आ गए है। ऐसा कृषि वैज्ञानिक भी मानते हैं।
हरित क्रांति के विषय में प्रमुख रूप से भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ाने के बजाए भूमि की पूरी उर्वरा शक्ति का लाभ उठा सके, इस नाते जो बड़ी योजनाएं बनी थी उसमें ४ प्रमुख बातें सामने आई। उन्नत बीजों का निर्माण किया गया। उन्नत बीज निर्माण की जो बाह्य विशेषता है जिसमें संकरी बीज को औद्योगिक दृष्टि से बिना रासायिनक खाद के उत्पादन नहीं किया जा सकता, तब इसके लिए रासायनिक खाद आया। रासायनिक खाद के कारण फसलों में जल की मात्रा कई गुणा बढ़ाना पड़ी। जिसके कारण भू-जल स्तर नीचे आया। बीजों एवं खाद के लिए किसानों को बड़े-बड़े उद्योगों पर निर्भर होना पड़ा, जबकि पहले गांव में ही खाद बनता था। ऐसे में खाद-बीज के लिए शासन की व्यवस्थाओं पर कृषक निर्भर हुआ। इससे एक और नई परेशानी बढ़ी, कीटों की वृद्धि हुई और फिर कीटनाशकों की जरूरत पड़ी। लेकिन इसमें भी मुझे लगता है कि विज्ञान अधूरा साबित हुआ। जो पहली बात चली तो कीटनाशक आए, बाद में ध्यान में आया कि दवाईयों का अत्याधिक प्रयोग करने के कारण कृषि के लिए जरूरी कीट भी मरने लगे। ऐसे में फिर कीट नियंत्रक आए, इसके बाद जब ध्यान आया तो भारत के वैज्ञानिक अब कह रहे है कि कीट नियोजक चाहिए। अर्थात् पेस्ट प्लानिंग चाहिए। हुआ यह कि इस प्रकार के प्रयोग भारत की कृषि में होते रहे। इससे हमारा किसान जो बहुत ज्यादा आत्मनिर्भर था वह परावलंबी बन गया। उसको हर बात के लिए दूसरों पर निर्भर रहने की आदत पड़ गई। इसी से कृषि-कृषकों का स्वावलंबन खत्म हो गया। उसी के कारण हमारी जैव विविधता के सामने भी प्रश्न खड़ा हो गया। इसका बड़ा कारण है कि आज भू-जल स्तर बहुत नीचे चला गया है। भूमि की उर्वरा शक्ति खत्म हो रही है। हर वर्ष रसायनिक खाद की प्रति एकड़ मात्रा किसानों को बढ़ाना पड़ रही है।
अतः हमने जो कृषि तंत्र विकसित किया अब इसको सही दिशा में लाने की आवश्यकता है। ऐसा लगता है कि हम गलत दिशा में जा रहे हैं। पर्यावरण को ध्यान में रखते हुए प्रदूषण को ध्यान में रखकर जल स्तर का विचार करते हुए कृषि क्षेत्र में पुराने-प्राचीन प्रयोगों को पुनर्जीवित करने की आवश्यकता है। आज भारत ही नहीं दुनिया का वैज्ञानिक गलत कृषि नीतियों के कारण चिंतित है। हम एक बार पुनः अपनी कृषि विविधता पाना चाहते है तो जैविक खेती करनी होगी। उर्वरा शक्ति बढ़ाना है तो केचुआ खाद, गोबर खाद के बिना कोई हल नहीं है। इसीलिए पशु धन की चिंता करनी होगी। जलसंवर्धन भी करना होगा। अनावश्यक रासायनिक खादों का उपयोग न हो, ऐसी समठाता से विचार करना होगा। भारतीय विविधता के बीजोें के निर्माण की प्रक्रिया शुरू हो, तभी आगे जाकर हम अपने बिगड़े कृषि तंत्र को सुधारने में सफल होंगे। तभी तो आज के कृषि तंत्र से वास्तविक किसान भी चिंतित है। मैं समझता हूं कि शासन भी इन्हीं सभी बातों को ध्यान में रखकर कृषि नीति में परिवर्तन की पहल करें, तो बेहतर होगा।
स्वदेश – जब रक्षा क्षेत्र जैसी संवेदनशील व्यवस्था में भी एफडीआई को मंजूरी दी जा रही है, तब अन्य क्षेत्र में भारतीय हितोें की सुरक्षा कितनी सुनिश्चित मानी जा सकती है..?
