कमाल वाले कमलनाथ
प्रकाश भटनागर
यूं भी दो दिन से तबीयत कुछ ढीली है, मध्यप्रदेश की राजनीति की ही तरह। शायद यही वजह है कि दो दिन बाद आज लिखने बैठा तो कलम संभाले नहीं संभल पा रही। जितनी बार ‘की बोर्ड’ पर कमलनाथ लिखना चाहा, उतनी ही बार हाथ लरजे और ‘कमालनाथ’ लिख गया। कहीं यूं तो नहीं कि दिमाग और ऊंगलियों के तालमेल में सोच ही इतनी समझदार हो गयी है कि उसे सही शब्द का चयन करना आ गया हो।
मुख्यमंत्री के लिए तो इन दिनों पूरे दबंग अंदाज में यही कहने का मन करता है, ‘कमाल करते हैं कमलनाथ।’ क्या वाकई यह दंग नहीं करता कि नाथ उसे घोड़े की नाल के निशान को अपनी मंजिल का संकेत मान रहे हैं, जिस घोड़े की लगाम उनके हाथ से लगभग पूरी तरह सरक चुकी है!
अकूत संपदा के मालिक संजय पाठक का रिसॉर्ट तोड़ा जाना ठीक वैसा ही है, जैसे किसी समुंदर से कुछ बालटी पानी बाहर निकालकर उसे जल-विहीन बनाने की नादानी की जाए। यह आज का कश्मीर या पहले का पंजाब नहीं है, जहां एक पूर्व गृह मंत्री (भूपेंद्र सिंह) या किसी विधायक की सुरक्षा वापस लेकर उन्हें जान पर भयानक संकट की आशंका से सिहरा दिया जाए। विश्वास सारंग या अरविंद भदौरिया इस तरह डर जाएंगे, यह भी खामखयाली ही है। लेकिन नाथ ऐसे प्रयास कर रहे हैं। शायद मामला भागते भूत की लंगोटी ही सही वाली स्थिति का है। भूत तो भाग ही रहा है। सुरेंद्र सिंह शेरा यह सुर्रा छोडकर दिल्ली चंपत हो गये कि जल्दी ही उनके लिए खुशखबरी आने वाली है। शेरा की यह बात समझ पाना आसान नहीं है कि खुशखबरी कमल वाले देंगे या खुद कमलनाथ।
बिसाहूलाल सिंह सहित लापता तीन विधायक तो मानों आकाश कुसुम बन गये हैं। पार्टी रोज दावा कर रही है कि वे जल्दी लौट आएंगे। रविवार शाम तक भी उनके लौट कर मुख्यमंत्री से मिलने की खबर है। लेकिन उम्मीद का दीपक वह उजास पैदा नहीं कर रहा, जिसमें ये तीन कांग्रेसी विधायक भी राज्य के मुख्यमंत्री निवास या फिर प्रदेश कांग्रेस मुख्यालय में चमकता चेहरा लेकर दिख जाएं। पार्टी सहित समूची सरकार को यह भूत भी निरंतर डरा रहा है कि कथित रूप से अगवा होने के बाद हरियाणा एवं बेंगलुरु से लौटे एक भी विधायक ने अपने साथ ऐसा कुछ होने की बात नहीं कही है, जिसका दावा दिग्विजय सिंह ने किया था। सभी का साफ कहना है कि भाजपा ने प्रलोभन देना तो दूर, उनसे किसी तरह का संपर्क तक नहीं किया था। अब वे सच बोल रहे हैं या फिर सच छिपा रहे हैं, ईश्वर ही जाने, किंतु उनके इस रुख ने सियासी सस्पेंस से भीतर ही भीतर बिध रही सरकार का यह दर्द और कई गुना बढ़ा दिया है।
