दिल्ली में तब्लीगी जमात :ये गलती थी या साजिश!
प्रकाश भटनागर
इस दिशा में दिमाग चलने की केवल यह वजह नहीं है कि पत्रकारिता के लंबे दौर में क्राइम की खबरों पर भी खूब काम किया है। दिमाग का एक खास दिशा में जाना यूं भी हो रहा है कि वह परत दर परत विचारणीय तथ्य सामने आते देख रहा है। दिल्ली में तब्लीगी जमात के जिस कृत्य को कल मैंने मूर्खता माना था, अब उसमें ‘खतरनाक अक्लमंदी’ की बू आने लगी है। साफ लग रहा है कि यह सब नादानी में नहीं, बल्कि पूरी तरह सोच-समझकर किया गया काम था। सब कुछ यूं हुआ कि इसके पीछे किसी साजिश के होने की आशंका को नजरंदाज नहीं किया जा सकता।
यह तय है कि आयोजक दो में से किसी एक दिशा में ‘प्रायोजित’ दिमाग बनाकर चल रहे थे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने फरवरी के अंत में ही आगाह किया था कि सार्वजनिक आयोजनों और कार्यक्रमों से बचें। लेकिन उसके बाद दिल्ली में ये बड़ा मजहबी आयोजन हुआ। क्या इसकी वजह यह रही कि यह मोदी के लिए किसी अवज्ञा आंदोलन की तरह वाली सोच पर आधारित था! वह सोच जो सीएए के मजहब परस्त विरोध के चलते यह बताती है कि मोदी जो भी कहे, उसका ठीक उल्टा काम करो। वह सोच जो तमाम वैज्ञानिक तथ्यों की बजाय केवल किसी मजहबी पुरुष की बात को ही मान्यता प्रदान करती है। यह हुआ पहला प्रायोजित दिमाग। अब दूसरी संभावना, वह यह कि आयोजन यह सोचकर किया गया कि ऐसा मौका फिर नहीं मिलेगा।
मुस्लिमों के मोदी, भाजपा और संघ के विरोध को मैं समझ सकता हूं लेकिन अब लोकतांत्रिक देश में बहुमत से चुने गए दलों को सरकार चलाने का हक है। जिन्हें सरकार के कामकाज समझ में नहीं आते उन्हें लोकतांत्रिक तरीके से विरोध का भी हक है। लेकिन दुनिया भर में छायी जानलेवा महामारी कोरोना लोगों की जान लेने से पहले देश, जात-पात, पंथ-मजहब, ऊंच-नीच तो देख नहीं रही है। इसलिए ऐसे कठिन समय में सरकार पर भरोसा करके तय किए जा रहे नियमों को मानने के अलावा कोई और चारा नहीं है। यह कुछ लोगों की जान का मामला नहीं समूची मानवजाति के लिए चुनौती है।
इसलिए मुझे अपनी दोनों ही आशंकाओं में दम दिखता है। नागरिकता संशोधन विधेयक पर मुंह की खाने वाले मजहब परस्तों के लिए मोदी की सलाह को धता बताना या फिर इस खिसियाहट का गुस्सा ‘व्यापक तौर पर निकालना’ दोनों ही विकल्प कोरोना वायरस ने उपलब्ध करा दिए हैं। इन में से जो भी तथ्य आयोजकों के दिमाग में था, उसके तहत काम योजनाबद्ध तरीके से किया गया। ध्यान दीजिये कि देश में विदेशी नागरिकों के ठहरने की सूचना स्थानीय पुलिस को देना अनिवार्य है। लेकिन दिल्ली की मस्जिदों और मदरसों में इस आयोजन के लिए ठहरे विदेशियों की कोई इत्तेला पुलिस को देने का उपक्रम तक नहीं किया गया। इस से हुआ यह कि देशव्यापी संक्रमण फैलाने के पूरे इंतजाम हो गए। संदिग्ध विदेशियों की सोहबत में पर्याप्त समय तक रहने के बाद लोगआनन-फानन में उनके गृह राज्यों के लिए