भैयाजी : ये ठीक है कि कुछ-एक क्षेत्रों में विदेशी धन का, विदेशी शक्तियों का प्रवेश हो रहा है, हमारे लिए भविष्य में चिंता का विषय बन सकता है। प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) को देश की आर्थिक एवं अन्य व्यवस्थाओं में प्रवेश देना,  इस विषय में हम बहुत समठाता से विचार करने की जरूरत महसूस करते है। जहां तक सुरक्षा तंत्र का प्रश्न है तो दुनिया का कोई भी देश अपनी सुरक्षा व्यवस्था में किसी भी विदेशी शक्तियों को एक सीमित प्रवेश देता है। यह स्वाभाविक भी है। यह होना भी चाहिए, पर आज यह एक संवेदनशील विषय बन गया है। विदेशी शक्तियों को हम अपने सुरक्षा व्यवस्था में कितना प्रवेश दें? हर देश को स्वयं की रक्षा व्यवस्था तो करना ही चाहिए, तो उसे विदेशी शक्तियों, विदेशी तत्वों से भी दूर रखना चाहिए। आज जो माहौल है ये विश्व के संदर्भ में बहुत संवेदनशील बना हुआ है। अतः इस विषय पर बहुत सोच-विचार कर कदम बढ़ाना चाहिए। लेकिन यह भी एक आवश्यकता है कि आज सुरक्षा के साधनों, संसाधनों का महत्व बढ़ा है। हमारे पास दुनिया के देशों की तुलना में उतने प्रभावशाली संसाधन नहीं है, लेकिन मैं मानता हूं कि यह कोई मापदंड नहीं हो सकता। परंतु एक स्तर तक आने के लिए किसी बाहरी देशों से सहयोग लेते है तो मैं समझता हूं कि इसका विवेक रखते हुए सोचना चाहिए। हमारे पास ऐसे शोध करने वाले वैज्ञानिक है उन्हें पूर्ण संसाधन एवं सहयोग देकर इस दक्षता को बढ़ाना चाहिए। शासन व्यवस्था को इस पर गंभीर विचार करना चाहिए। लेकिन साथ ही इस विदेशी निवेश एवं सहयोग की एफडीआई व्यवस्था का समय-समय पर समीक्षा करते हुए कितना आगे बढ़ना है? क्या करना है? ऐसा विचार होते रहना चाहिए।
स्वदेश – भूटान, जापान, नेपाल, अमेरिका जैसे देशों के शीर्ष नेताओं से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भेंटवार्ता को भारतीय विदेश नीति में किस परिवर्तन के रूप में देखते हैं..?
भैयाजी : प्रधानमंत्री ने जो पहल की है, मैं समझता हूं कि भारत का जो स्वभाव है, उसके अनुरूप ही है। जिन देशों से मित्रता होना है, सामरिक दृष्टि से भी यह अनिवार्य है। ऐसी मित्रता की दिशा में नए सत्ता परिवर्तन के बाद एक स्वाभाविक पहल हुई है और इसीलिए शपथ विधि में अपने सारे पड़ोसियों को बुलाना और इसका भी विवेक रखते हुए कि किस देश पर भरोसा नहीं किया जा सकता? उसे नहीं बुलाया…यह भी अपने आप में एक विशेष परिचय अपनी सत्ता ने दिया है। प्रधानमंत्री जो बाते कही कि हम किसी से डरते भी नहीं और किसी को डराने वाले भी नहीं है। ऐसा आज तक नहीं कहा गया था, मैं समझता हूं कि भारतीय विदेश नीति का यही अहम सूत्र है। हम किसी को डराएंगे नहीं, डरेंगे नहीं, ऐसा भाव दर्शाता है कि जो विदेशों से आज व्यवहार हो रहा है यह समानता के साथ मित्रता का भाव वाला है। हमारे प्रधानमंत्री ने यह बात हिम्मत के साथ कही है, दबी जुबान में नहीं। हमारी जो खुली बातें है वह प्रधानमंत्री विदेशों में जाकर मंचों से कह रहे हैं। भारत के स्वाभिमान पर धक्का लगेगा, ऐसी कोई घटना नई सत्ता के आने के बाद नहीं हुई।
मैं समझता हूं कि आज भारत सभी राष्ट्रों से बराबरी के स्तर पर बात कर रहा है। इतना ही नहीं अपने व्यवहार से हम दुनिया को प्रभावित कर सकते हैं, इस प्रकार का दृश्य आज पूरा विश्व अनुभव कर रहा है। विदेशों में जाकर भारतीय भाषा का सम्मान रखने की बात प्रधानमंत्री ने कही है। अभी तक हमारे लोग विदेशों में जाते थे, अंठोजी भाषा में उनका संवाद होता था उसको भारत का सामान्य व्यक्ति समझ नहीं पाता था। मैं समझता हूं कि आज हमारे संवाद क्या हो रहे हैं, हमारे प्रधानमंत्री दुनिया को क्या बता रहे हैं, यह सामान्य भारतीय को भी पता चल रहा हैं। प्रधानमंत्री ने राष्ट्र भाषा का जो बोध करवाया है, वह अपने आप में विशेष बात है। आज दुनिया भारत को विशेष दृष्टि से देख रही है। १९४८ के बाद से पहली बार इस चुनाव में ये भिन्न विचारधारा के लोग सत्ता में आए हैं, तो इस विचारधारा को भी विश्व स्तर पर समझने की ललक बढ़ी है। इस विचारधारा को अलग नजरिये से देखा जा रहा हैं। भारत की जो विशेष बातें है, उसको वैश्विक स्तर पर रखने की प्रधानमंत्री की पहल यही सभी बातें भारत के बारे में दुनिया को सही सोचने को प्रेरित करेगी। मित्रता एवं बराबरी के स्तर पर बात करने की यही विदेश नीति आगे बढ़ना चाहिए। विदेश नीति के नजरिये से एक अच्छी पहल हुई है इस रफ्तार को बनाए रखना होगा।
स्वदेश – चीन की विस्तारवादी नीति के अनुभव को देखते हुए वर्तमान सरकार को कितना सतर्वâ रहने की आवश्यकता है? क्योंकि चीनी राष्ट्रपति जिनपिंग के प्रति  प्रधानमंत्री मोदी का विश्वास क्या नेहरूजी के पंचशील का परिवर्तित रूप है..?
