महंगे विदेशी कुत्तों से ज्यादा उपयोगी है भारत के गलियों में घूमने वाले देसी श्वान
-तुषार कोठारी
लम्बे समय तक विदेशी ताकतों का गुलाम रहने की वजह से हम भारतीयों में विदेशी भाषा,विदेशी वस्तुओं,विदेशी परंपराओं और विदेशी संस्कृतियों को सम्मान और स्वयं की देसी चीजों को हिकारत से देखने की आदत विकसित हो चुकी है। विकसित विश्व में इसे कालोनियल कांसेप्ट कहा जाता है। चाहे भाषा की बात हो,या खानपान की या चाहे पशुओं की,अधिकांश भारतीयों को विदेशी चीजे अधिक अच्छी लगती है। यही आदत कुत्तों के मामले में भी है। घर पर अगर कुत्ता पालना हो,तो लोग विदेशी नस्ल के कुत्तों की खोज करते है। महंगे दामों पर विदेशी नस्ल का कुत्ता खरीद कर उसे पालते है। जबकि देसी कुत्ते गलियों में इधर उधर भटकने के लिए छोड दिए जाते है और इन्हे आजकल स्ट्रीट डॉग कहा जाता है।
अधिकांश भारतीयों का मानना है कि विदेशी नस्ल के कुत्ते अधिक चालाक और अधिक समझदार होते है,जबकि भारतीय कुत्ते बेकार होते है। लेकिन अब यह मिथक टूटने लगा है। हाल में उत्तराखण्ड पुलिस के महानिरीक्षक संजय गुंजियाल ने पुलिस के श्वान दल में एक स्ट्रीट डॉग याने गली के कुत्ते को शामिल किया। जब इस श्वान ने अपनी क्षमताओं का प्रदर्शन किया,तो लोग दांतो तले अंगुली दबाने को मजबूर हो गए। इस देसी कुत्ते को नाम श्री गुंजियाल ने ठेंगा रखा है। वही ठेंगा,जो दूसरों को नीचा दिखाने के लिए दिखाया जाता है।
उत्तराखण्ड पुलिस के इस श्वान ठेंगा ने पुलिस की ट्रेनिंग हासिल करने के बाद जो कारनामें दिखाए उससे यह साबित हो गया कि भारतीय देसी कुत्तों की योग्यता किसी भी लिहाज से विदेशी उंची से उंची नस्ल के कुत्तों से कम नहीं है। देसी कुत्तों को पालना,विदेशी कुत्तों की तुलना में बेहद कम खर्चीला है। विदेशी कुत्ते भारतीय वातावरण में एडजस्ट नहीं हो पाते और अधिक बीमार होते है। उनका खानपान भी देसी कुत्तों की तुलना में बेहद महंगा होता है,जबकि देसी कुत्ते कुछ भी खा लेते है। वे बीमार भी कम पडते है और सबसे बडी बात कि क्षमताओं में किसी भी तरह विदेशी नस्ल के कुत्तों से कम नहीं होते।
उत्तराखण्ड पुलिस के श्वान दल में शामिल इस श्वान का नाम ठेंगा रखे जाने की कहानी भी कम रोचक नहीं है। पुलिस महानिरीक्षक श्री गुंजियाल के मुताबिक उन्होने इस श्वान का नाम ठेंगा रखने का सन्दर्भ, महाभारत में वर्णित एकलव्य की कहानी से लिया है। श्री गुंजियाल के ही शब्दों में,ठेंगा उस कटे हुए एकलव्य के हाडमांस के अंगूठे का प्रतीक भर है,जो तत्कालीन समाज में राजपरिवार या राजपुत्र अर्जुन को ही अजेय और सर्वश्रेष्ठ बनाने की जिद में तब तार्किकता और न्याय का दम घोटा गया और जिसके लिए कोई बोलने वाला ना था,उसे प्रशिक्षण के योग्य तक भी ना तब समझा गया और ना आज भी समझा जा रहा है। सामाजिक असमानता को पोषित करने का दोषी तत्कालीन समाज रहा है। आखिर क्यो गुरु द्रोण के इस सिस्टम में एक लायक को उस इनायत का हकदार नहीं बनाया गया,जो मात्र अर्जुन और राजपुत्रों के लिए था? ढर्रे से अलग असमानता को नियति मानने से इनकार करता विद्रोही सोच युक्त वह कटा निर्जीव सा अंगूठा आज उस पुरा-सोच को ठेंगा दिखाने की कोशिश में,पुलिस परिवार का सम्मानित सदस्य बननेकी जद्दोजहद में देहरादून में प्रशिक्षणाधीन है।
उत्तराखण्ड पु्लिस के महानिरीक्षक संजय गुंजियाल का यह प्रयोग आने वाले दिनों में न सिर्फ पुलिस विभाग के लिए फायदेमंद साबित होगा,बल्कि गलियों में विचरने वाले कुत्तों के लिए भी फायदेमंद रहेगा। भारतीय लोगों की यह गलतफहमी कि विदेशी नस्ल के कुत्ते ही उपयोगी होते है,उत्तराखण्ड पुलिस के इस प्रयोग से निश्चय ही दूर होगी और आने वाले दिनों में हो सकता है कि पुलिस और सेना के श्वान दलों में देसी कुत्ते नजर आने लगेें।
यह प्रयोग अपने स्व को हेय मानने वालीे और पाश्चात्य की हर चीज को सम्मान देने वाली भारतीय कालोनियल मानसिकता को भी बदलने में कहीं ना कहीं जरुर असर डालेगा। जिस समाज में अपने माता पिता के संबोधन तक विदेशी भाषा से लिए जा रहे हो,वहां इस तरह के प्रयोगों की महती आवश्यकता है।