September 28, 2024

इन गिद्धों के भ्रमजाल से बचें……………….

प्रकाश भटनागर

बहुत सीधी और कुदरतन तयशुदा बात है। लाश दिखेगी तो गिद्ध उसे खाने आएंगे ही। क्या कोई भी यह कहने की मूर्खता करेगा कि गिद्ध उस लाश का डिसेक्शन कर रहे हैं, ताकि लाश की शारीरिक संरचना का अध्ययन कर सकें? या यह कि गिद्ध दरअसल लाश खा नहीं रहे, बल्कि पोस्टमार्टम कर उसकी मौत की वजह पता लगाने का प्रयास कर रहे हैं? इस शिकारी पक्षी के कर्म को इतनी गंभीरता प्रदान करना प्रचंड किस्म की दिमागी जहालत का ही कहलाएगी।

गिद्ध को तो हर जीती-जागती वस्तु में लाश के तौर पर अपनी खुराक ही दिखती है। इसलिए उसे बायोलॉजी का विद्यार्थी या चिकित्सक समझने की बेवकूफी से बचना ही चाहिए। इसलिए यदि आप नरेंद्र मोदी के ‘लोकल के वोकल’ अथवा बीस लाख करोड़ के पैकेज का उपहास करने वालों को गंभीरता से ले रहे हैं तो फिर खुद का नाम उस रजिस्टर में लिखवा लें, जिसमें गिद्धों को लेकर समझदारी वाली अवधारणा रखने वालों का अब तक एक भी नाम दर्ज नहीं किया गया है।

वह पूरी तरह सच है कि कोरोना के कहर से पहले पीपीई किट का देश में वाकई निर्माण नहीं होता था। सडकों पर मास्क लगा कर निकलने वाले किसी अजूबे की तरह देखे जाते थे। लिहाजा अब एक दिन में दो लाख मास्क बनाने वाली बात भी स्थानीय उत्पादन के लिहाज से बहुत बड़ी उपलब्धि है। जिन हालात ने देशी उत्पादों के प्रति बाजार की भारी जरूरतों एवं उससे आमदनी के नए माध्यम का महत्व स्थापित कर दिया है, उन हालात को देशव्यापी जनांदोलन की शक्ल देने की बात का क्या उपहास किया जाना चाहिए? हम तो मोहनदास करमचंद गांधी की कुटीर उद्योग वाली सोच के लिए उनकी प्रशंसा करते थकते नहीं हैं, तो फिर उसी सोच को आज के वातावरण के हिसाब से नया एवं वृहद स्वरुप प्रदान करने के आह्वान को किसलिए कटाक्षों की सूली पर चढाने का बचकाना कृत्य किया जाना चाहिए? लेकिन ‘प्रायोजित’ या एजेंडाबद्ध मानसिकता वाले ऐसा कर रहे हैं। हैरत तो ये कि कई स्वयंभू पढ़े-लिखे भी सोशल मीडिया पर यह पूछ रहे हैं कि बीस लाख करोड़ में से कितना पैसा उनके बैंक खाते में आएगा? जिनका बौद्धिक स्तर निहायत ही पैदल छाप है, वे यह फूहड़ सवाल उठा रहे हैं कि बीस लाख करोड़ में कितने शून्य आते हैं?

हुआ यह है कि मोदी के मंगलवार रात वाले राष्ट्र के नाम सन्देश ने उन लोगों का वैचारिक स्खलन कर दिया, जो यह सोचकर गुदगुदा रहे थे कि प्रधानमंत्री ऐसे कुछ बोलेंगे, जिसकी आलोचना का उन्हें मौका मिल जाएगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। मोदी ने राहत का वो ऐलान कर दिया, जो लोगों की कल्पना से बाहर था। उन्होंने स्वदेशी को दुनिया के साथ जोड़ते हुए प्रायोगिक सच सामने रख दिया, जिसकी किसी के पास कोई काट ही नहीं है। अब मोदी के सम्बोधन से पहले गिद्ध तो बैठे थे भोज की आशा में। जब भोजन का प्रबंध नहीं हुआ तो वैसा करने लगे, जैसे बहुत भूख लगने पर कोई अपनी ही विष्ठा का सेवन करने लगे। कोरोना जैसी त्रासदी के समय राहत वाले पैकेज की घृणित व्याख्या करना इतना नीच कर्म है, जिसकी जितनी भी निंदा करें, वह कम ही होगी।
समस्या यह है कि मोदी में उनके कई गिद्ध सरीखे विरोधियों को किसी संभावित लाश जैसी तस्वीर ही दिखती है। अब छह साल से पनपती यह भूख बिलबिलाहट का रूप लेगी तो वही होगा, जो कल वाले सम्बोधन के बाद की वाहियात टाइप प्रतिक्रियाओं में हुआ।

पत्रकारिता के नाम पर कलंक उस महिला ने बीते दिनों किया, जो अमित शाह के कैंसर जैसी बीमारी से काल कवलित होने की कामना कर रही थी। इनमें से अधिकांश वे लोग हैं, जो देश में मोदी की नोटबंदी से लेकर खोटबंदी करने वाले प्रयोगों के चलते अनुचित लाभों से वंचित हो गए हैं। उन्हें देश की फिक्र नहीं है। देश तो उनके लिए वह आसान सा तत्व है, जिसकी आड़ में वे अपने अनुचित हितों पर हुए कुठाराघात का गुस्सा मोदी पर निकाल रहे हैं। गिद्धों के इस समूह की लाशखोरी को संजीदगी से लेने की जरूरत नहीं है। आवश्यक है कि मोदी की बात पर अमल करें और उसका महत्व समझें। गिद्ध तो गिद्ध ही रहेंगे, कम से कम उन्हें छोड़ कर बाकी देशवासी जिन्होंने मोदी को दूसरी बार सत्ता सौंपने में अपना योगदान दिया है वे तो इंसानी बुद्धि मिलने का सही दिशा में लाभ उठा सकते हंै। इंसान के भेष में गिद्धों की इस लाशखोरी को लेकर एक समूह विशेष आपको बहकाने का प्रयास करेगा। दावा करेगा कि गिद्ध वाकई लाश के शरीर की संरचना को समझने-समझाने का काम कर रहे हैं। वे सचमुच मौत के कारणों की पड़ताल करने में व्यस्त हैं। तो इन शिकारियों के भ्रमजाल से बचें। ये उस फितरत के लोग हैं, जो यदि जंगल में चले जाएं तो उन्हें देखकर लकड़बग्घों का समूह भी डर से सिहर उठेगा।

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