भैयाजी : वास्तव में चीन के साथ संबंध बनाते समय पूर्व इतिहास को हमेशा ही मन में रखना चाहिए। हम यह जरूर कह सकते है कि लोगों की सोच में परिवर्तन आता है। हो सकता है कि चीन की सोच में भी परिवर्तन आया हो! लेकिन अनुभव के आधार पर बहुत संभलकर कदम डालने की आवश्यकता है। चीन के आर्थिक विकास से हम प्रभावित न होते हुए अपनी सारी अस्मिता के साथ उससे बातचीत करना चाहिए। जिस तरह से चीन ने यहां के अलगाववादी तत्वों को समय-समय पर सहयोग किया है वह हमारी स्मृति में निरंतर बना रहना चाहिए। आज देश में जो भी हिंसात्मक गतिविधियांं होती है उसमें कहीं न कहीं ध्यान में आता है कि चीन के सहयोग के बिना यह संभव नहीं है। नक्सलवाद हो या माओवाद की समस्या? और इन समस्याओं के निर्माण होने में चीन की कोई भूमिका नहीं है, ऐसा कहने की हिम्मत तो हम नहीं कर सवेंâगे। यह मन में सोचने की आवश्यकता है। सिर्पâ विषय यह है कि गत ४०-५० वर्षों से चीन सीमाओं को लेकर बहुत आक्रामक रहा है। कभी वह अंतर्राष्ट्रीय सीमा की बात करता है, कभी वह हमारे भू-भाग को अपना दिखाता है, कभी हिम्मत के साथ भारतीय सीमाओं में घुसकर उस भूमि को हड़पने की मंशा रखता है। इन कोशिशों की समीक्षा करते रहना चाहिए।
मैं समझता हूं कि बड़े स्वाभिमान एवं आठाह से यह कहने की आवश्यकता है कि जब तक सीमा विवाद हल नहीं होगा, तब तक हम चीन से कोई बात नहीं करेंगे। ठीक है, आज के जगत में सामंजस्य के आधार पर ऐसे विषय हल होने चाहिए। किसी भी प्रकरण की एकांतिक भूमिका लेकर प्रश्न हल नहीं होते। यह व्यवहारिक बात भी हम सभी जानते हैं। लेकिन इस व्यवहारिकता का विचार करते समय हम अपना कुछ खो तो नहीं रहे है? इसकी चिंता करने की अति आवश्यकता है।
चीन ने हमें समय-समय पर अपने विस्तारवाद का परिचय दिया है और इसलिए बहुत सावधानी से कदम बढ़ाना होंगे। अविश्वास का वातावरण न रहे और सावधानी भी बरती जाए। आज के युग में परस्पर सहयोग की भावना विषय बनते आती है, तो हम सिर्पâ सहयोग लेने वाले नहीं, सहयोग देने की ताकत भी रखते हैं। इस प्रकार का परिचय चीन को भारत की ओर से मिलना चाहिए। निश्चित रूप से कह सकते है कि कुछ ऐसे क्षेत्र है कि हम चीन को भी सहयोग कर सकते है। इस सबका विचार करते हुए बराबरी के साथ खड़े होकर चीन से बात करनी चाहिए। मैं समझता हूं कि इस दिशा में भारत सरकार ने चीन के साथ बेहतर पहल की है।
स्वदेश –  क्या आप भी मानते हैं कि हिन्दू स्वाभिमान की झलक दिखाने वाली सरकार अपनी जिम्मेदारियों को भी उसी दायित्व के साथ निभा पाएगी..?
