मोदी जी के संकट मोचन हनुमान,सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल हर मर्ज की दवा है
– पंडित मुस्तफा आरिफ
आजादी के बाद से राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार नियुक्त करने की ऐसी कोई परंपरा नहीं थी, इसकी प्रमुख वजह ये भी हो सकती है कि उस समय के नेताओं के अनुभव को देखते हुए, शायद इसकी जरूरत ही महसूस नहीं हुई हो। जब अटल बिहारी वाजपेयी ने 1998 में 21 दलों की एनडीए सरकार बनाई, तब पहली बार अमेरिका की तर्ज पर राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के रूप में पूर्व राजनयिक ब्रजेश मिश्रा की नियुक्ति हुई थी,जो इस पद पर 2004 तक रहै थे। उनके बाद के दो अन्य सलाहकार जे.एन.दीक्षित और शिवशंकर मेनन कूटनीति के क्षेत्र से आए थे। अब तक बने पांच सुरक्षा सलाहकारों में से दो एम.के.नारायणन और अजीत डोभाल खुफिया विभाग के पूर्व अधिकारी है। आज हम यहाँ डोभाल के व्यक्तित्व और कार्य क्षमता और कुशलता की चर्चा कर रहैं है। जिनकी छबी अपने पूर्वजों की अपेक्षा हट कर है। जिन्हें प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का न केवल वरद हस्त प्राप्त है, अपितु उनकी अद्भुत कार्य प्रणाली और सुजबुझ के कारण उन्हें, मोदी सरकार का संकट मोचन भी कहा जाता है। केन्द्र सरकार के तीन महत्वपूर्ण मंत्रालय गृह, रक्षा और विदेश को मुसीबतों से बाहर निकालने मे 2015 से अब तक महत्वपूर्ण भूमिका रही हैं। फणिश्वर नाथ रेणु के नाटक रसप्रिया एक के तीन के वो एक लोकप्रिय पात्र है, ऐसा कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
अजीत डोभाल की कार्य कुशलता और सफलता के कारण और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के निकट होने के कारण सत्ता के गलियारे में उनको नहीं चाहने वालों और आलोचना करने वालो की अच्छी खासी संख्या है। ऐसे लोग उन्हें ‘दरोगा’ कहकर पुकारते हैं। वो लोग मानते हैं कि डोभाल को कूटनीति और विदेश नीति की इतनी समझ नहीं है, जितनी की इस पद पर बैठने वाले व्यक्ति की होनी चाहिये। पिछले दिनों जब उनकीं चीन के रक्षा मंत्री वॉंग यी से दो घंटे चर्चा हुई उसके बाद चीन की सेना ने पीछे हटना शुरू कर दिया, जिस पर चीन अब तक अपना अधिकार जता रहा था। तब उनके आलोचकों को उनकी सुजबुझ और कार्य क्षमता का परिचय मिल गया। न केवल उनकी बोलतीं बंद हुईं, बल्कि वे अचंभित हो गये। डोभाल ने 2017 में भी चीन को अपना रुख बदलने के लिए राजी किया था, जब डोकलाम में चीन और भारत के सैनिक आमने सामने खङे थे। डोभाल ने ब्रिक्स में उस समय अपने समकक्ष यांग जी ची से बात कर मामले को तूल पकङने नहीं दिया था। उनकी बातचीत जारी रहीं, जर्मनी के हैम्बर्ग में उन्होंने दोनो तरफ के सैनिकों को पीछे हटने की योजना बनाई। इस बातचीत में उन्होंने ने इस बात का एहसास कराया अगर समाधान नहीं किया गया तो नरेन्द्र मोदी का ब्रिक्स सम्मेलन में आना मुश्किल होगा।
