…………तो फिर काहे के कमलनाथ
प्रकाश भटनागर
तो यह लगभग तय सा लग रहा है कि मुख्यमंत्री कमलनाथ कांग्रेस प्रदेशाध्यक्ष के तौर पर अभी और लंबा समय बीता सकते हैं। पार्टी महासचिव और प्रदेश के प्रभारी दीपक बावरिया से मुख्यमंत्री की पटरी नहीं बैठ रही है। यह कोई छिपी हुई बात नहीं है। लिहाजा, कांग्रेस आलाकमान ने मध्यप्रदेश में सत्ता और संगठन के बीच समन्वय बनाने के लिए समिति का गठन कर दिया। इस समिति के गठन से एक बात और साफ हो गई है।
2019 में लोकसभा की करारी हार के बाद राहुल गांधी ने कांग्रेसाध्यक्ष का पद भले ही जिद करके छोड़ दिया हो लेकिन पर्दे के पीछे से कठपुतलियों की डोर अभी उनके ही हाथ में है। अगर इस समिति पर नजर डालेंगे तो साफ समझ आएगा कि सब कुछ राहुल गांधी के इशारे पर ही हुआ है। समिति में मुख्यमंत्री कमलनाथ और पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह को छोड़ दिया जाए तो बाकी सब पर राहुल गांधी की छाप साफ नजर आएगी। समिति में पूर्व प्रदेशाध्यक्ष के तौर पर इकलौते अरूण यादव शामिल किए गए।
अरूण के कांटेक्ट सीधे सोनिया और राहुल दोनों तक हैं। बाकी कांतिलाल भूरिया और सुरेश पचौरी को इस लायक नहीं समझा गया। जाहिर है एक की नजदीकी केन्द्र में लंबे समय तक मंत्रिपद पर रहने के बाद दिग्विजय सिंह तक सीमित है तो दूसरे की पार्टी के राजनीतिक प्रबंधक अहमद पटेल तक। पर शायद अहमद पटेल सोनिया गांधी के दाएं-बाएं हो लेकिन राहुल से उनका वास्ता बेपटरी ज्यादा है।
इसलिए ज्योतिरादित्य सिंधिया, दीपक बावरिया, मीनाक्षी नटराजन और जीतू पटवारी सब राहुल गांधी की पसंद माने जाने चाहिए। पर क्या इससे मुख्यमंंत्री कमलनाथ की सेहत पर कोई फर्क पड़ेगा? मुझे लगता है दिग्विजय सिंह और कमलनाथ सब पर भारी पड़ेंगे। कांगे्रस के एक बड़े और फिलहाल हाशिए पर चल रहे नेता ने बातचीत में इन दोनों दिग्गजों के रिश्तों पर बात करते हुए कहा था कि कांग्रेस में कमलनाथ और दिग्विजय सिंह के बीच की केमेस्ट्री समझने में कई सारे नेताओं की पुश्तें खप जाएंगी। जाहिर है सरकार चलाने से लेकर संगठन तक कमलनाथ को पग-पग पर दिग्विजय सिंह काम आ रहे हैं। इसलिए बहुतों को लगता है कि कमलनाथ सरकार में सुपर सीएम की भूमिका में दिग्विजय सिंह ही हैं। यह स्वाभाविक भी है। दिग्विजय सिंह प्रदेश कांग्रेसाध्यक्ष से लेकर दस साल तक लगातार मुख्यमंत्री रहे हैं। कमलनाथ की सारी राजनीति कुछ समय पहले तक दिल्ली और मध्यप्रदेश में छिंदवाड़ा तक ही सिमटी हुई थी। इसलिए यहां की नौकरशाही से लेकर प्रदेश कांग्रेस के मिजाज समझने तक कमलनाथ को हर कदम पर केवल दिग्विजय सिंह का ही भरोसा है। ज्योतिरादित्य सिंधिया निश्चित तौर पर प्रदेशाध्यक्ष बनने के लिए छटपटा रहे हों लेकिन यह संभव नहीं लगता कि कमलनाथ के मुख्यमंत्री रहते ऐसा कोई और प्रदेश कांग्रेसाध्यक्ष आ सकता है जो सत्ता और संगठन में एक दूसरा केन्द्र बन जाए।
इस समिति में सुश्री मीनाक्षी नटराजन एक अलग ही तरह की शख्सियत हैं। वे अब तक समझ नहीं पाई हैं कि आज के दौर में जमीनी राजनीति और गांधीवाद दोनों एक साथ चल सकते हैं। इसलिए मंदसौर में एक लोकसभा चुनाव जीतने के बाद वे दो लोकसभा चुनाव भारी भरकम अंतर से हारने का रिकार्ड बना चुकी हैं। 2009 में वे जीती भी केवल इसलिए थी कि लगातार ग्यारहवीं बार मंदसौर से लोकसभा चुनाव लड़ रहे डा. लक्ष्मीनारायण पांडे से भाजपा के कार्यकर्ता ही उकता गए थे। इसलिए वे तब केवल तीस हजार वोटों से डा. पांडे को हरा सकी थीं। इसके बाद वे सवा तीन और पौने चार लाख वोटों से हार गर्इं। मीनाक्षी के मंदसौर में पैर जमाने का नतीजा यह हुआ कि कांग्रेस के तमाम स्थानीय दिग्गज हाशिए पर चले गए। जिन नए युवाओं को मीनाक्षी ने खड़ा किया वे चुनावी राजनीति में कभी खड़े ही नहीं हो पाए। उनकी भ्रूण हत्या हो गई। नतीजा मंदसौर-नीमच जिले में तमाम कांग्रेसी अप्रासंगिक हो चुके हैं। लेकिन मीनाक्षी की सेहत पर असर इसलिए नहीं हुआ क्योंकि वे पहले भी आलाकमान की चहेती थी और आज भी हैं ही। वे अच्छी नेता हैं लेकिन जमीनी राजनीति के लिए नहीं बनी हैं।
अरूण यादव भी कसरावद और खरगौन के बाहर कभी बड़े नेता नहीं बन पाए। लोकसभा का एक उपचुनाव उन्होंने खरगौन से जीता और एक वो ही 2009 का चुनाव। तब भाजपा के वे सारे दिग्गज हारे थे जिनसे कार्यकर्ता अजीज आ गए थे, उनमें एक नंदू भैया भी थे। बाकी डां पांडे, सत्यनाराण जटिया, थावरचंद गेहलोत से लेकर फग्गन सिंह कुलस्ते तक सब को हारना पड़ा था। लिहाजा, अरूण यादव भी ऐसा कोई करिश्मा नहीं कर पाएं है जिनसे उन्हें जमीनी राजनीति का बड़ा खिलाड़ी माना जा सके। इसलिए लगता नहीं कि इस समन्वय समिति से मुख्यमंत्री और प्रदेश कांग्रेसाध्यक्ष कमलनाथ को कोई फर्क पड़ेगा। वे जैसी सरकार चला रहे हैं, चलाते रहेंगे। न उन्हें मंत्रिमंडल में फेरबदल करना है न कोई नया प्रदेशाध्यक्ष आना है। और राजनीतिक नियुक्ति तो दीपक बावरियां करने नहीं देंगे। और अगर कमलनाथ अपनी पसंद से नियुक्तियां नहीं कर पाएं तो फिर काहे के कमलनाथ। लगता है सरकार से बाहर रह गए कांग्रेसियों के लिए अच्छे दिनों का इंतजार लंबा है।