भैयाजी : देखिये ऐसे किसी शासक के द्वारा कोई हिन्दू स्वाभिमान की बात प्रकट होने से ये पूरा होगा क्या? मैं नहीं मानता। जब तक देश का प्रत्येक सामान्य व्यक्ति हिन्दुत्व की विचारधारा एवं संघर्ष के साथ खड़ा नहीं होगा, तब तक कुछ इने-गिने लोगों के बल पर और यह स्वाभिमान व हिन्दुत्व की शक्ति स्थाई बनेगी? ऐसा नहीं है। यह ठीक है कि आज जो लोग सत्ता में गए है, वे हिन्दुत्व के विचारों के प्रति प्रतिबद्धता दर्शाते हुए आ रहे है। इन विचारों के प्रति मैं समझता हूं कि उनकी दृढ़ता और भावना निरंतर बनी रहेगी। इसी में देश का भला है। यह ठीक है कि हिन्दुत्व का विचार है वह बहुत व्यापक है, विशाल है, यह संकुचित नहीं है, हिन्दुत्व का स्वाभिमान यानी बाकी अहिन्दू के प्रति अनुदार…इसलिए हम कहेंगे कि हिन्दुत्व का विचार रखने वाले लोग कभी भी अन्य धर्म, किसी अन्य धर्म के खिलाफ अन्याय का भाव अथवा कार्य नहीं करेंगे। सभी के प्रति न्याय की भावना रखने वाला ही हिन्दू होता है। इसलिए अहिन्दू होने इस प्रकार का भाव कर हिन्दू विचारधारा की सरकार से डरने की जरूरत नहीं है। लेकिन मैं समझता हूं कि सरकार को अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह करने के लिए हिन्दुत्व का स्वाभिमान यही पर्याप्त नहीं है। जिम्मेदारियों को निभाना है तो कुशलता भी चाहिए और संसाधनों की वृद्धि भी करना होगी। जिम्मेदारियों का निर्वहन और समठा देशवासियों के विकास की योजना भी बनानी होगी।
मैं समझता हूं कि इस बार हिन्दुत्व इस विषय से बेदखल है। क्षमता, प्रतिभा के आधार पर जिम्मेदारियों के निर्वहन की बात आती है। मैं सोचता हूं कि इस विषय को और अलग ढंग से देखा, सोचा, समझा जाना चाहिए।
स्वदेश –  एकात्ममानववाद से समाज परिवर्तन किस तरह से संभव है?
भैयाजी : दीनदयालजी ने अपने जीवन के अंतिम कालखंड में भारतीय चिंतन के आधार पर अपना एक दर्शन प्रस्तुत किया है वही एकात्म मानववाद के रूप में जाना जाता है। यह एक मूलभूत चिंतन है, मैं समझता हूं कि किसी भी प्रगत समाज के लिए वह आवश्यक है। वह केवल भारत के लिए ही नहीं है। इंट्रीगल विजन कहा गया, एकात्म मानव दर्शन कहा गया अर्थात् एकात्मवाद कहा गया है। यह केवल भारत के लिए नहीं है, किसी भी विश्व के मानव समूह के लिए इस प्रकार का विचार करने की आज आवश्यकता है। इसलिए सारे तंत्र में विकास की अवधारणाओं के सामने प्रश्न है और इसलिए एकात्म मानव विकास की अवधारणा को निश्चित करता है। इस रूप में इसे हम जानते है। समठा विकास का अध्ययन इससे प्रकट हुआ है। इसमें समाज की व्यक्तिगत जीवन की आवश्यकता की पूर्ति की बात है। वैसे ही समाज के प्रति दायित्व/कर्तव्य के भाव को भी प्रकट करता है और मनुष्य के विकास की बात करता है। भौतिक संसाधनों की विकास की आवश्यकता है। व्यक्ति के अंदर के देवत्व के विकास की भी आज आवश्यकता है और समठाता से भी सोचने की आवश्यकता है। यही तो एकात्म मानव दर्शन का रूप है, जो पूर्णतः सैद्धांतिक है।
मैं समझता हूं कि इसको व्यवहार में लाने के लिए स्थाई योजनाएं बनाना पड़ेगी। एक-एक सिद्धांत को सामने रखकर सोचना पड़ेगा। दीनदयाल जी ने दुनिया के सामने एक बहुत बड़ा सिद्धांत रखा है कि मनुष्य, यह परिवार का अंग है। परिवार, समाज का अंग है। समाज, सारी पृथ्वी का हिस्सा है और यह सारी ब्राह्मांड का हिस्सा है। यह जो एकात्म भाव प्रकट करने की बात है, अगर इस प्रकार की बात होती है तो वसुधैव कुटुम्बकम् के सिद्धांत की विश्व में सबसे बड़ी कल्पना की बात ही हो रही है। हम भी विश्व में कल्याण की बात करते हैं, एकात्म मानव दर्शन के आधार पर योजनाओं को स्थापित करना याने विश्व कल्याण की दिशा में बढ़ना है। वसुधैव कुटुम्बकम् के सिद्धांत को अगर व्यवहार में लाना है तो एकात्म मानव दर्शन के आधार पर योजनाएं बनाना ही होगी।
स्वदेश – वेंâद्र में आई नई सरकार के बाद से क्या आपको लगता है कि एकात्म मानववाद का प्रयोग कहीं शुरू हो चुका है।
