सिरफिरो और जाहिल जमातियों की वजह से लम्बे समय तक परेशानी झेलेंगे आम मुसलमान
-तुषार कोठारी
हिन्दू और मुस्लिम इन दोनो समुदायों में इतना वैमनस्य संभवतया देश विभाजन के समय रहा होगा,जितना कि वर्तमान में नजर आ रहा है। लोग सब्जी या फल खरीदने से पहले विक्रे ता का नाम पूछ रहे है। अस्पतालों तक में नाम पूछ कर प्रवेश दिया जा रहा है। देश के बहुसंख्यक हिन्दू समाज में मुसलमानों के प्रति दुराग्रहृ और डर समा गया है। आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि यह सब तब हो रहा है,जब देश के किसी भी हिस्से में कहीं कोई सांप्रदायिक विवाद नहीं हुआ है। वरना आमतौर पर साप्रदायिक विवादों दंगो आदि के समय समुदायों के बीच वैमनस्यता पनपती है। लेकिन इस बार ऐसा नहीं है।
इसका कारण सभी को पता है। कोरोना का भारत में प्रवेश हुआ और सरकार ने बडे प्रभावी ढंग से इसकी रोकथाम के प्रयास किए। देश की आम जनता भी सरकार के साथ मिलकर इस महामारी से निपटने में जुटी हुई थी और लगातार यह महसूस किया जा रहा था कि कोरोना की वृध्दि को रोक लिया गया है। लेकिन तभी दिल्ली में मरकज वाला काण्ड सामने आया। तबलीगी जमात के जाहिलों ने कुछ ही दिनों में जनता और सरकार की तमाम कोशिशों पर पानी फेरते हुए पूरे देश में कोरोना को फैला दिया। इसके बाद भी सरकार कोरोना पर नियंत्रण की कोशिशें कर ही रही थी कि इन्दौर में कोरोना हाट स्पाट इलाके में स्वास्थ्य कर्मियों और पुलिस पर पथराव की घटना सामने आ गई। इसके बाद तो देश के अलग अलग शहरों से इसी तरह की खबरें आने लगी।
न्यूज चैनलों पर इसी मुद्दे को लेकर बहस के कार्यक्रम आने लगे। हर टीवी चैनल अपनी बहसों में किसी ना किसी कथित मुस्लिम स्कालर या विद्वान को लाकर बैठाने लगा। टीवी चैनलों में टीआरपी की भूख के चलते इतने संवेदनशील मामले के प्रस्तुतिकरण में भी गंभीरता नहीं दिखाई गई। बहस में जानबूझकर उन कथित मुस्लिम विद्वानों को बुलाया जाने लगा जो कल तक सीएए पर सरकार को कोस रहे थे और आज जाहिल जमातियों के कृत्यों का बचाव कर रहे थे। ये टीवी चैनलों का ही असर है कि अधिकांश हिन्दू इन कथित मुस्लिम विद्वानों को ही पूरे मुस्लिम समुदाय का प्रतिनिधि मानने लगे है। इसी का नतीजा है कि हिन्दूओं का बडा वर्ग पूरे मुस्लिम समुदाय को इन बातों का जिम्मेदार मानने लगा है।
पूरे घटनाक्रम का एक और खास असर देखने को मिल रहा है। कल तक जो खुद को प्रगतिशील हिन्दू बताते हुए विहिप और आरएसएस जैसे हिन्दू संगठनों का विरोध करते थे और प्राणप्रण से हिन्दू मुस्लिम एकता की दुहाई दिया करते थे,वे भी इन घटनाओं के चलते आज मुस्लिम विरोधी बनने लगे हैं। परिणाम यह हो रहा है कि अधिकांश हिन्दू परिवारों में मुस्लिम बहिष्कार की बातें होने लगी है।
इन घटनाओं में हिन्दू समाज की परंपराओं का भी खासा रोल है। आमतौर पर सदियों तक जात पात और छूआछूत मानने वाले हिन्दुओं में पहले से ही मुसलमानों के कुछ रीतिरिवाजों के प्रति घृणा का भाव था। एक ही थाली में कई लोगों का एक साथ भोजन करना या पानी पीने के लिए एक ही पात्र का उपयोग करने जैसे कई रीति रिवाजों के कारण सामान्य हिन्दू व्यक्ति में मुस्लिम के प्रति दुराव का भाव तो रहा ही करता था। लेकिन कोरोना संकट के दौर में कोरोना संक्रमितों द्वारा इधर उधर थूकने जैसी घटनाओं ने उन्हे और भी उद्वेलित कर दिया।
कुल मिलाकर बिना किसी सांप्रदायिक दंगे के,दोनो समुदायों में वैमनस्यता का भाव इन दिनों जोर पकडता जा रहा है। कोरोना संकट खत्म होने के बाद यह वैमनस्यता क्या असर दिखाएगी इसका आकलन करना कठिन है। लेकिन इतना जरुर तय है कि यदि देश के बहुसंख्यक समाज ने यदि दूसरे समुदाय के आर्थिक बहिष्कार का मन बना लिया तो मुस्लिम समाज के गरीब और कमजोर तबकों के लिए बडी कठिनाई पैदा हो जाएगी।
लेकिन इसका हल क्या है? इन समस्याओं का हल भी मुस्लिम समाज के ही पास है। मुस्लिम समाज के प्रगतिशील और बुध्दिजीवी व्यक्तियों की निष्क्रियता के कारण ही इस तरह की समस्याएं जड जमा पाती है।
स्वास्थ्य कर्मियों और पुलिस वालों पर हो रहे हमलों के समय यदि समझदार मुस्लिमों ने जोरदार ढंग से इसका विरोध दर्ज कराया होता तो बहुसंख्यक हिन्दू समाज में यह धारणा नहीं बनती कि प्रत्येक मुसलमान इसी तरह का है। अब भी समस्या यही है। जो मुसलमान इस तरह की घटनाओं को गलत और निन्दनीय मानते है वे अक्सर मौन रहते है। जो इन घटनाओं को जायज ठहराते है,उन्ही की आवाज जोर से सुनाई देती है। जरुरत इस बात की है कि प्रगतिशील और बुध्दिजीवी मुस्लिम आगे आएं और हिन्दू समाज के मन में उत्पन्न होने वाली आशंकाओं को दूर करें। निश्चित रुप से मुसलमानों का बडा वर्ग राष्ट्र की मुख्यधारा के साथ रहने का इच्छुक है,लेकिन मु_ीभर कट्टरपंथी और अलगाववादी यह प्रदर्शन करने में सफल हो जाते है कि वे ही पूरे समुदाय के प्रतिनिधि है। जरुरत इस बात की है कि ऐसे लोगों को अलग थलग किया जाए और इसकी पहली जिम्मेदारी मुसलमानों की ही है।