इस सारे घटनाचक्र में एक बात और कमाल की हद तक चौंकाने वाली है। ज्योतिरादित्य सिंधिया इस सियासी चलचित्र में मेहमान कलाकार के तौर पर भी नजर नहीं आ पा रहे हैं। क्या वे खुद टेम्परेरी सियासी संन्यास पर चले गऐ हैं या फिर उन्हें नाथ एवं दिग्विजय की तरफ से लम्बी छुट्टी पर भेज दिया गया है? सिंधिया इस सारे हालात में खेल करने की स्थिति में तो निश्चित रूप से हैं। ताजा सियासी संकट वाले पहले दिन मुख्यमंत्री द्वारा बुलायी गयी आपात बैठक में सिंधिया समर्थक एक भी मंत्री शामिल नहीं हुआ था। जाहिर है कि ऐसा अपने नेता की वर्तमान सरकार से नाराजगी के सम्मान में किया गया। तो क्या यह नाथ के वर्तमान कमालों के आगे लगने वाले विस्मयादि बोधकों की संख्या में अनंत इजाफा नहीं करता कि ऐसी आसन्न आशंकाओं के बावजूद वे सिंधिया को साथ नहीं ला रहे। गजब है। जब विधानसभा चुनाव जीतना था, तब सिंधिया स्टार कैंपेनर थे और कमलनाथ ने उनकी गलबहियां करने में कोई कंजूसी नहीं बरती। लेकिन चुनाव जीतते ही जयविलास पैलेस के इस वर्तमान कर्ताधर्ता को दूध से मक्खी की तरह बाहर फेंक दिया गया। लगता है कि नाथ इस सारी नौटंकी के सुखांत की पूरी उम्मीद पाले हुए हैं। इसीलिए वह नहीं चाहते कि जब संकट खत्म हो तो उसके मोचकों में सिंधिया का नाम भी शामिल करना पड़ जाए। यदि वह ऐसा सोच रहे हैं तो गलत भी नहीं है। जीत के सौ खसम होते हैं और पराजय को तो सौत तक नसीब नहीं हो पाती।
निश्चित ही राज्य के सियासी भविष्य को लेकर अभी कुछ भी भविष्यवाणी कर पाना आसान नहीं है। शिवराज सिंह चौहान यदि दिल्ली में ही डेरा जमाए चुप बैठे हैं तो इसे उनके पलायन या काठ मार जाने वाली स्थिति से नहीं जोड़ा जा सकता। संभव है कि राज्यसभा चुनाव से पहले-पहले दिल्ली, हालात की इस बिल्ली के गले में अपनी सुविधा वाली घंटी बांध जाए। रामबाई और संजीव कुशवाहा वर्तमान हालात में अपने दल बसपा के लिए राज्यसभा में प्रतिनिधित्व मांग चुके हैं। समाजवादी पार्टी के राजेश शुक्ला भी भाजपा तथा कांग्रेस को एक ही तराजू में पूरी बराबरी से तौल रहे हैं। कांग्रेस के छह विधायक जिस, ‘..किस पथ पर जाऊं, असमंजस में है भोलाभाला’ वाली मधुशालामयी स्थिति में दिख रहे हैं। उसके चलते यह तय है कि न तो प्रदेश में फिलहाल सरकार निरापद स्थिति में है और न ही यह भाजपा के लिए निश्चिंतता वाले हालात हैं। किसी शायर ने लिखा है, तसव्वुरात की दुनिया है अपने मतलब की, कुछ और देर रुख पे नकाब रहने दे। तो फिलहाल तब तक कल्पना लोक का आनंद लेते हुए चाहे जो इमेजीन करें । हालात पर पड़ी रुख अपने आप हट जाएगी। तब सच को नमस्ते कह लेना। वैसे भी कोरोना वायरस के भयादोहन के इस दौर में बशीर बद्र साहब को याद करना ठीक है, ‘कोई हाथ भी न मिलाएगा जो गले मिलोगे तपाक से, ये नए मिजाज का शहर है जरा फासले से मिला करो।’ और इससे ज्यादा फिलहाल कुछ कहना सुनना ठीक नहीं है।