भैयाजी : वर्तमान शासन इस दिशा में पहल जरूर कर रहा है, ऐसा लगता है। इस प्रकार की योजनाएं बन रही है। निश्चित रूप से यह एक कठिन कार्य है। यह इतना आसान नहीं है। मुझे लगता है कि प्रमाणिकता के सारे पहलुओं पर विचार किया जाए तो यहां व्यवहारिक आधार पर ऐसी योजनाएं बनाई जा सकती है। हम नई सरकार से यही अपेक्षा करते है कि वो एकात्म मानववाद के व्यवहारिक पक्ष को सामने लाए।
संयोग है कि इसी वर्ष एकात्म मानव दर्शन के प्रणेता के प्रकट भावों को १५० वर्ष हो रहे हैं। इसी संदर्भ में देशभर में चिंतन की प्रक्रिया अलग-अलग स्तर पर चलेगी। बहुत सारे चिंतकों ने, अध्ययनकर्ताओं ने इसकी प्राथमिकताओं को सामने रखा है और सरकार भी इसे उसी भाव से देखती है तो यह व्यवहार में लाना कठिन नहीं है। इसी में सबका भला है। जब हम कहते हैं कि बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय, नहीं हमारा ध्येय है सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय। और इसी के लिए एकात्म मानव दर्शन  के आधार पर योजनाएं बनाना पड़ेगी। व्यक्ति का विकास जब तक व्यक्तिगत एवं संकुचित दायरे से बाहर नहीं आएगा, तब तक यह असंभव है। व्यक्ति का संबंध सारी प्रकृति से है, समाज से है और सारी वैश्विकता के साथ है। इसी भाव को आज विकसित करने की आवश्यकता है।
मैं सोचता हूं कि इसके लिए प्रयोग भूमि ये भारत है और भारत इस प्रण, सिद्धांत, दर्शन को सिद्ध करेगा तो विश्व के सामने भी एक वृहद पहल होगी। मैंं सोचता हूं कि वर्तमान सरकार इस विषय पर प्रयोग करने का साहस रखती है और जरूर इस पर समय आने पर कुछ न कुछ करेगी।
स्वदेश – संघ ने कश्मीर में बाढ़ पीड़ितों की सहायता के लिए सहयोग की अपील की है, जबकि उसी कश्मीर से हिन्दुओं को बेदखल किया गया?
भैयाजी : मैं समझता हूं कि आपदाओं की घड़ी में आपदा को आपदा के रूप में ही देखना चाहिए। जो भी पीड़ित है, उसकी सहायता यही पहला विषय आता है। हम पीड़ितों में कभी भी भेदभाव नहीं करते और करना भी नहीं चाहिए। हम मानवता की बात करते हैं, तो मैं समझता हूं कि जाति, पंथ, संप्रदाय, धर्म उसके ऊपर उठकर एक मनुष्यता के नाते ही विचार करना चाहिए। आज देशभर के सारे चिकित्सक स्वयं घाटी पहुंच रहे हैं उसी से जुड़ा साहित्य पहुंच रहा है और उसी के जरिये घाटी का समाज परिवर्तन की एक दौर से गुजर रहा है। जब घाटी के लोगों के अंतःकरण में यह भाव प्रकट होगा कि घाटी के बाहर के लोग भी हमारे ही है, तब सबकुछ बदलेगा और यही नियति है। इसी प्रयास में संघ और स्वयंसेवक  देशभर के नागरिक आपदा पीड़ितों के लिए लगे हुए है।
स्वदेश – जम्मू-कश्मीर में कट्टरपंथियों द्वारा सेना पर उठाए जाने वाले सवालों का करारा जवाब मिल चुका है। अब नवनिर्माण की दहलीज पर खड़े जम्मू-कश्मीर का धारा ३७० एवं अन्य मामलों का क्या समाधान हो सकता है?
भैयाजी : जहां तक बाढ़ पीड़ितों का सवाल है, इसमें जिस प्रकार से समाज ने एक परिचय दिया है। इसके आधार पर घाटी के लोगों की सोच में परिवर्तन आएगा, ऐसी हम अपेक्षा रखते हैं। जो समाज सेना से डरता था या उन्हें वहां के ही लोगों ने भ्रांतधारणा बैठाकर सेना को शत्रु मानने की बात चला दी थी, अब मुझे विश्वास है कि सेना ने आपदा से बचाव और राहत कार्य को लेकर आज वहां बहुत बड़ा योगदान दिया है। वहां का सामान्य व्यक्ति सेना को अपना हेतु मानने लगा है। इसलिए कहे कि कभी-कभी विपदाओं से भी अच्छी बातें निकलकर आती है।
मुझे लगता है कि जो हमारा (संघ) एवं स्वयंसेवकों का परिचय आया है और सेना ने अपना परिचय दिया है। आज कश्मीरवासी इस परिचय को सामान्य रूप में अनुभव कर रहा है। एक सोच में परिवर्तन इस सारी विपदाओं के पीछे से निकलकर आ रहा हैं। रही धारा ३७० की बातें तो अगर सोच में जब बदलाव आएगा तो यह कोई बड़ी बात नहीं है। अभी इस पर चर्चा और विचार का समय भी नहीं है। वे स्वयं इस समस्या के हल की पहल करेंगे और स्थिति बदलती जाएगी। भावनात्मक बदलाव के साथ ही धारा ३७० कीr प्रासंगिकता और विषय पर स्वयं घाटीवासी ही पहल करेंगे।
स्वदेश – प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भारतीय मुस्लिमों को राष्ट्रभक्त करार दिया है। आप और अन्य हिन्दू संगठन इसे किस रूप में देखते हैं?