इसी साल फरवरी में अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के श्रीचरण भारत में पङे और दिल्ली का जाफराबाद सुलग उठा। ये दिल्ली के ओखला में पहले से चल रहै सीएए विरोधी आंदोलन का विस्तार था। समर्थको और विरोधियों के बीच द्वंद्व थमने का नाम नाम नहीं ले रहा था। मोटा भाई अंतर्ध्यान थे, राजनैतिक विवशता केंद्रीय गृह मंत्री को सामने नहीं आने दे रही थी, ऐसा एक बार नहीं अनेक बार हुआ है। जब विपरीत राजनैतिक परिस्थिति होती हैं तब गृह मंत्री अमित शाह सीधे मैंदान में नहीं आते, ये प्रचारित कर दिया जाता है कि वो अपने ऑफिस में बैठकर सब मेनेज कर हैं हैं। यहीं वजह है कि न तो वो सीएए विरोधी आंदोलनकारियों से जाकर मिले न मिलने का समय दिया। जब हालात बेकाबू हो गये और आग बुझने का नाम नहीं ले रहीं थी, तब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने संकट मोचन पवन पुत्र हनुमान अजीत डोभाल को मैदान में उतारा, और वे गले में माइक लगाये सङको पर उतरे तब जाकर हालात सामान्य हुए। लेकिन जब तक पानी सिर से ऊपर निकल चुका था, और अनेक निरीह व असहाय गरीब लोग हिंदू और मुसलमान दोनो ही डूब चुके थे। पांच वर्ष सत्ता संभालने के बाद बाद मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल भी इतने राजनैतिक परिपक्व हो गयें हैं कि पतली गली से निकलना उन्हें भी मोटा भाई की तरह से अच्छी तरह आ गया है। बहरहाल संकट मोचन नरेन्द्र पुत्र अजीत ने गङ जीता और हालात काबू में आए। अजीत डोभाल ने कश्ती ली संभाल, उनकी जय हो।
नार्थ साउथ ब्लाक में बैठे देश के सर्वाधिक जिम्मेदार पदों पर बैठे गृह, रक्षा और विदेश मंत्रालय के मंत्री अजीत डोभाल के होते हुए सिर्फ मुंह दिखाईं के हैं। राजनैतिक गलियारों में विशेषकर भाजपा के श्रेष्ठी वर्ग मे चर्चित है कि समस्या में घिरने पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को संकट से अजीत डोभाल निकालते हैं, लेकिन श्रेय तीनों विभाग के मंत्रियों को मिले इस लिए सार्वजनिक बयान के समय उनको प्रेस के सामने लाया जाता है, जिससे कि उनकी छबी धूमिल न हो। विगत दिनों में विशेषकर कोरोना काल में निर्मला सीता रमण नार्थ साउथ ब्लाक में एक मात्र ऐसी मंत्री है, जिनकी कार्य पद्धति स्वमेव है और उस पर अजीत डोभाल की छाप नहीं है। ऐसा जन सामान्य को भी लगता है कि प्रधानमंत्री कम से कम वित्त मंत्रालय की तरफ से तो निश्चिंत है। चाहे जम्मू-कश्मीर पुलिस और अर्धसैनिक बलों के जवानों से चर्चा करनी हो, कोरोना संक्रमण काल में हाट स्पाट बने तबलीगी जमात के मरकज़ को खाली कराने का मामला हो, अजीत डोभाल पर ही इन संवेदनशील कामों के लिये प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भरोसा किया। मिजोरम के 1986 के समझोते का श्रेय भी अजीत डोभाल को जाता है। कारवां पत्रिका के अगस्त 2017 के अपने लेख अंडरकवर में श्री प्रवीण डोसी ने लिखा ” पाकिस्तान में अपने कार्यकाल दौरान अजीत डोभाल कहूटा में पाकिस्तान के परमाणु संयंत्र के पास एक नाई की दुकान से पाकिस्तानी वैज्ञानिकों के बाल का सेम्पल ले आए जिससे ये निश्चित करने में आसानी हुई कि कहूटा में किस ग्रेड के यूरेनियम के साथ काम किया जा रहा है।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से उनकी नजदीकी उनके प्रधानमंत्री बनने से पहले शुरू हो चुकी थी, जब डोभाल विवेकानंद फाउंडेशन के प्रमुख थे। वर्ष 2014 मे जब भाजपा सत्ता में आई तो तीन अन्य नामों को दरकिनार कर प्रधानमंत्री ने उनके नाम पर मोहर लगा दी। यद्यपि राजनैतिक विश्लेषकों का मानना है कि इस समय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और अमित शाह के बाद अजीत डोभाल तीसरे ताकतवर सख्श है, लेकिन व्यवहार, कुशाग्र बुद्धि और सुजबुझ के कारण वो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के एकमात्र विश्वास पात्र हैं। जो हर एक कठिन परिस्थिति से सरकार को उभारने की क्षमता रखते हैं।