…आखिर हम हैं क्या?
प्रकाश भटनागर
अच्छी खबर है कि एक यान सूरज की गर्मी और मिजाज का हालचाल जानने निकल पड़ा है। यह खबर उस दिन सामने आई, जिस दिन दो सौ साल से अधिक समय पहले अंग्रेजों ने इस देश को ‘विधिवत’ अपना गुलाम बनाया था। तब कहा जाता था कि अंग्रेजी साम्राज्य का सूरज कभी नहीं डूबता। किंतु भारत में वह डूब गया। इसके लिए तमाम प्रयास हुए। लोगों ने प्राणों का बलिदान दिया। घर-परिवार का परित्याग कर दिया। हंसते-हंसते फांसी के फंदे पर झूल गए। हालांकि कालांतर में ‘भारत एक खोज’ की तरह यह महान सत्य पेश किया गया कि केवल चरखे के चलते देश को आजादी मिली। बाकी सारे क्रांतिकारी स्वतंत्रता की लड़ाई के नाम पर मूंगफली चबाते हुए टाइम पास कर रहे थे।
यह बात भी पता चली कि चरखे की गति बनाए रखने के लिए आवश्यक र्इंधन का बंदोबस्त उन पत्रों को रद्दी में बेचकर किया गया था, जो किसी पिता ने जेल में बैठकर अपनी बेटी के लिए लिखे थे। एक प्रभावशाली नौकरशाह रहे हैं। रीति-नीति तथा चालचलन के लिहाज से चरखे और और खतो-किताबत वालों के नजदीक ही दिखते हैं। उन्होंने एक समय फरमाया था, ‘मरने वालों के साथ सभी लोग नहीं मर जाते।’ आजादी के संघर्ष में भी यही हुआ। मूर्ख मरने वालों के साथ समझदार ‘सभी’ नहीं मरे। वो जीते रहे और कई पुश्तों के लिए शान से जीने का इंतजाम कर गए। अब मरने वाले सरहद पर मर रहे हैं। कश्मीर में मारे जा रहे हैं। कई को या तो भीड़ के हाथ पिटने से मौत आती है तो कई को कश्मीर से दूर शरणार्थी कैम्प में अभावों के बीच काल अपना शिकार बना लेता है।
असंख्य लोग इसलिए तिल-तिलकर मर रहे हैं कि वे वोट बैंक नहीं हैं और कई के वध का यूं ही चलते-चलते बंदोबस्त इसलिए हो गया कि वे संगठित होकर अपने खिलाफ हो रहे अन्याय का प्रतिकार नहीं कर पाते।
खैर, मुद्दे की बात यह कि हम आजाद भारत में जी रहे हैं। गजब जिजीविषा के साथ। कांवड़ियों के बीच में। धर्म के नाम पर गाय का मांस खाने की जिद पर अड़े लोगों के साये में। बदमाश और निर्लज्ज घुसपैठियों की मौजूदगी में। गले लगकर आंख मारने की मूर्खतापूर्ण हरकत भी हमें जीवन से ऊबने नहीं देती और नोटबंदी के बाद की सौ दिन की अवधि कभी समाप्त न होने का दर्द भी हमारी श्वांस के आरोह-अवरोह में कोई बाधा पैदा नहीं करता। आश्रय गृहों में हंटर वाले अंकल की तस्वीर हमे मौत का वरण करने के लिए प्रेरित नहीं कर पाती और कठुआ के किसी मंदिर या उत्तरप्रदेश और पुणे के मदरसों में यौन शोषण सहित केरल के चर्च में बलात्कार जैसे प्रकरण भी हमें जीवन के लिए नैराश्य से परिपूर्ण नहीं कर पाते।
बहुत अच्छी फिल्म है, ‘ए वेडनेस डे।’ उसका एक आतंकी पात्र कहता है, ‘हम जिंदा क्यों हैं? एक मकसद के लिए।’ तो फिर उपरोक्त प्रतिकूल हालात के बीच जिंदा भीड़ का भी कोई मकसद तो होगा। वह क्या है? क्या यह देखना कि पाकिस्तान और पाकिस्तानियों की चिंता में मणिशंकर अय्यर और कितने दुबले होंगे? शायद उनकी आंख वह दिन देखने के बाद ही बंद हो पाएगी, जब समस्त भारत भूमि ममता बनर्जी के घुसपैठिए समुदाय का घोषित ठिकाना बन जाएगी। संभवत: वे उस वक्त के इंतजार में अपनी सांस चलने दे रहे हैं, जब प्रशांत भूषण के रोहिंग्या शरणार्थी इस देश के घर-घर पर कब्जा कर बैठे दिखेंगे। हो सकता है कि उनके नसीब में वह दुर्दिन देखना लिखा हो, जब हिंदू-मुस्लिम में विभाजित किए जा चुके इस देश में इंसान नेताओं के इशारे पर एक-दूसरे की जान लेने का अभ्यास सफलतापूर्वक पूरा कर लें। गालिबन उन्हें उस समय का साक्षी बनना हो, जब मायावती का मजबूरी में छिपाया गया जूता फिर बाहर आकर तिलक, तराजू और तलवार का समूल नाश करने निकल पड़े। या जब समाजवादी कुनबे की ओर से फिर किसी फूलन देवी को देश का कानून बनाने वालों की जमात में शामिल कर दिया जाए।
हम तो सूरज की तपिश से भी अधिक जिंदा जलाकर राख कर देने वाले हालात के बीच जीवित हैं। तब आरम्भ में बताए गए यान को तो हमारे अध्ययन के लिए भेजा जाना चाहिए। लेकिन विज्ञान ऐसा नहीं करेगा। क्योंकि वह खामोश सूरज के राज जानने का इच्छुक है, जीवित चीत्कारों को सुनने और उनके समाधान की कोई तरकीब वह आज तक नहीं खोज सका है।
हम वैचारिक नपुंसकता को शिष्टाचार मान बैठे हैं। कायरता को ताकत की उपमा दे रहे हैं। गलत-दर-गलत पर अपनी खामोशी को चीखती क्रांति समझने का महापाप कर रहे हैं। कहा जाता है कि कॉकरोच इकलौता ऐसी जीवित प्रजाति है, जो परमाणु विस्फोट में समूची सभ्यता समाप्त होने के बाद भी जिंदा रहेगा। हम हर दिन एक न एक ऐसे विस्फोट की चपेट में आते हैं। फिर उसके अभ्यस्त हो जाते हैं। उसके साथ एडजस्ट करने लगते हैं। इसके चलते हम जिंदा हैं। रेंग रहे हैं। जरा प्रतिकूल हालात पर अपने-अपने बिलों में घुसकर छिप जाते हैं। फिर भी हम कॉकरोच नहीं हैं। तो फिर आखिर हम हैं क्या? वही दो सौ साल से ज्यादा पुराने वाले नई श्रेणी के गुलाम या फिर कॉकरोच से मिलती-जुलती कोई ऐसी प्रजाति, जिसका औपचारिक रूप से नामकरण किया जाना अभी शेष है? शालीन-सा नामकरण भी हो जाएगा, बदनामी के बदनुमा दागों को छिपाते हुए, राजकुमार हीरानी हैं ना!