भैयाजी : देश मे रहने वाला प्रत्येक व्यक्ति राष्ट्रभक्त बनना ही चाहिए। मैं समझता हूं कि देशभक्त बनने के लिए कुछ भावनात्मक आव्हान की भी जरूरत रहती हैं। इसलिए हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदीजी ने भारतीय मुसलमानों को देशभक्त कहा हैं, तो इसके पीछे देशभक्ति की भावना मुस्लिमों में अतिप्रबल और मजबूत होती जाए, बस यही उनका भाव है। इसके अलावा कुछ नहीं।
देश में रहने वाला मुसलमान हो या फिर ईसाई, उसको देशभक्त बनना ही चाहिए। ये देश की आवश्यकता है। इसलिए इसका भाव प्रधानमंत्री के अंतःकरण में आया होगा, इसे उन्होंने एक धक्का देकर भारतीय मुस्लमानों के आगे बढ़ाया है। यह मुस्लिमों की भावना को जागृत करने का प्रयास जैसा है। एक बात जरूर मानकर चलना चाहिए एक उच्च वर्ग होता है, एक सामान्य वर्ग होता है। इनमें देशभक्ति के भाव का बीजारोपण करने का उन्होंने कुछ माध्यम चुना और वहीं उन्होंने किया। इसका स्वागत करना चाहिए।
इस बात को भी ध्यान में रखना होगा कि २० करोड़ का एक बड़ा जन हिस्सा आज मुस्लिमों का देश में निवासरत हैं। यह कही जाने वाला नहीं है। यही रहेगा और इन्हें भावनात्मक रूप से जोड़कर रखना होगा। विश्वास का भाव बनेगा और देश की परंपराओं को मानने-जानने और अपने को देश का नागरिक मानकर देशभक्त बन वे स्वयं आगे बढ़े। यही सकारात्मक दृष्टि से देखने वाला पहलू है।
स्वदेश – संघ की स्थापना से ही एक धड़ा संगठन की विचारधारा पर ही सवाल खड़े करता रहा है..? लेकिन जब-जब राष्ट्र पर संकट आया हमने स्वयंसेवकों को खड़ा पाया..? आपातकाल, राम मंदिर आंदोलन के बाद  इस बार के सत्ता परिवर्तन में क्या संघ की महती भूमिका नहीं है..?
भैयाजी : Þदेखिये जब कोई भी विचार खड़ा होता है, तो उसके विरोध में बोलने वाले लोग भी खड़े रहते हैं। लेकिन टिकते वही है, जो मूलभूत कोई शक्ति होती है। हम जानते हैं कि १९२५ में संघ की स्थापना हुई थी। उसी वर्ष वहीं पर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) की वामपंथियों ने स्थापना की थी। एक ही वर्ष में साथ खड़े हुए, लेकिन आज वामपंथी विचारधारा समाप्त या कहे खत्म हो रही है। जबकि संघ का विचार कार्य बढ़ रहा है और स्वीकार हो रहा है। संघ की विचारधारा वाले लोग आगे बढ़ रहे हैं। मुझे लगता है कि ऐसे सवाल खड़े करने वाले लोगों , विरोधी विचारों की हम उपेक्षा करें, उनके बारे में बहुत ज्यादा सोचने  की आवश्यकता नहीं है।
हमने और स्वयंसेवकों ने अपना परिचय समाज को दिया है। हम देशभक्ति की भाषा मुख से बोलने वाले नहीं है और जो इस विचारधारा का विरोध करने वाले है, उनका देशभक्ति में क्या योगदान रहा है? इस पर भी दृष्टि डालने की जरूरत है। मैं समझता हूं कि केवल आस्था के विषय के साथ ही संघ और स्वयंसेवक खड़ा नहीं हुआ है, बल्कि सीमा की सुरक्षा का विषय हो, जम्मू-कश्मीर का मसला, उत्तर-पूर्व के मुद्दे, बांग्लादेश की घुसपैठ, पूर्व-कच्छ का संदर्भ, विकास की योजनाओं की बात हो, विद्या भारती हो, कल्याण आश्रम हो, प्रत्येक विषय पर संघ का स्पष्ट विचार और कार्य देखने को मिलता है। मैं समझता हूं कि संघ में दिए गए  संस्कारों का प्रकट भाव होता है, इसलिए संघ की देशभक्ति पर सवाल नहीं उठाया जा सकता। इसीलिए हमारी प्रसिद्धी बढ़ती ही जा रही है।