रवाना कर दिए गए। वे ट्रैन से गए। उन्होंने बस पकड़ी। अपने राज्यों में लोगों के बीच पहुँच गए। यानी जब तक यह सब सामने आता, तब तक हजारों की संख्या में कोरोना के नए मरीजों के सामने आने का पुख्ता बंदोबस्त किया जा चुका था। इस तथ्य पर भी गौर करें कि देश भर में मुस्लिम बस्तियों में जहां भी स्वास्थ्य कर्मी या प्रशासन के लोग जांच पड़ताल के लिए जा रहे हैं, वहां सहयोग तो दूर की बात है, बाकायदा विरोध हो रहा है। दिल्ली और इंदौर में तो स्वास्थ्य कर्मियों पर थूकने की घटनाएं सामने आई हैं। इस जहालत को रोकने के लिए इसी मजहब के समझदार लोगों को इनके बीच पहुंच कर इनका कोई भी अज्ञात डर दूर करना चाहिए या नहीं? लेकिन ऐसा भी कुछ हो नहीं रहा है।
यदि आयोजकों का यह सब करना ‘भूलवश’ वाली बात मान लिया जाए तब भी यह तो संदेह होता ही है कि निजामुद्दीन के पास स्थित मरकज से सम्बद्ध मस्जिद में रखे गए तब्लीगी वर्कर्स को बाहर नहीं आने दिया जा रहा था। खुद राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोवाल को देर रात वहां जाकर कर इन लोगों के चिकित्स्कीय परीक्षण की गुहार लगाना पडी। यहां तक कि मस्जिद की सफाई के लिए भी वहां के कर्ताधर्ता बमुश्किल राजी हुए। बिहार की एक मस्जिद में रखे गए इस आयोजन के प्रतिभागियों को लेने पहुँची पुलिस पर योजनाबद्ध तरीके से पथराव किया गया। तब्लीगी जमात के मौलाना साद का हाल ही में वायरल हुआ वीडियो देखिये। आयोजन के दौरान इसमें वे लोगों से कह रहे हैं कि मुस्लिमों के लिए मरने के लिए मस्जिद से बेहतर कोई और स्थान हो ही नहीं सकता है। इन बातों से कई बातें साफ है। आयोजन से जुड़े तमाम तथ्य जानबूझकर छिपाये गए। संक्रमण की रोकथाम एवं संदेही संक्रमकों को ठीक होने से रोकने की चेष्टा की गयी और मौलाना साद सहित तमाम लोग इस बात से पहले ही वाकिफ थे कि इस आयोजन के चलते कोरोना वायरस के प्रसार एवं उसके भयावह परिणाम सामने आना तय है।
सोशल मीडिया पर इस सारे प्रसंग के जिक्र के बीच ‘स्लिपर सेल’ एवं ‘नापाक मंसूबे’ जैसे शब्द इस्तेमाल किये जा रहे हैं। यदि इनसे इत्तेफाक न रखें तब भी मामला उतना सीधा नहीं दिखता है, जितना दिखाया जा रहा है। याद रखिये ये वही दिल्ली है, जहां सीएए के विरोध को हिंसक स्वरुप देने के लिए पाकिस्तान के इशारों पर भौंकने वाले कुछ हिन्दुस्तानी ही सक्रिय हो गए थे। ध्यान रखना होगा कि यह सब उसी शहर में हुआ है, जिसमें अल्पसंख्यकों को मजहब के नाम पर बहुत आसानी से सीएए के विरोध के काम पर लगा दिया गया था। और ये भी दिमाग में बैठा लें कि कोरोना के सदिग्धों को छिपाने की ये तिकड़म उस सब से ज्यादा अलग नहीं हैं, जिसके तहत कश्मीर में पत्थरबाजी या आतंकियों के खिलाफ कार्रवाई का मुखर विरोध किया जाता रहा है। अच्छा हो कि मेरे ये संदेह निर्मूल साबित हों, किन्तु जो कुछ हुआ, उसके मूल से चुभे विचारों के शूल फिलहाल तो बिलकुल भी आराम नहीं लेने दे रहे हैं।