देश के विभाजन की मानसिकता की पुनरावृत्ति
– डा. रत्नदीप निगम
राहत इंदौरी जब शायरी की जुबान में यह कहते हैं कि यह मुल्क हमारे बाप दादाओं का भी है तो राहत महसूस होती है कि वो अप्रत्यक्ष रूप से मानते हैं कि यह मुल्क उनके बाप दादाओं का है ।लेकिन टी वी चैनलों पर होने वाली चर्चाओं और बहस में विभिन्न तंजीमो के मौलानाओं , मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड में सदस्यगण,और मुस्लिम बुद्धिजीवियों को सुनते हैं तो राहत इंदौरी की शायरी पर संदेह होता है । मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के एक महत्वपूर्ण सदस्य रहमानी जब यह कहते हैं कि मुगल बादशाह औरंगजेब ने अखण्ड भारत बनाया था तो सिखों के गुरुओं की शहादतें व्यर्थ लगने लगती हैं । लज्जित होता है उन साहबजादों का बलिदान जिन्हें इस्लाम कबूल न करने पर जिंदा दीवार में चुनवा दिया गया था औरंगजेब ने । जब एक मुस्लिम फाउंडेशन के चैयरमेन मौलाना अंसार रजा जब ये कहते हैं कि महमूद गजनवी तो हमारा हीरो हैं तो वीर गोगादेव का सपरिवार बलिदान अपमानित होता है । मुस्लिम विद्वान , मौलाना , मुस्लिम धर्मगुरु इस तरह भारत के पूर्वजों को अपमानित करने के शब्द बोलें तो इनके भारत के ज्ञान के प्रति संदेह होता है लेकिन जब मुस्लिम साहित्यकार , कलाकार , शायर , इतिहासकार , लेखक ये बातें कहते हैं तो जिन भारतीयों ने इन साहित्यकारों , शायरों , इतिहासकारों ,फ़िल्म कलाकारों को आदर और प्रसिद्धि दी,वह भारतीय शर्मिंदगी महसूस करता है । देश के एक प्रसिद्ध चैनल पर भारत देश के प्रसिद्ध शायर मुन्नवर राणा जब यह कहते हैं कि हम एक हजार साल से आपके मुल्क में रह रहे हैं अर्थात यह मुल्क उनका अपना नहीं है । तो क्या अंतर है हैदराबाद के अकबरुद्दीन ओवैसी में और मुन्नवर राणा में , जो यह कहता है कि आठ सौ वर्षों से हमने इस मुल्क पर राज किया है । अर्थात न तो अकबरुद्दीन ओवैसी और न ही मुन्नवर राणा इस मुल्क को अपना मानते हैं । तो पीड़ा होती है हर उस भारतीय को जिन्होंने अपनी सहिष्णु संस्कृति के अनुसार इन लोगों कभी उन मुस्लिम आक्रांताओं के अत्याचारों का दोषी नहीं माना जिनके गुणों का महिमामंडन ये लोग कर रहे हैं । महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि एक आम भारतीय किस शायर की बात पर यकीन करें, राहत इंदौरी के अथवा मुन्नवर राणा के ।
वर्तमान परिदृश्य में जब भारतीय समाज से ख्याति प्राप्त नसीरुद्दीन शाह , आमिर खान , जावेद अख्तर को अचानक भारत में डर लगने लगने लगता हैं , भारत से बेहतर कोई और मुल्क लगने लगता हैं तो अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के पूर्व छात्रसंघ अध्यक्ष और इस्लामिक विद्वान आरिफ मोहम्मद खान का यह वक्तव्य प्रासंगिक हो जाता है कि 1947 में जो विभाजन का सैलाब आया था वह बह तो गया लेकिन कुछ गंदगी यहाँ छोड़ गया । इस वक्तव्य को कनाडा के प्रसिद्ध लेखक तारीख फतेह के आसान शब्दों से समझा जाये तो उनका कहना और सार्थक लगता हैं कि देश का विभाजन तो जिन्होंने माँगा था वो तो यहीं रह गए और जिन्होंने माँगा ही नहीं था उन पर लाद दिया गया । अर्थात ये पुनः उसी मानसिकता की पुनरावृत्ति हैं जो आज उभर कर सामने आ रही है ।
इन सभी विमर्श में एक बात और रेखांकित हो रही है कि यह लोकतांत्रिक और हिंसक आंदोलन संविधान बचाने के लिए हो रहा है । जबकि 1986 में शाहबानों प्रकरण में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को बदलने अर्थात संविधान की अवहेलना का आंदोलन इन्हीं तंजीमो ने चलाया था । प्रश्न यह भी है कि संविधान को बचाने के लिए आन्दोलनरत यह मुस्लिम समूह जिसमें साहित्यकार , शायर , प्राध्यापक , कलाकार , धर्मगुरु , राजनीतिज्ञ आदि सम्मिलित है , संविधान को पहले मानता है अथवा शरीयत को ? सम्पूर्ण विश्लेषण से यह चिन्हित होता है कि यह मुस्लिम समूह एक काल्पनिक शत्रु से लड़ने में व्यस्त हैं नार्म्स चॉम्स्की के कथनानुसार । नार्म्स चॉम्स्की एक प्रख्यात अमेरिकी वामपंथी विद्वान हैं जिन्होंने भारतीय कम्युनिष्टों पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि भारतीय कम्युनिस्ट अपने लिए हमेशा एक काल्पनिक शत्रु तैयार करते रहते हैं और उस शत्रु से लड़ने का स्वांग करते रहते हैं जैसे जब अमेरिका और इराक में युद्ध हो तो इराक के पक्ष में होकर अमेरिका की आलोचना करेंगे और जब इस्लामिक चेचन विद्रोहियों और रूस में युद्ध हो तो रूस के पक्ष में भारतीयों को लामबंद करेंगे ।
भारत के रंगमंच पर खेले जा रहे इस कथानक के सूत्रधार वे ही हैं जिनके शिक्षण के अनुसार वे “आपके” भारत मे एक हजार वर्षों से रह रहे हैं ।