रही ताजा सत्ता परिवर्तन की बात तो आप जैसा अनुभव करते है, ठीक है स्वयंसेवकों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, लेकिन देश का सामान्य व्यक्ति जागरूक होकर मतदान करें, यही बात संघ ने आगे बढ़ाई। संघ और स्वयंसेवकों ने किसी एक दल को लेकर अपनी भूमिका का निर्वाह नहीं किया है। लेकिन परिवर्तन के लिए जरूर हमने प्रयास और कार्य किया है। क्योंकि सामान्य से सामान्यजन भी परिवर्तन चाहता था। संघ ने इस भाव को देखकर अपनी पूरी शक्ति चुनाव में लगाई। मतदान होना चाहिए, लोगों के नाम मतदाता सूची में पंजीकृत होना चाहिए। नागरिकों को अपना दायित्व निभाना चाहिए। इस बात की चिंता स्वयंसेवकों ने घर-घर जाकर की। परिवर्तन की प्रक्रिया में हमारे जनों ने समाज की भावना के अनुरूप काम किया। हमने समाज को संगठित करने का प्रयास किया और मैं समझता हूं कि इसी के कारण सत्ता में परिवर्तन आया। इतना ही  इस विषय पर सोचना पर्याप्त होगा।
स्वदेश – राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का मानना है कि समाज परिवर्तन सिर्पâ शासन के भरोसे नहीं हो सकता। ऐसी स्थिति में देश के नागरिकों को परिवर्तन के लिए जोड़ने में प्रधानमंत्री की क्या भूमिका हो सकती है?
भैयाजी : संघ का मानना है कि केवल सत्ता में परिवर्तन आने से सारी व्यवस्थाओं में परिवर्तन आएगा? संघ ऐसा नहीं मानता। ठीक है आज के लोकतंत्र में सरकार एक बहुत बड़ा शक्तिशाली पक्ष है, परंतु सारी सत्ता, सारे विषय एवं व्यवस्था का समाधान एक साथ होना किसी भी समाज और देश के लिए संभव नहीं है। ऐसी व्यवस्था में बदलाव करना समाज, संगठन का दायित्व भी नहीं और यह लंबे समय के लिए उचित भी नहीं है। हां, शासन व्यवस्था को ठीक करें, इसे इसी रूप में देखना चाहिए। लेकिन समाज जीवन के रूप में जो शासन का विधिक क्षेत्र है, वह सेतु के रूप में बनकर कार्य करते देखा जाना चाहिए। यही भूमिका पहले से भी रही है। चाहे धार्मिक, शिक्षा, सामाजिक क्षेत्र रहे हो, इसमें हमारी भूमिका शुरू से रही है, क्योंकि राजनीतिक वेंâद्र से मुक्त रहकर ही यह कार्य किया जा सकता है।
सरकार का काम आज लोकतंत्र की परिभाषा में सामान्यजनों को सुविधा प्रदान, करना उसके लिए कानूनी प्रावधान बनाना, सभी प्रकार की विदेशी ताकतों से उसकी रक्षा करना, ऐसा विचार भिन्न-भिन्न देशों के संबंध में वैâसा हो? इसकी नीति बनाना शासन का काम है। समाज जीवन के विभिन्न क्षेत्रों को स्वावलंबन से अपने-अपने विचारों के आधार पर सुविधाएं एवं अवसर मिलना चाहिए। इस प्रकार का समाज द्वारा समठा विचार नहीं किया जाएगा, तब तक कोई भी देश-समाज आगे तक नहीं चल सकता। और हां केवल सत्ता के भरोसे सभी बातें संभव नहीं। क्योंकि सत्ता का दायरा सिर्पâ समाज परिवर्तन नहीं। समाज को सुविधाएं प्रदान करना भर है। समाज-जीवन, सामाजिक संस्थाओं को भी समाज का पूरक बनकर कार्य करना चाहिए।
नई शासन एवं सत्ता ने अपने को शक्ति का एक प्रमुख वेंâद्र माना और इसका प्रभाव भी होना चाहिए। इसकी भूमिका जनता की शक्ति को जागृत करने में होनी चाहिए। जनता की शक्ति का आंकलन करना, यह कार्य वर्तमान सत्ता ने शुरू किया है। स्वच्छता अभियान, यह बहुत बड़ी पहल है। जनता-जनार्दन से वार्तालाप शुरू किया गया है। इसके बेहतर नतीजे मिलेंगे। बदलाव में जनता की महत्ती और प्रभावी भूमिका को समझकर प्रधानमंत्री श्री मोदी ने जनसंवाद की पहल की है। मैं मानता हूं इसके बेहतर परिणाम दृष्टिगोचर होंगे।
स्वदेश – संघ की मान्यता है कि वह व्यक्ति निर्माण करता है, लेकिन वही व्यक्ति जब राजनीति में आता है तो विपरीत आचरण करने लगता है। ऐसी स्थिति में संघ अपने को कितना सफल मानता है? क्योंकि जब कसौटी पर रखा जाता है तो वही संघ से जुड़ा व्यक्ति राजनीति में भ्रष्ट हो जाता है?
भैयाजी : संघ का कार्य व्यक्ति निर्माण का है। हम संस्कार देते हैं, विचारों को दिशा देते हैं। समाज-जीवन में काम करने की शैली का निर्माण करते हैं। समाज में आज विचारों को लेकर प्रतिबद्धता वाला व्यक्ति चाहिए। जीवन की शिथिलता को दूर करने वाला व्यक्ति चाहिए। संघ की रचना में इस प्रकार के व्यक्ति निर्माण की प्रक्रिया को समाज दृष्टि से योग्य व्यक्ति निर्माण कहते है, लेकिन बाहर बहुत प्रदूषण है। जीवन में भी प्रदूषण आ जाता है और जीवन पर उसका प्रभाव भी दिखता है। प्रदूषित वातावरण में भी जो व्यक्ति सिद्दत से काम करता है, यही एक स्वयंसेवक की प्रतिबद्धता का मापदंड है। इस दिशा में सोचे तो इस प्रकार की शुद्धता, शुचिता, प्रतिबद्धता का परिचय संघ के समर्पित लोग समाज में निरंतर दे रहे हैं। ऐसे लोगों को बढ़ावा दिया जाना चाहिए और इन्हीं आदर्शों के कारण समाज, संगठित होकर आगे बढ़ रहा है। हर व्यक्ति में कोई न कोई कमी होती है, लेकिन इस आधार पर संघ पद्धति के कार्य की समीक्षा करना उचित नहीं है। दोष होते है और उन्हें दूर करने के प्रयास होना चाहिए।
स्वदेश – राष्ट्रवादी विचारधारा के पोषणकर्ता दैनिक स्वदेश इन्दौर के आगामी स्वर्ण जयंती समारोह को लेकर आपका क्या मार्गदर्शन एवं विचार है..?
भैयाजी : अच्छी बात है कि इन्दौर स्वदेश अपने स्वर्ण जयंती समारोह (२०१५-१६ में) का आयोजन करने जा रहा हैं। एक लंबी अवधि का अनुभव प्राप्त स्वदेश के सभी योजनाओंकर्ताओं, नियोजनकर्ताओं ने जो अनुभव किया। आज के इस प्रसार माध्यमों के दौर में प्रदूषित वातावरण ने जो क्षरण किया। प्रसार व संचार माध्यमों की विश्वनीयता पर जो प्रश्न चिन्ह लगे हैं, मैं समझता हूं कि स्वदेश समूह की एक बहुत बड़ी भूमिका रहेगी, कि वह इन भ्रांतधारणाओं में एक परिवर्तन लाने का कार्य किस प्रतिबद्धता से कर रहा है। अतः स्वदेश समूह से हमारी अपेक्षा है विचारों के प्रति स्पष्टता रहे। वहां के नीति-निर्धारण करने वालों की विचारों के प्रति प्रतिबद्धता रहे, कमिटमेंट रहे। स्पष्टता और प्रतिबद्धता भी आज के सारे प्रदूषित वातावरण में जरूरी है। कुछ मूल्यों के साथ ही प्रसार माध्यमों को आगे बढ़ने की महत्ती आवश्यकता है। इसलिए कीमत भी चुकाना पड़ती है। विचार के लिए पैमेंट तो करना होगा। एक विजन के साथ, एक मिशन के साथ अर्थात् दृष्टि और लक्ष्य तय करना होगा। अपनी सारी योजनाओं पर विचार करते हुए।
मैं अपनी अंतिम बात यही कहूंगा कि समाचार पत्र में आदर्श और आकर्षण भी हो, क्योंकि सिर्पâ श्रेष्ठ बातें बिना आकर्षण के सामान्य व्यक्ति को अपनी तरफ खींचने में विफल रही है। इस बात का स्वदेश समूह को ध्यान रखना चाहिए। इस कार्य में किसी प्रकार के सहयोग, समाज का साथ लेते रहने की जरूरत है। हम यही अपेक्षा करते है कि आपने जो सोचा उस विषय एवं दिशा में हम मिलते रहेंगे। यही शुभेच्छा है।
इस अवसर पर उपस्थित थे स्वदेश के प्रबंध संचालक श्री दिनेश गुप्ता। उन्होंने श्री भैयाजी जोशी द्वारा दिए गए मार्गदर्शन एवं जिज्ञासा समाधान के लिए उनके प्रति कृतज्ञता का भाव प्रकट किया।

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